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पानी के बूटे..

पानी के बूटे..

-विद्या गुप्ता-

कभी कभी नियति खेल खेल में ही कुछ संकेत करती है, इशारे में कुछ कह देती है जिसे हम समझ नही पाते। इसलिए बड़े बूढ़े अक्सर शुभत्व के पक्ष में सतर्क हो रोकते टोकते रहते है ऐसा मत करो वैसा मत करो देहरी पर मत बैठो, उंगलियां मत चटकाओ, शुभ शुभ बोलो, परछाई मत देखो वगेरा-वगैरा। पूछो क्यों? क्या होता है इससे तो, जवाब में कोई वैज्ञानिक आधार समझ नहीं आता। और फिर हम उस बे आधार बात को हवा में उडा देते लेकिन मैं अपने आप को क्या जवाब दूं, कैसे समझाऊं?
उम्र अब उतार पर पहुंच गई। बहुत से सवाल अब भी प्रत्युत्तर नहीं खोज पाये आज भी भीगी उंगलिओं पर जहरीले अहसास टके हुए है और कानों मैं मां की आवाज –न शुभी, ऐसे पानी के चित्र नहीं बनाते आवाज बेअसर गुजर जाती। उंगलियां जारी रही। जब भी फर्श, टेबल, पीढ़े पर पानी की बुंदे दिखी कि, तुरंत मेरी उंगलिया घूमती और आडी तिरछी रेखाए खीच कर कोई निशान चित्र या नाम लिख देती। मां फिर टोकती -ना शुभी, पानी के मांडने नहीं (चित्र) नहीं बनाते।
मां के बार बार मना करने पर भी आदत जड़ पकड़ती गई घुटनो पर रेंगती समझ जब सरक कर आगे बढ़ी, जाने कैसे दिमाग में स्वस्तिक का चिन्ह पैठ गया। छलका, बिखरा पानी दिखा कि, धन ऋण की रेखाओं को जमाना शुरू कर देती। मां स्वस्तिक का आधा सूखता धुंधलाता चित्र देखती, फिर टोकती खीज कर कहती कितनी बार कहा है, पानी के खेल मत खेला कर। हां, हूं करती उंगलियां पूर्ववत जारी रहती। धीरे धीरे अब मैं पानी के फूल, झुमके वाली गुड़िया, नाव, घर भी बनाने लगी थी एक दिन अचानक ही ऊंगली रुकी और मैं मां से जिद्द कर बैठी, क्यों, क्यों नहीं बनाना चाहिए पानी से चित्र। क्या होता है इससे बोलो ना, बताओ ना मां कुछ नही होता, तेरा सिर-बस बोल दिया ना अच्छे लच्छन नही होते -मेरी जिद्द जारी थी। बोलो ना अम्मां, बतलाओ ना हे भगवान, कितनी जिद्दी हो गई है तू, उठते उठते बता गई मां कि, पानी से चित्र बनाने से सब पानी में चला जाता हे, सब डूब जाता है। अब जा बाहर का आंगन बुहार जिस दिन से मेरी जिज्ञासु बाल सुलभता ने यह रहस्य जाना, तबसे मैं नित नए प्रयोग करती। कभी आकाश को पानी में डूबती तो कभी, दूध पी गई काली बिल्ली को, कभी चिकोटी काटने वाले पिंटू को तो कभी चवन्नी के बैर न देकर भगा देने वाली कमली बाई को। शरारत विकृति बनने लगी। जो भी बात मन को अच्छी नही लगी, पानी में डूबा देती। जिन सहेलियों से झगड़ा हुआ, सबके नाम पानी से लिख कर, हार का बदला ले लेती। लेकिन कभी अपने प्रयोगो की परीक्षा नही ली कि, पानी में डाला हुआ डूबा या तैर रहा है, बस मुझे तो रेखाए खीचने तक ही सरोकार था चंचल मन के पास इतना वक्त ही कहां था की पीछे मुड़ कर कर अपने परीक्षण को देखे।
एक दिन तो हद हो गई। स्कूल न जाने की जिद्द थी। स्कूल न जाने का कारण भी बड़ा अजीब था कि, रत्ना के मामाजी आये है तो वह स्कूल नहीं जा रही है, मेरे मामाजी क्यों नही आए? अगर वे भी आते तो मैं भी नही जाती। मांमा नहीं आये तो भी मैं स्कूल जा कर रत्नना से छोटी नहीं बनना नही चाहती थी। मां बहुत देर से समझा रही थी।
मां ने यहां तक कहां-कि अच्छा अच्छा, जब तेरे मामा आएंगे तब तू भी मत जाना। मगर अभी तो जा, नही नहीं, मैं भी नही जाउंगी, मेरा रोना बिसूरना जारी था। खीज कर मां ने रोटी सेकने की चिमटी उठा कर मेरी पिटाई कर दी-नालायक सुनती ही नही। और मैने मारे गुस्से के पानी में हाथ डूबा कर लिख दिया मां!! और पता नहीं सैकड़ों चीजों को पानी में डुबोने का झूठ इस बार कैसे सच हो गया।। बीमार नानी को देखने गई मां की बस बाढ़ के पानी डूब गई एक कोहराम, एक हाहाकार और हर सम्भव कोशिश के बाद लौटी सिर्फ मां के न लौटने की खबर।
मां। …मां। …मां मैने पूरी ताकत से उंगलिुओं को मरोड़ा, नन्ही मुट्ठियों को जमीन पर पटका। उफ!! ये मैने क्या कर दिया अब तक जिनको भी पानी में डुबोया था, सबसे रो रो कर मां को वापस मांगा, अब कभी किसीको पानी मे नहीं डुबोउगी, मगर मां नहीं लौटी। उसके बाद बचपन की एक भी सांस इस अपराध बोध से मुक्त नहीं हो सकी कि, मां की मौत के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं मैने ही अपनी मां को पानी में डुबाया था। मैं अपना यह हत्यारा सच किसीको बता भी नही सकी। जब जब भी पापा को सर झुकाये या मम्मी की याद में खोए देखती तो मेरा अपराध बोध और गहरा जाता क्यों मैने गुस्सा किया, क्यों पानी से मम्मी का नाम लिखा क्यों?
मगर अब समझने के लिए मां नहीं थी। कई बार मन हुआ की पापा को रहस्य बता कर मन हल्का कर लू मगर हिम्मत नही हुई उसके बाद तो अपनी पानी भीगी उंगलियों से डरने लगी, कहीं भूल से भी कोई रेखा न खीच जाए, सारी सहेलियों अध्यापिकाओ से भी माफी मांगती मां के डूबने का पश्चाताप भोगती रही मगर, उस समय यह नहीं जान पाई थी कि, मेरा कितना कुछ डूबना भाग्य की भीगी उंगलियां ने पहले ही तय कर रखा था।
मां चली गई, समय रुका नही, मां के बगैर टुकड़ों टुकड़ों में टूटा दरका घर फिर जिन्दा नहीं हो पाया। बस सबकी सांसे चलती थी। सूरज उगता था ढलता था। हम भी नहीं रुक सके, बड़े हो गए घर की देहरी आंगन के साथ अब मां का शहर भी छोड़कर बिदा होना था। पूनम बुआ, राधाचाची की सहयोगी भूमिकाओं ने मेरी और किशोर की शादी में, मां की उपस्थिति से भरने की कोशिश की स्मृति विस्मृति के पटल पर समय ने धीरे धीरे घटनाओं और उनसे जुड़े अहसासों को धूमिल कर दिया मगर पानी से बने चित्रों के डूब जाने की परिणति से अबोध मन कभी मुक्त नहीं हो पाया। एक अंजाना भय सदा ही मन को घेरे रहता। फिर भी जिंदगी की नाव लहरों पर तैरती आगे बढ़ती जा रही थी। हल्के हिचकोलों पर ढुलकती आंखे, जाने कब उनींदी हुई।
जाग्रत सा एक स्वप्न देखा–नाव खैता मेरा नाविक अचानक ही नाव से अदृश्य हो गया डूबती नाव पर मैं और मेरी बेटी सुमन अकेले डरे हुए से चीख रहे है मैं घबरा कर चारों ओर देखती हूं खोजती हूं। कहां चले गए सोमेश!! हमें ऐसे अकेले छोड़ कर। नाव लहरों से टकरा कर डूबने को हें, तभी सुमन अपने छोटे छोटे हाथों से पतवार थाम कर नाव सम्हाल लेती है। नाव तो सम्हली मगर नाविक सचमुच जा चूका हैं। बस तीन दिन का हाइट्रेम्प्रेचर फीवर ही कारण बनकर आया। मात्र बारह बार ही शादी की तिथि कैलेण्डर पर से गुजरी उसके बाद अंधेरा, नीम अंधेरा। एक क्षीण किरण और महासमर का अंतहीन सफर।
न इस पार कोई ना उस पार, न इधर के किनारेकोई मजबूत आधार था न उस पार कोई आश्वासन था जिसे थाम कर पार पहुंच सकूं!! मगर दृढ़ इच्छा शक्ति की धनी सुमन के मजबूत इरादो और लौह संकल्पों की गगन चुमती दृढ़ता ने सारी बाधाओं को पथ से चुन लिया। सुमन ने खुद कलम उठा कर अपना स्वप्न अपने भाल पर लिखाऔर उड़ चली। मैं अपनी देह का तार तार उधेड़ कर मांझा बुनती गई और उसी पर सवार हो सुमन अंततः नील आकाश में अपने पायलेट बनने के स्वप्न तक पहुंच गई। कितने संघर्ष। कितनी रुकावटें गिरना फिर सम्हलना कितने जख्म कितनी खरोंचें। एक लम्बी लड़ाई।
सुमन अपने मुकाम पर पहुंच गई मैंने लम्बी सांस ली और शरीर को ढीला छोड़ दिया। सुमन एक सप्ताह बाद लौटेगी। शीशे में अपना चेहरा देख कर चैक पड़ी, अरे! ये मैं हूं, जिद्दी शोख चंचल शुभी! इस दरम्यान कहां थी मैं। बालों में कहीं कहीं काली लटों की झलक भर बची थी, आंखों ने दूर पास के गड़बड़ाते गणित को चश्में के नंबरों से सेट कर लिया। सुमन की मंजिल अब मुझे बगैर चश्मे के भी दिखाई देती है, मैने मुस्कुरा कर चश्मा उत्तर कर सिरहाने रख दिया पल्लू से ऑंखें पोछी कर बंद कर ली। मुझे एकान्त के पड़ाव पर अकेले देख पानी में डूबे सारे चित्र फिर आंखों के आगे तैरने लगे। बचपन, मां, पिताजी, सोमेश।
स्मृति के भीगे पन्नों को फिर खंगाला क्या क्या डुबाया था मैनें आकाश, स्वस्तिक, रंगोली के फूल, झुमके वाली गुड़िया, नाव, नाविक, बचपन की सहेलिया। सचमुच पानी से बने ये सारे चित्र समय की लहरों में कहां डूब गए? मैं किनारे पर खड़ी मजबूर विवश मांझी सी अपने डूबते जहाज को देखती रही। हमेशा अंदेशों से भरी मैने सुमन को भी कभी पानी के चित्र न बनाने की हिदायत दी। सुमन ने हंसकर कहा-अरे मम्मा, आप कहां उलझी है जिंदगी उसी की है जिसके पास सपने है, चित्र है कल्पनाएं है। हर होनी अनहोनी से आगे उसकी जीत खड़ी है। आप हारी नही, टूटी नहीं। आप जीत गई है मां! मैं तुम्हारी जीत की साक्षी हूं। मेरी ऊंचाई मेरे सपने और सफलता ये सब तुम्हारे मजबूत संकल्प और संघर्ष की ही गवाही है मां। मेरे आधारहीन हवा में झूलते सपने को अपने ही आकाश दिया है मां। अपने पानी नहीं हवा में झूलते आधारहीन सपने को सच किया है। सुमन का स्वप्न दर्शन इतना सशक्त था कि मुझे लगा सुमन ठीक कह रही है कि, स्वप्न वो थोड़े ही होता है जो डूब जाये। जो डूबा वो तो घटनाएं थी।

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