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पराजय

पराजय

-कमला देवी चैधरी-

वह प्रकृति-पुजारी जन-समाज के कुत्सित वायु-मण्डल से परे निर्जन स्थान में कुटिया बनाकर रहता था। वह स्थान मृगकानन के नाम से प्रसिद्ध था। मृगकानन प्राकृतिक उपहारों से परिपूर्ण अत्यन्त रमणीय स्थान था और हरी-हरी द्रुमावलियों के बीच में पुजारी की वह क्षुद्र पल्लवमयी कुटिया कमनीय सुन्दरता की प्रतिमा प्रतीत होती थी मानो कालिदास की लेखनी-द्वारा वर्णित कण्व ऋषि का निवास-स्थान हो।

इस कुटी के चारों ओर कण्व ऋषि के आश्रम-सदृश सुन्दर-सुन्दर मृग–शावक विचरण करते थेय किन्तु शकुन्तला और शकुन्तला की सखियों का. स्थान ग्रहण करने वाला कोई नहीं था। पुजारी एकाकी था। जंगली फल-फूल उसकी सम्पत्ति थे, जीव-जन्तु उसके पारिवारिक व्यक्ति थे और वे हृष्ट-पुष्ट मृगशावक उसके सुहृद थे, मानो पुजारी इस नन्दन-कानन का कन्हैया हो और वे काले नेत्रवाले श्वेत मृगशावक गोपिकाएं।

पुजारी तारक-छाया में आसन जमाकर बांसुरी की सम्मोहक तान छेड़ता और मृगशावकों के समूह मस्त होकर अपने कन्हैया का चित्र आंखों में अंकित कर मन्त्र-मुग्ध खड़े रहते।

जब रजनी चन्द्रदेव से विदा लेकर अपनी काली साड़ी का अंचल-संभालती हुई मन्द गति से चली जाती, तब पुजारी की इस अनोखी रासलीला का अन्त हो जाता। इस जीवन से पुजारी अत्यन्त सन्तुष्ट था, उसे मानसिक शान्ति प्राप्त थी।

जन-साधारण में अफवाह थी–पुजारी प्रथम जननी जन्म-भूमि का पुजारी था और किसी समय जनता का प्रमुख नेता भी था। इसी अपराध में उसे बारह वर्ष का कठिन कारागार भी भोगना पड़ा था। कारागार से मुक्त. होकर उसने अपने देश के प्रचलित आन्दोलन में किसी प्रकार का भाग नहीं लिया। मानव-समाज से विदा होकर उसने मल्लिका रियासत के घने जंगल में अपना उपासना-स्थल बना लिया था। यहां ही उसने स्वतंत्रता देवी की प्रतिष्ठा की थी।

जन-समाज अब भी पुजारी को भूला नहीं थाय किन्तु किसी की धारणा थी-वह पराजित होकर किसी के सम्मुख आना नहीं चाहता, किसी का कहना था-हुकूमत का आतंक उस पर पूर्णतः जम गया है। और किसी-किसी का विचार ऐसा भी था कि पुजारी जो कुछ हमारा नेतृत्व ग्रहण करके कर सकता था. वह आज सुदूर पर बैठा भी कर रहा है।

मल्लिका रियासत के शासक बीरबली विक्रमशील ने अपनी राजधानी में एक विशाल जू बनवाया था। जू पर उसने यथेष्ट धन व्यय किया था। विक्रम की इच्छा थी कि उसका जू एक विशाल अजायब वस्तु बन जाय। मेरे जू को देखने वाले विस्मय में पड़ जायं-कि वे किसी जू का निरीक्षण कर रहे हैं या वास्तविक प्राकृतिक वातावरण में पशु-पक्षियों की आनन्द-केलि का अवलोकन कर रहे हैं।

विक्रम को सबसे अधिक मृग एकत्रित करने का शौक था। एक लम्बा-चैड़ा मैदान चारों ओर से घिरा था और उसमें सैकड़ों की संख्या में मृग कैद थे। मैदान के बीच में एक संगमरमर का चबूतरा था। विक्रमशील अपने प्रसिद्ध संगीतज्ञों सहित रात्रि में आकर वहां बैठता और कुशल कलाकार अपने -संगीत के द्वारा हिरणों को मुग्ध करने की चेष्टा करते। विक्रम के जीवन का -यह एक मह्त्वपूर्ण कार्यक्रम था, किन्तु किसी प्रकार उसकी इच्छा सफलीभूत न होती थी।

एक् दिन विक्रम को पुजारी की मृग-मण्डली का समाचार मिला। विक्रम एक बार स्वयं अपनी आंखों से वह दृश्य देखने को व्यग्र हो उठा और -उसी पूर्णिमा की रात्रि को हाथी पर बैठकर उसने जंगल में प्रवेश किया।

विक्रम ने दूर से देखा-पुजारी तन्मयता से बांसुरी में सम्मोहक राग -अलाप रहा है और मोहित मृगों के समूह उसे घेरे खड़े हैं।

विक्रम उस अलौकिक राग और अद्भुत दृश्य पर मुग्ध हो गया। ऐसा दृश्य वह अपने जू में उपस्थित कर अवश्य संसार की आंखों में चकाचैंध उत्पन्न कर देगा। किसी प्रकार यह सारे मृग हाथ आने ही चाहिएं। एक-मात्र उपाय पुजारी को अपने वशीभूत करना है।

विक्रम हाथी से उतरा और कुछ सैनिकों के साथ पुजारी के समीप चल दिया। पैरों की आहट सुनकर पुजारी ने बांसुरी रख दी और एक विचित्र ध्वनि के द्वारा खतरे का संकेत किया। मृगों ने चैकड़ी भरी और जंगल में इधर-उधर हो गये।

पुजारी ने राजा का अभिवादन करके पूछा-क्या आज्ञा है, श्रीमान्? प्रणाम करते हुए विक्रम ने कहा-अदभुत राग है तुम्हारा पुजारी, मैं मुग्ध हो गया। मेरे पास इतने उत्तम-उत्तम कलाकार हैं किन्तु किसी में यह शक्ति नहीं जो मृगों को अपने संगीत-द्वारा मुग्ध कर सके। पुजारी, तुम्हारी बांसुरी में जादू है!

नम्रता से पुजारी ने कहा–श्रीमान, मैं संगीत-कला का ज्ञाता नहीं हूं, मेरा यह जंगली राग पशु-माझियों ही के योग्य है।

नहीं पुजारी, तुम्हारे जैसा संगीत तो मैंने आज तक सुना ही नहीं, मैं चकित हूं। पुजारी, मैं तुम्हारा आदर करता हूं। प्रथम साक्षात्कार ही में मैंने तुम्हें वचन दिया था, इस जंगल में शिकार करने की मनाही करवा बू गा। मैंने अपना वचन पूरा कर दिया।

राजन! आपकी यह उदारता मुझे सदैव स्मरण रहेगी, मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूं। आज फिर इस ओर आने का श्रीमान् ने कैसे कष्ट किया? क्या मेरे योग्य कोई सेवा है?

पुजारी, क्या मेरी एक इच्छा पूरी करोगे?

किसी के अहित के सिवा आपकी प्रत्येक आज्ञा पालन करने को मैं तैयार हूं, आज्ञा कीजिए।

आदर के शब्दों में विक्रम ने कहा-आज्ञा नहीं, पुजारी, मेरी प्रार्थना है-एक बार मेरी राजधानी में चलकर अपने इस मस्ताने राग से मेरे जू के न!? को मस्त कर दो। संसार मेरे जू की विशेषता पर चकित हो जाय। आप ही की कृपा से मेरी यह इच्छा पूरी हो सकती है।

राजन! जन-समाज में जाने की मेरी इच्छा नहीं है, फिर भी वचन-बद्ध होने से मैं तैयार हूं, किन्तु श्रीमान् के मृगों पर मेरी बांसुरी का-किंचित भी प्रभाव न होगा। ये जंगली मृग तो संसर्ग में रहने के कारण मुझसे हिल-मिल गये हैं।

तो क्या तुम्हारी यह बांसुरी मेरे मृगों पर मोहनी-मन्त्र न डाक सकेगी?

नहीं श्रीमान्!

तो पुजारी, अपने ये मृग मुझे दे डालो।

श्रीमान्, सेवक का अपने पर अधिकार हैय किन्तु इन मृगों पर कुछ भी अधिकार नहीं है।

पुजारी, तुम अपने वचन से विचलित होते हो।

कदापि नहीं श्रीमान्, मैंने प्रथम ही निवेदन किया था, किसी के अहित-के सिवा आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करने को तैयार हूं।

क्षणिक मौन रहकर राजा ने कहा-मैं इन मृगों के आराम की खातिर कुछ उठा न रखूंगा। पुजारी, इन्हें जू में किसी प्रकार का कष्ट न होगा।

मुस्कराकर पुजारी ने कहा-राजन्! स्वतन्त्रता नष्ट होने से के जीवित ही मृतवत् हो जायेंगे, इससे तो इनका शिकार खेलना ही उत्तम है।

विक्रम ने इस बार कुछ हुकूमत के स्वर में कहा-कुछ भी हो पुजारी, इन मृगों को मेरे जू की शोभा के लिए तुम्हें देना ही होगा।

मैं प्रथम ही निवेदन कर चुका हूं, मृगों पर मेरा अधिकार नहीं है। इस बार विक्रम बहुत ही क्रुद्ध हो उठा-मेरी आज्ञा की यह अवहेलना पुजारी! तुम्हारा अधिकार भले ही मृगों पर न हो, मेरा है। यदि तुम मेरी सहायता न करोगे तो वास्तव में इनका अहित होगा।

नम्र वाणी से पुजारी ने कहा-जंगल आपका है। श्रीमान् की इच्छा। एक बार स्मरण कराना मेरा कर्तव्य है, इस जंगल में शिकार न खेलने का आपने प्रण किया था।

विक्रम क्रूर हंसी हंसकर बोला-योगिराज! जिस प्रकार तुम्हारी प्रतिज्ञा में गुंजायश है, उसी प्रकार मैं भी शिकार न सही, जंगल में आग लगवाने की आज्ञा दे सकता हूं।

पुजारी मौन हो गयाय किन्तु विक्रम और भी क्रुद्ध हो उठा-पुजारी, मैं तुम्हारा सम्मान करता हूं, तुम्हारे प्रति मेरे हृदय में श्रद्धा हैय किन्तु अपमान नहीं सहन कर सकता। तुम मेरे राज्य में हो, चाहूं तो तुम्हें दण्ड भी दे सकता हूं।

धीमे स्वर में पुजारी ने कहा-दे सकते हैं श्रीमान्!

इस नम्र उत्तर ने विक्रम को और भी उत्तेजित कर दिया, वह दर्प के बोला-अन्तिम उत्तर दो, मृगों के पकड़ने में सहायता दोगे?

ऊंचा मस्तक करके पुजारी बोला-कदापि नहीं!

राजा ने आज्ञा दी-सैनिक, गिरप्तार करो!।

वैसे ही मस्तक ऊंचा किए हुए पुजारी ने बेडी पहन ली।

लगभग आधा मार्ग समाप्त हो जाने पर हाथी रोक कर विक्रम ने फिर कहा दृ भूल कर रहे हो पुजारी, मृग तुम्हारे वश में हैं. जू में उन्हें बंद कर के एक प्रकार से तुम उपकार ही करोगे, वरना तुम्हारे हठ से सारे जंगल के पशु-पक्षियों के प्राण जायेंगे।

क्षणिक ठहरकर पुजारी ने कहा–विचार करने के लिए दूसरे प्रातः-काल तक अवसर दीजिए।

विक्रम ने आज्ञा दी–सैनिक, बन्धन खोल दो। और प्रसन्नमुख नगरी को लौट गया।

तत्परता से पुजारी स्थान पर पहुंचा, फिर भी उषाकाल बीत चुका था। सूर्य की प्रखर रश्मियां चारों ओर फैली हुई थीं। आज शंख का नाद सुने बिना ही सारे मृग वहां एकत्रित हो गए थे और पुजारी को न देखकर आकुल दृष्टि से चारों ओर निहार रहे थे। इस नवीनता पर पुजारी को भी आश्चर्य हुआ।

जारी को देखकर मृगों की व्याकुलता दूर हुई, वे कूद-कूदकर प्रफुल्लता प्रकट करने लगे।

प्रकृति की प्रियतमा जननी जन्म-भूमि का अभिवादन करके पुजारी ने वाद्य उठा लिया। मृग भी नतमस्तक हो गये।

सुहासिनीम् सुमधुररभाषिणीम् सुखदां वरदाम् मातरम् के साथ वन्दना समाप्त कर पुजारी ने तीव्र ध्वनि की-

जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

नित्यानुसार जब मृग लौटने लगे तो पुजारी ने चिन्तित मुद्रा से कहा-मित्रो! तुम लोगों के साथ मेरी यह पूजा आज अन्तिम है। आज रात्रि के गायन के पश्चात् मैं तुम लोगों से विदा ले लूंगा और वह विदा भी शायद अन्तिम होगी।

मृगों पर मानो वज्रपात हो गया। वे शायद पुजारी की भाषा से परिचित थे। अधीर होकर पुजारी के पैरों के सम्मुख लोटने लगे। आंखें पोंछकर पुजारी ने कहा

मेरे मित्रों! मैं अपनी इच्छा से तुम्हें नहीं छोड़ रहा हूं। यहां का राजा वीरबली विक्रमशील तुम्हारी मण्डली पर मोहित हो गया है। उसकी आज्ञा है कि मैं, तुम सबको उसके जू के लिए पकड़वा दू। किन्तु मैं स्वतन्त्रता का उपासक हूं, आजादी का मूल्य जानता हूंय तुम्हारे साथ शत्रुता का व्यवहार कैसे कर सकता हूं! मैंने विक्रम की आज्ञा की अवहेलना की है, इसी अपराध में उसने मुझे बन्दी कर लिया था। केवल तुम लोगों से विदा और तुम्हें विपत्ति की सूचना देने के लिए दूसरे प्रातःकाल तक का समय मांग कर आया हूं। तुम्हारी मण्डली पर विपत्ति आने वाली है। संभव है, राजा मुझे कैद करके भी तुम्हें फांसने का उपाय करे। क्या तुम लोग उसके जू में रहना स्वीकार करोगे?

सारे मृगों में एक नवीन उत्साह उत्पन्न हो गया। वे उतावले-से हरी-हरी घास, वृक्षों, लचकीली शाखाओं और पहाड़ों की ऊंची चोटियों को हसरतभरी दृष्टि से देखने लगे, मानो कहते हों-हमें अपना जंगल बहुत ही प्यारा है, गुरु! इसे छोड़कर हम जीवन-रक्षा नहीं चाहते। जू में बन्द होने की अपेक्षा अपने जंगल में सिंह का शिकार बनना उत्तम है।

वे अपने जंगल के सौंदर्य पर मुग्ध होकर तन्मय हो गये। पुजारी ने तल्लीनता भंग की–, प्यारे मित्रों, अब जाओ रात्रि में फिर मिलेंगे।

मृग आज पुजारी के समीप से जाने को तैयार न थे। पुजारी की विदाई के शोक में मृगों की मृग-तृष्णा पूर्ण वेदना लेकर उत्पन्न हो गई थीय किन्तु व्याकुल होकर वे दौड़े नहीं, भागे नहीं और न चैकड़ी ही भरी। वे कभी पुजारी का आलिंगन करते कभी पैरों पर लौटते और कभी व्याकुल होकर चिल्लाते, रोते और फिर मौन होकर एकटक पुजारी का मुंह निहारने लगते। मानो पुजारी की आकृति का सजीव चित्र वे अपनी आंखों में खींच लेना चाहते हों। मृगों के छोटे-छोटे सुकुमार छौने भी भयभीत-से पुजारी का मुंह निहार रहे थे। पुजारी भी छौनों के सिर पर हाथ फेर-फेरकर उन्हीं की भांति रो रहा था।

आज चन्द्रमा की ज्योत्सना में पुजारी की बांसुरी तल्लीनता के उत्तुंग शिखर पर नृत्य कर रही थी। वह आजादी के मस्ताने तराने अलाप रहा था और मतवाले मृग मदहोश की नाई हम रहे थे, मानो आज इसी संगीत-समुद्र का मन्थन कर ये आजादी की अमरता खोजकर रहेंगे।

इस तल्लीनता में कितना समय चला गया, सम्पूर्ण रजनी व्यतीत हो गई, किसी ने जाना ही नहीं। जब उषासुन्दरी की सौंदर्य-लालिमा बिखरी तो पुजारी ने बांसुरी रख दी और कहा–मित्रों, अब विदा। ईश्वर तुम लोगों की स्वाधीनता को अमर करे। सारे मृग एक साथ पुजारी को घेर कर लिपट गयेय व्यथा से उनका हृदय टुकड़े-टुकड़े होने लगा। उसी समय राजा की सेना के आने का शब्द सुनाई दिया। पुजारी ने कठिनता से कहा-बस भाइयों, अब मुझे विदा होने दो। मेरा मोह छोड़ दो, सदैव के लिए विदा दो।

मृग सतृष्ण नेत्रों से घूम-घूमकर पुजारी को निहारते हुए चले गये। राजा ने समीप आकर पूछा-कहो पुजारी, क्या विचार है? मैं मृगों को पकड़ने के लिए साज-सामान सहित आया हूं। मेरी सहायता करोगे न?

पुजारी ने कहा–राजन्! मैंने पुनः विचार कर लिया है, मृगों पर मेरा कुछ अधिकार नहीं है। सेवक दण्ड के लिए तैयार है।

मृगों पर तुम्हारा कैसा अधिकार है, यह मैं खूब जानता हूं। जल में रहकर तुम मगर से बैर करते हो तो परिणाम भी अपनी आंखों देख लो। राजा ने अपने सैनिकों को आज्ञा दी–सारे जंगल के अन्दर प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित कर दो, और जंगल के बाहर चारों ओर जाल डाल दो। जिस प्रकार भी हो, मृगों को पकड़ो।, –थोड़ी देर में सारे जंगल में भयंकर अग्निकाण्ड मच गया। अग्नि की प्रचण्ड लपटें आकाश छूने की चेष्टा करने लगीं। सब पशु-पक्षी व्याकुल होकर करुण चीत्कार कर उठे।

अग्निदेव ने अपना प्रलयकारी रूप धारण किया तो ऐसा जान पड़ने सगा, चारों ओर अग्नि का तूफान आया है। आकाश मानो आग ही की वर्षा कर रहा है, पृथ्वी ज्वालामुखी उत्पन्न कर रही है। पक्षियों के चीत्कारों और शेरों की भयभीत करने वाली दहाड़ों से आकाश गूंज रहा था। पृथ्वी हिल रही थी। बांसों की चट-चट चटखने की ध्वनि बादलों की घनघोर गर्जना को भी व्यर्थ कर रही थी। बड़े-बड़े वृक्ष इस प्रकार धड़ाम शब्द करके गिर रहे थे, जान पड़ता था आकाश से हजारों बिजलियां एक साथ हूट रही हों, मानो मृगकानन खाण्डववन हो और अग्नि हजार सिंहों का मुख लेकर जीवों का भक्षण कर रही हो।

जान नहीं पड़ता था-क्या हो रहा है? प्रलय की आंधी है, भूकम्प की आग है, समुद्र का तूफान है या शङ्कर का ताण्डव नृत्य है?

राजा के पार्श्व में खड़े हुए पुजारी ने बांसुरी उठा ली और रणभेरी का राग अलाप दिया-अधीन होकर बुरा है जीना, है मरना अच्छा स्वतन्त्र -होकर! उसी समय मृगों का समूह अग्नि की ओर भागता दिखाई दिया। वे दूर से पुजारी की ध्वनि की और मुख करके क्षणिक ठहरे, झूमें, कुदके और पुजारी के संगीत पर ताल देते हुए प्रज्वलित अग्निकुण्ड में कूद पड़े, मानो आहुति होता के मन्त्रों पर स्वयं ही उच्चारण करती है, स्वाहा!

सियासी मियार की रीपोर्ट