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एक छोटा-सा मजाक…

एक छोटा-सा मजाक…

-अंतोन चेखव-

सरदियों की खूबसूरत दोपहर… सरदी बहुत तेज है। नाद्या ने मेरी बांह पकड़ रखी है। उसके घुंघराले बालों में बर्फ इस तरह जम गई है कि वे चांदनी की तरह झलकने लगे हैं। होंठों के ऊपर भी बर्फ की एक लकीर-सी दिखाई देने लगी है। हम एक पहाड़ी पर खड़े हुए हैं। हमारे पैरों के नीचे मैदान पर एक ढलान पसरी हुई है जिसमें सूरज की रोशनी ऎसे चमक रही है जैसे उसकी परछाई शीशे में पड़ रही हो। हमारे पैरों के पास ही एक स्लेज पड़ी हुई है जिसकी गद्दी पर लाल कपड़ा लगा हुआ है।

चलो नाद्या, एक बार फिसलें! –मैंने नाद्या से कहा– सिर्फ एक बार! घबराओ नहीं, हमें कुछ नहीं होगा, हम ठीक-ठाक नीचे पहुंच जाएंगे।

लेकिन नाद्या डर रही है। यहां से, पहाड़ी के कगार से, नीचे मैदान तक का रास्ता उसे बेहद लम्बा लग रहा है। वह भय से पीली पड़ गई है। जब वह ऊपर से नीचे की ओर झांकती है और जब मैं उससे स्लेज पर बैठने को कहता हूं तो जैसे उसका दम निकल जाता है। मैं सोचता हूं– लेकिन तब क्या होगा, जब वह नीचे फिसलने क खतरा उठा लेगी! वह तो भय से मर ही जाएगी या पागल ही हो जाएगी।

मेरी बात मान लो! –मैंने उससे कहा– नहीं-नहीं, डरो नहीं, तुममें हिम्मत की कमी है क्या?

आखरिकार वह मान जाती है। और मैं उसके चेहरे के भावों को पढ़ता हूं। ऎसा लगता है जैसे मौत का खतरा मोल लेकर ही उसने मेरी यह बात मानी है। वह भय से सफेद पड़ चुकी है और कांप रही है। मैं उसे स्लेज पर बैठाकर, उसके कंधों पर अपना हाथ रखकर उसके पीछे बैठ जाता हूं। हम उस अथाह गहराई की ओर फिसलने लगते हैं। स्लेज गोली की तरह बड़ी तेजी से नीचे जा रही है। बेहद ठंडी हवा हमारे चेहरों पर चोट कर रही है। हवा ऎसे चिंघाड़ रही है कि लगता है, मानों कोई तेज सीटी बजा रहा हो। हवा जैसे गुस्से से हमारे बदनों को चीर रही है, वह हमारे सिर उतार लेना चाहती है। हवा इतनी तेज है कि सांस लेना भी मुश्किल है। लगता है, मानों शैतान हमें अपने पंजों में जकड़कर गरजते हुए नरक की ओर खींच रहा है। आसपास की सारी चीजें जैसे एक तेजी से भागती हुई लकीर में बदल गई हैं। ऎसा महसूस होता है कि आनेवाले पल में ही हम मर जाएंगे।

मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या! –मैं धीमे से कहता हूं।

स्लेज की गति धीरे-धीरे कम हो जाती है। हवा का गरजना और स्लेज का गूंजना अब इतना भयानक नहीं लगता। हमारे दम में दम आता है और आखरिकार हम नीचे पहुंच जाते हैं। नाद्या अधमरी-सी हो रही है। वह सफेद पड़ गई है। उसकी सांसें बहुत धीमी-धीमी चल रही हैं… मैं उसकी स्लेज से उठने में मदद करता हूं।

अब चाहे जो भी हो जाए मै कभी नहीं फिसलूंगी, हरगिज नहीं! आज तो मैं मरते-मरते बची हूं। –मेरी ओर देखते हुए उसने कहा। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में खौफ का साया दिखाई दे रहा है। पर थोड़ी ही देर बाद वह सहज हो गई और मेरी ओर सवालिया निगाहों से देखने लगी। क्या उसने सचमुच वे शब्द सुने थे या उसे ऎसा बस महसूस हुआ था, सिर्फ हवा की गरज थी वह? मैं नाद्या के पास ही खड़ा हूं, मैं सिगरेट पी रहा हूं और अपने दस्ताने को ध्यान से देख रहा हूं।

नाद्या मेरा हाथ अपने हाथ में ले लेती है और हम देर तक पहाड़ी के आसपास घूमते रहते हैं। यह पहेली उसको परेशान कर रही है। वे शब्द जो उसने पहाड़ी से नीचे फिसलते हुए सुने थे, सच में कहे गए थे या नहीं? यह बात वास्तव में हुई या नहीं। यह सच है या झूठ? अब यह सवाल उसके लिए स्वाभिमान का सवाल हो गया है. उसकी इज्जत का सवाल हो गया है। जैसे उसकी जिन्दगी और उसके जीवन की खुशी इस बात पर निर्भर करती है। यह बात उसके लिए महत्त्वपूर्ण है, दुनिया में शायद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण। नाद्या मुझे अपनी अधीरता भरी उदास नजरों से ताकती है, मानों मेरे अन्दर की बात भांपना चाहती हो। मेरे सवालों का वह कोई असंगत-सा उत्तर देती है। वह इस इन्तजार में है कि मैं उससे फिर वही बात शुरू करूं। मैं उसके चेहरे को ध्यान से देखता हूं– अरे, उसके प्यारे चेहरे पर ये कैसे भाव हैं? मैं देखता हूं कि वह अपने आप से लड़ रही है, उसे मुझ से कुछ कहना है, वह कुछ पूछना चाहती है। लेकिन वह अपने खयालों को, अपनी भावनाओं को शब्दों के रूप में प्रकट नहीं कर पाती। वह झेंप रही है, वह डर रही है, उसकी अपनी ही खुशी उसे तंग कर रही है…। –सुनिए! –मुझ से मुंह चुराते हुए वह कहती है। –क्या? –मैं पूछता हूं। –चलिए, एक बार फिर फिसलें।

हम फिर से पहाड़ी के ऊपर चढ़ जाते हैं। मैं फिर से भय से सफेद पड़ चुकी और कांपती हुई नाद्या को स्लेज पर बैठाता हूं। हम फिर से भयानक गहराई की ओर फिसलते हैं। फिर से हवा की गरज और स्लेज की गूंज हमारे कानों को फाड़ती है और फिर जब शोर सबसे अधिक था मैं धीमी आवाज में कहता हूं: –मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या।

नीचे पहुंचकर जब स्लेज रुक जाती है तो नाद्या एक नजर पहले ऊपर की तरफ ढलान को देखती है जिससे हम अभी-अभी नीचे फिसले हैं, फिर दूसरी नजर मेरे चेहरे पर डालती है। वह ध्यान से मेरी बेपरवाह और भावहीन आवाज को सुनती है। उसके चेहरे पर हैरानी है। न सिर्फ चेहरे पर बल्कि उसके सारे हाव-भाव से हैरानी झलकती है। वह चकित है और जैसे उसके चेहरे पर यह लिखा है– क्या बात है? वे शब्द किसने कहे थे? शायद इसी ने? या हो सकता है मुझे बस ऎसा लगा हो, बस ऎसे ही वे शब्द सुनाई दिए हों?

उसकी परेशानी बढ़ जाती है कि वह इस सच्चाई से अनभिज्ञ है। यह अनभिज्ञता उसकी अधीरता को बढ़ाती है। मुझे उस पर तरस आ रहा है। बेचारी लड़की! वह मेरे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं देती और नाक-भौंह चढ़ा लेती है। लगता है वह रोने ही वाली है। –घर चलें? — मैं पूछता हूं। –लेकिन मुझे… मुझे तो यहां फिसलने में खूब मजा आ रहा है। –वह शर्म से लाल होकर कहती है और फिर मुझ से अनुरोध करती हैः –और क्यों न हम एक बार फिर फिसलें?

हुम… तो उसे यह फिसलना अच्छा लगता है। पर स्लेज पर बैठते हुए तो वह पहले की तरह ही भय से सफेद दिखाई दे रही है और कांप रही है। उसे सांस लेना भी मुश्किल हो रहा है। लेकिन मैं अपने होंठों को रुमाल से पोंछकर धीरे से खांसता हूं और जब फिर से नीचे फिसलते हुए हम आधे रास्ते में पहुंच जाते हैं तो मैं एक बार फिर कहता हूं: –मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या!

और यह पहेली पहेली ही रह जाती है। नाद्या चुप रहती है, वह कूछ सोचती है… मैं उसे उसके घर तक छोड़ने जाता हूं। वह धीमे-धीमे कदमों से चल रही है और इन्तजार कर रही है कि शायद मैं उससे कुछ कहूंगा। मैं यह नोट करता हूं कि उसका दिल कैसे तड़प रहा है। लेकिन वह चुप रहने की कोशिश कर रही है और अपने मन की बात को अपने दिल में ही रखे हुए है। शायद वह सोच रही है।

दूसरे दिन मुझे उसका एक रुक्का मिलता है:आज जब आप पहाड़ी पर फिसलने के लिए जाएं तो मुझे अपने साथ ले लें। नाद्या। उस दिन से हम दोनों रोज फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाते हैं और स्लेज पर नीचे फिसलते हुए हर बार मैं धीमी आवाज में वे ही शब्द कहता हूं:–मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या!

जल्दी ही नाद्या को इन शब्दों का नशा-सा हो जाता है, वैसा ही नशा जैसा शराब या मार्फीन का नशा होता है। वह अब इन शब्दों की खुमारी में रहने लगी है। हालांकि उसे पहाड़ी से नीचे फिसलने में पहले की तरह डर लगता है लेकिन अब भय और खतरा मौहब्बत से भरे उन शब्दों में एक नया स्वाद पैदा करते हैं जो पहले की तरह उसके लिए एक पहेली बने हुए हैं और उसके दिल को तड़पाते हैं। उसका शक हम दो ही लोगों पर है– मुझ पर और हवा पर। हम दोनों में से कौन उसके सामने अपनी भावना का इजहार करता है, उसे पता नहीं। पर अब उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। शराब चाहे किसी भी बर्तन से क्यों न पी जाए– नशा तो वह उतना ही देती है। अचानक एक दिन दोपहर के समय मैं अकेला ही उस पहाड़ी पर जा पहुंचा। भीड़ के पीछे से मैंने देखा कि नाद्या उस ढलान के पास खड़ी है, उसकी आंखें मुझे ही तलाश रही हैं। फिर वह धीरे-धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगती है …अकेले फिसलने में हालांकि उसे डर लगता है, बहुत ज्यादा डर! वह्बर्फ की तरह सफेद पड़ चुकी है, वह कांप रही है, जैसे उसे फांसी पर चढ़ाया जा रहा हो। पर वह आगे ही आगे बढ़ती जा रही है, बिना झिझके, बिना रुके। शायद आखरि उसने फैसला कर ही लिया कि वह इस बार अकेली नीचे फिसल कर देखेगी कि जब मैं अकेली होऊंगी तो क्या मुझे वे मीठे शब्द सुनाई देंगे या नहीं? मैं देखता हूं कि वह बेहद घबराई हुई भय से मुंह खोलकर स्लेज पर बैठ जाती है। वह अपनी आंखें बंद कर लेती है और जैसे जीवन से विदा लेकर नीचे की ओर फिसल पड़ती है… स्लेज के फिसलने की गूंज सुनाई पड़ रही है। नाद्या को वे शब्द सुनाई दिए या नहीं– मुझे नहीं मालूम… मैं बस यह देखता हूं कि वह बेहद थकी हुई और कमजोर-सी स्लेज से उठती है। मैं उसके चेहरे पर यह पढ़ सकता हूं कि वह खुद नहीं जानती कि उसे कुछ सुनाई दिया या नहीं। नीचे फिसलते हुए उसे इतना डर लगा कि उसके लिए कुछ भी सुनना या समझना मुश्किल था।

फिर कुछ ही समय बाद वसन्त का मौसम आ गया। मार्च का महीना है… सूरज की किरंएं पहले से अधिक गरम हो गई हैं। हमारी बर्फ से ढकी वह सफेद पहाड़ी भी काली पड़ गई है, उसकी चमक खत्म हो गई है। धीरे-धीरे सारी बर्फ पिघल जाती है। हमारा फिसलना बंद हो गया है और अब नाद्या उन शब्दों को नहीं सुन पाएगी। उससे वे शब्द कहने वाला भी अब कोई नहीं है: हवा खामोश हो गई है और मैं यह शहर छोड़कर पितेरबुर्ग जाने वाला हूं– हो सकता है कि मैं हमेशा के लिए वहां चला जाऊंगा।

मेरे पितेरबुर्ग रवाना होने से शायद दो दिन पहले की बात है। संध्या समय मैं बगीचे में बैठा था। जिस मकान में नाद्या रहती है यह बगीचा उससे जुड़ा हुआ था और एक ऊंची बाड़ ही नाद्या के मकान को उस बगीचे से अलग करती थी। अभी भी मौसम में काफी ठंड है, कहीं-कहीं बर्फ पड़ी दिखाई देती है, हरियाली अभी नहीं है लेकिन वसन्त की सुगन्ध महसूस होने लगी है। शाम को पक्षियों की चहचहाट सुनाई देने लगी है। मैं बाड़ के पास आ जाता हूं और एक दरार में से नाद्या के घर की तरफ देखता हूं। नाद्या बरामदे में खड़ी है और उदास नजरों से आसमान की ओर ताक रही है। बसन्ती हवा उसके उदास फीके चेहरे को सहला रही है। यह हवा उसे उस हवा की याद दिलाती है जो तब पहाड़ी पर गरजा करती थी जब उसने वे शब्द सुने थे। उसका चेहरा और उदास हो जाता है, गाल पर आंसू ढुलकने लगते हैं… और बेचारी लड़की अपने हाथ इस तरह से आगे बढ़ाती है मानो वह उस हवा से यह प्रार्थना कर रही होकि वह एक बार फिर से उसके लिए वे शब्द दोहराए। और जब हवा का एक झोंका आता है तो मैं फिर धीमी आवाज में कहता हूं: –मैं तुम से प्यार करता हूं, नाद्या!

अचानक न जाने नाद्या को क्या हुआ! वह चैंककर मुस्कराने लगती है और हवा की ओर हाथ बढ़ाती है। वह बेहद खुश है, बेहद सुखी, बेहद सुन्दर।

और मैं अपना सामान बांधने के लिए घर लौट आता हूं…।

यह बहुत पहले की बात है। अब नाद्या की शादी हो चुकी है। उसने खुद शादी का फैसला किया या नहीं– इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसका पति– एक बड़ा अफसर है और उनके तीन बच्चे हैं। वह उस समय को आज भी नहीं भूल पाई है, जब हम फिसलने के लिए पहाड़ी पर जाया करते थे। हवा के वे शब्द उसे आज भी याद हैं, यह उसके जीवन की सबसे सुखद, हृदयस्पर्शी और खूबसूरत याद है।

और अब, जब मैं प्रौढ़ हो चुका हूं, मैं यह नहीं समझ पाता हूं कि मैंने उससे वे शब्द क्यों कहे थे, किसलिए मैंने उसके साथ ऐसा मजाक किया था!…।

सियासी मियार की रीपोर्ट