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पुस्तक का नाम : तेजपाल सिंह ‘तेज’ के काव्य में जन सरोकार,..

पुस्तक का नाम : तेजपाल सिंह ‘तेज’ के काव्य में जन सरोकार,..

लेखक : डा. देवी प्रसाद

प्रकाशक : रीवर प्रेस लखनऊ

मूल्य : 180 रूपए

प्रकाशन वर्ष : 2019 पृष्ठ : 158

“तेजपाल सिंह ‘तेज’ के काव्य में जन-सरोकार” : एक दृष्टि

समीक्षक- ईश कुमार गंगानिया –

एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी आदरणीय तेजपाल सिंह ‘तेज’ के जीवन, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर लिखित पुस्तक “तेजपाल सिंह ‘तेज’ के काव्य में जन-सरोकार” मेरे हाथ में है। इस पुस्तक को हाल ही में ‘रीवर प्रेस’ लखनऊ द्वारा प्रकाशित किया गया है। इस पुस्तक के लेखन को डॉ. देवी प्रसाद (सह आचार्य), हिन्दी विभाग, सेठ नन्दकिशोर पटवारी राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नीमकाथाना (सीकर) राजस्थान ने अंजाम दिया है । का मुख पृष्ठ ब्लैक एंड व्‍हाइट है जिसके केन्द्र में तेजपाल सिंह ‘तेज’ यानी टी पी सिंह का चित्र अद्भुत प्रतिभाशाली छाया चित्र ऐसे मौजूद है जैसे क्षितिज पर लालिमा बिखेरता सूरज।

यदि पुस्तक में इनके बचपन और इससे जुड़े संघर्ष यानी पुस्तक में व्यक्त इनके क्रियाकलापों पर गंभीरतापूर्वक नजर डालें तो “तेजपाल सिंह ‘तेज’ नवलेखन की कुछ अलग ही लकीर उकेरते हुए अपनी अलग ही छवि के साथ मौजूद है। अब चूंकि “तेजपाल सिंह ‘तेज’ उम्र के लगभग पचहत्तर वर्ष पूरे कर चुके हैं और जीवन के ढलान पर हैं तो भी इनकी लेखकीय गतिविधियां जीवन के हर पहलू चाहे वे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, नैतिक, पारिवारिक सभी पर प्रश्न उठाती हुई पाठक का ध्‍यान बराबर आकर्षित करती हैं और अनुकरण को प्रेरित करती हैं।

मौजूदा पुस्तक में डा. देवी प्रसाद ने बड़ी शिद्दत के साथ तेजपाल सिंह ‘तेज’ के बारे में पुस्तक लिखने की वजूहात के बारे में बताते हुए प्राक्‍कथन में लिखा है,‘‘लेखन के प्रति उनकी गम्भीरता और उनके मृदु स्वभाव ने मुझे एक ही दिन की मुलाकात में वर्षों पुरानी सम्पर्क साधना का आभास दिलाया। उनकी सोच में स्थायित्व और निश्छलता के भाव ने मुझे अत्यधिक प्रभावित किया।’’

इतना ही नहीं, उन्होंने ‘तेजपाल सिंह ‘तेज’ के रचना संसार के बारे में उल्‍लेख किया है,‘‘उनकी अब तक ग़ज़ल, कविता, बाल-गीत, शब्द-चित्र, व्यंग्य, कहानी व आलेख जैसी विधाओं में दो दर्जन से भी ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनमें से साहित्यिक सम्पदा के रूप में…‘दृष्टिकोण’, ‘ट्रेफिक जाम है’, ‘गुजरा हूँ जिधर से’, ‘हादसों के दौर में’ व ‘तूफाँ की जद में’ (पाँचों ग़ज़ल संग्रह), ‘टूट गया भ्रम संबंधों का’ (गीत संग्रह), ‘पुश्तैनी पीड़ा’ व ‘वेताल दृष्टि’ (दोनों कविता संग्रह), ‘रुनझुन’, ‘खेल-खेल में’, ‘धमाचौकड़ी’ व ‘खेल-खेल में अक्षर ज्ञान’ (दो भाग: स्वर और व्यंजन) (पाँचों बाल-गीत) तथा गद्य रचनाओं में ‘कहाँ गई वो दिल्ली वाली’ (शब्द चित्र) ‘बिन्दु-बिन्दु सार’ (वैचारिकी), ‘शिक्षा मीडिया और राजनीति’, ‘राजनीति का समाज शास्त्र’, ‘दलित साहित्य और राजनीति के सरोकार’, ‘लोक से विमुख होता तंत्र’, ‘मौजूदा राजनीति में लोकतंत्र’ तथा ‘राजनीति के सामाजिक सरोकार’ (6 निबंध संग्रह) शामिल हैं। ‘सृजन के पथ पर’, ‘धूप औसारे चढ़ी’, (दोनों कविता संग्रह) तथा ‘शिव मन्दिर से शिशु मन्दिर तक’ (शिक्षाविद् माननीय आर.सी.भारती की आत्मकथा) इनके द्वारा संपादित कृतियां हैं। इनके द्वारा लिखित लघु नाटिका ‘कान्या की वापसी’ पर पाँच कड़ियों का टी. वी. सीरियल भी आ चुका है।’’

मौजूदा पुस्तक के लेखक ने इनके रचनाधर्म के साथ-साथ इन्हें मिले सम्मान व पुरस्कार को पाठकों से रूबरू कराने की जिम्मेरदारी भी बखूबी निभाई है। उनके अनुसार-‘‘साहित्य-सेवाओं के लिए इन्हें ‘हिन्दी अकादमी, दिल्ली’ द्वारा ‘खेल-खेल में’ (बाल-गीत पांडुलिपि के लिए) वर्ष 1995-96 का “बाल साहित्य पुरस्कार” प्रदान किया गया। तथा ‘हिन्दी अकादमी, दिल्ली’ द्वारा ही इन्हें वर्ष 2006-07 के लिए ‘साहित्यकार सम्मान’ से भी सम्मानित किया गया। वर्ष 2001 में ‘अखिल भारतीय साहित्यकार अभिनन्दन समिति मथुरा’ ने इन्हें कविवर ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ से नवाजा तथा समय-समय पर सामाजिक और नागरिक सम्मान से नवाजा गया है। इनके नियोक्ता ‘भारतीय स्टेट बैंक’ ने भी विभिन्न अवसरों पर इन्हें इनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए पुरस्कृत किया है।’’

यद्यपि डा. देवी प्रसाद का परिश्रम व काम के प्रति समर्पण शुरु से आखिर तक साफ झलकता है लेकिन पुस्तक पर आगे बात करने से पहले मुझे पुस्तक के शुरु में ही यह टिप्पणी करने पर विवश होना पड़ रहा है कि पुस्तक का शीर्षक ‘‘तेजपाल सिंह ‘तेज’ के काव्य में जन-सरोकार’’ से मैं सहमत नहीं हो पा रहा हूं। इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि उनका लेखन और जीवन पर सदा ही जन-सरोकारों की प्राथमिकता हावी रही है। लेकिन मौजूदा पुस्तक के शीर्षक के माध्‍यम से टी पी सिंह जी के जन-सरोकारों को सिर्फ ‘काव्य में जन-सरोकार’ तक सिमेट देना ना-इंसाफी है। दरअसल इस पुस्तक में स्वयं लेखक ने पद्य की श्रेणी में ग़ज़ल, काव्य और गीत को लेकर आठ कृतियों में प्रकाशित काव्य रचनाओं का विवेचनात्मक उल्लेख किया है किंतु टी पी सिंह जी की आठ गद्य कृतियों का विस्तार से विश्लेषण ही नहीं किया हैं। हाँ! लेखक ने उनकी गद्य की श्रेणी की इन पुस्तकों में प्रकाशित लेखों की सारगर्भिता को इन बानगी के रूप में जरूर प्रस्तुत किया है। बाल गीत और बाल साहित्‍य से जुड़ी कृतियां भी पुस्तक का हिस्‍सा हैं। इसलिए मुझे कहना पड़ रहा है कि लेखक द्वारा पुस्तक के शीर्षक को लेकर जाने-अनजाने एक बड़ी चूक हो गई है क्योंकि टी पी सिंह जी के लेखकीय सरोकारों को सिर्फ काव्य तक सीमित नहीं किया जा सकता, वे कहीं और भी ज्‍यादा व्यापक हैं। खैर…

जहां तक काव्य में जन-सरोकारों का सवाल है लेखक ने टी पी सिंह जी के काव्य में निहित सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, साहित्यिक और धार्मिक सरोकारों को रेखांकित करते हुए उनकी पुस्तकों से अनेक काव्‍यांश व ग़ज़लांश का उल्लेख बखूबी किया है। पुस्तक से गुजरते हुए या यूं कहें कि इन्हें पढ़ते हुए एक अद्भुत सुख की ही अनुभूति ही नहीं होती बल्कि टी पी सिंह जी की बहुआयामी काव्य प्रतिभा से भी पाठकों का साक्षात्‍कार होता है। यह प्रतिभा का साक्षात्‍कार पाठकों को अपने में समाहित कर लेता है और यह पता ही नहीं चलता कि पाठक कवितामय हो गया है या उनका काव्य पाठकमय हो गया है।

टी पी सिंह के काव्य से गुजरते हुए काव्य की सुखद अनुभति तो होती ही है। लेकिन साथ में थोड़े से शब्‍दों में जीवन के किसी भी पहलू का बहुत बड़ा हिस्‍सा समेट लेना अपने आप में गागर में सागर भरने जैसा है। काव्य में उर्दू व हिन्‍दी के शब्‍दों का प्रयोग और उन्हें काव्य रूपी गुलदस्ते में परोसने का अंदाज काबिल-ए-तारीफ है। उनकी विभिन्‍न काव्‍य-कृतियों से प्रस्‍तुत उदाहरण बानगी भर हैं जो अपनी छाप पाठक के मन-मस्तिष्क पर बड़़े गहरे से छोड़ते हैं।

मैं व्यक्तिगत तौर पर उनकी सभी काव्य कृतियों का पाठक रहा हूं इसलिए दावे के साथ कह सकता हूं कि उनके काव्य में सरलता और गूढ़ता इतनी खूबसूरती से गुथे हुए हैं कि एक ही व्यक्ति में इन दोनों खूबियों का होना मुझे दुर्लभ प्रतीत होता है। पुस्तक के लेखक ने इसे बखूबी परखा है और अपनी इस कृति में बड़ी जिम्मेदारी से परोसा भी है। इस विषय में मैं इतना भर कहना चाहूंगा कि टी पी सिंह जी की काव्य की गहरार्इ को समझने के लिए उनकी समग्र काव्य कृतियों को पढ़ा जाना चाहिए। जो ऐसे करने में असमर्थ हों तो मौजूदा कृति उनके निजी व्यक्तितित्व और काव्य प्रतिभा से काफी हद तक रूबरू करा सकती है, ऐसा मेरा विश्वास है।

अपने विश्वास को पुख्‍ता करने के लिए लेखक द्वारा प्रस्‍तुत बानगी के रूप में मैं सिर्फ उनके पहले काव्य संग्रह ‘वेताल दृष्टि’ और ‘पुश्तैनी पीड़ा’ के संबंध में आई प्रतिक्रियाओं का उल्लेख करना चाहूंगा। रमणिका गुप्ता लिखती हैं, ‘‘तेजपाल सिंह की ‘वेताल दृष्टि’ सर्वत्र दृष्टि रखने लगी है और महाभारत के अंतस में छिपे छल के गरल को उलीचने लगी है और भीष्म, द्रोण, गंगा, घृतराष्ट्र, संजय, अर्जुन, गंधारी, कृष्ण और शकुनी के ईर्द-गिर्द सवालों का व्यूह रचने में सक्षम हो गई है। वे सब चुप हैं, निरूत्तर हैं। ये ‘वेताल दृष्टि’ उस युग की पूरी सभ्यता को परजीवी करार देने में इतनी सक्षम हो रही है कि महाभारत को हुंकारा भरना पड़ रहा है।”

मणिक लाल वर्मा ने वेताल दृष्टि के संबंध में लिखा है, ‘‘ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से छोटी-छोटी, मगर बेहद विचार-परक कविताएं ‘वेताल दृष्टि’ में संयोजित कर आपने पुरानी सोच को एक नई जीवन-दृष्टि दी है।” इसी क्रम में डॉ. एन. सिंह लिखते हैं, ”वेताल दृष्टि“ में आपकी सभी कविताएं, आपकी ग़ज़लों की तरह भेदक और बोधक हैं। इस ऊर्जा को बनाए रखिए।” इसी सन्दर्भ में डॉ. के. एस. गौतम लिखते हैं, ‘‘वेताल दृष्टि’ की कविताओं में निहित तेवर और विचार यदि विस्तार ले पाते हैं तो अन्धे धृतराष्ट्र को दिव्य-दृष्टि मिल जाएगी, गांधारी अपनी आँखों की पट्टी खोल फैंकेगी, भीष्म पितामह की चुप्पी टूट जाएगी, द्रोपदी का भरी सभा में चीर हरण नहीं किया जा सकेगा, एकलव्य अपना अस्तित्व जान जाएगा और कृष्ण अकेला ही युद्ध-भूमि में खड़ा रह जाएगा।’’

डॉ. कमला कांत ‘हीरक’ ने तेजपाल सिंह ‘तेज’ के काव्य-वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, ‘‘सन 1981 में मैंने ‘नवोदित लेखक’ में आपको (तेजपाल सिंह ‘तेज’) छापकर कोई गलती नहीं की थी। ‘वेताल दृष्टि’ की कविताओं में इतनी गहराइयाँ, सत्य की परख और देखने-सोचने की दृष्टि अलग ही है।’’ ओम प्रकाश वाल्मीकि – ‘‘वेताल दृष्टि’ की कविताएं एक ही बैठक में पढ़ गया। प्रत्येक कविता एक अनुभव सिद्ध हुई। महाभारत के पात्रों पर एक नई और आधुनिक दृष्टि डालकर जीवन-संघर्ष की जो व्याख्या आपने की है, वह ध्यान आकर्षित करती है। प्रथम की दो कविताएं “मैं” और कोढ़ी “संस्कृति” आपके द्वन्द्व की परिचायक हैं, जो आगे की सभी कविताओं को छाया की तरह ढक लेती है।”

2000 ई. में आपका दूसरा कविता संग्रह ‘पुश्तैनी पीड़ा’ प्रकाशित हुआ, जिसे 2009 में पुनः प्रकाशित किया गया। आपने अपने ‘पुश्तैनी पीड़ा’ कविता संग्रह के संबंध में लिखा है, ‘‘इसकी कर्म-भूमि भी समाज में व्याप्त विकृतियों के बखान के साथ-साथ, उनके निवारण एवं निराकरण के लिए दिशा देने, उनसे निपटने के लिए भाव-भूमि की तलाश ही रही है। इस कविता संग्रह में निहित कविताएं, अवहेलित और उपेक्षित समाज की पीड़ा को उजागर ही नहीं करती, अपितु पूर्व कृतियों की तर्ज पर आम-आदमी के दुःख-दर्द से जुड़े प्रश्नों के उत्तर तलाशने में ही लगी दिखती हैं। कादम्बनी (हिन्दी मासिक) के सह-संपादक रहे डॉ. धनंजय सिंह ‘पुश्तैनी पीड़ा’ के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, ‘पुश्तैनी पीड़ा’ वरिष्ठ कवि तेजपाल सिंह ‘तेज’ का सद्य प्रकाशित कविता संग्रह है। कविता जिनके लिए एक सलीका ही नहीं, जीने-मरने का औजार भी होती है, उन कवियों में से हैं, तेजपाल सिंह ‘तेज’। जीवन का हर रूप, हर प्रसंग, उनकी कविता में इस तरह उजागर होता है कि संघर्ष एक दिशा और एक सार्थक आयाम की ओर बढ़ता दिखने लगता है। उन्होंने जीवन की संगतियों-विसंगतियों पर अँगुली रखकर उन्हें उकेरा ही नहीं है, अपितु वो उनसे उपजने वाले सवालों से जूझते हुए समाधान की तलाश भी करते नजर आते हैं। इसलिए उनकी कविताओं की धड़कनें, जीवन की धड़कनें बन जाती हैं और उसे गतिमय प्रवाह की ओर ले चलने में सक्षम हैं।” डा. देवी प्रसाद ने अपनी पुस्तक में ग़ज़लांशों और काव्‍यांशों का उदाहरण देखकर यह सब बखूबी बयां किया है।

लेखक द्वारा मौजूदा पुस्तक में टी पी सिंह के गद्य पर भी सूक्ष्म में किंतु सारगर्भि चर्चा की गई है। लेकिन उतनी नहीं, जितनी करनी चाहिए थी। खैर! तेजपाल सिंह द्वारा पद्य से गद्य में प्रवेश करने के बारे में प्रकाश डालते हुए मुझे कुछ यह उद्धृत करने में कोई हिचक नहीं है, “तेजपाल सिंह ‘तेज’ मूल रूप से एक ग़ज़लकार हैं। वे सामान्यतः ग़ज़लें/कविताएं ही लिखते रहे हैं। हाँ! “दृष्टिकोण” नामक स्वयंसेवी संस्था के जरिए पत्रकारिता में भी इन्होंने खूब हाथ आजमाए। लेकिन कब ये ग़ज़लकार पद्य की दुनिया से निकलकर गद्य की दुनिया में प्रवेश कर गया, पता ही नहीं चला। कहने की जरूरत नहीं कि उनका ग़ज़ल-संसार भी समाज, राजनीति व इंसानियत के पतन की गंदगी को साफ करने के लिए सर्जिकल स्ट्राईक करता रहा है और उनका गद्य-संसार भी यही काम कर रहा है। आपके पद्य से गद्य की ओर रुख करने के बारे में, केवल इतना कहा जा सकता है कि साप्ताहिक पत्र “ग्रीन सत्ता” के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका “अपेक्षा” के उप-संपादक, “आजीवक विजन” के प्रधान संपादक तथा “अधिकार दर्पण” नामक त्रैमासिक पत्रिका में संपादकीय भूमिका निभाते-निभाते, आपका रुझान गद्य लेखन की ओर बढ़ता ही चला गया। किंतु ऐसा भी नहीं है कि आप ग़ज़ल लेखन से एकदम विमुक्त हो गए हैं, आज भी आप ग़ज़ल के साथ पूरी शिद्दत से जिंदा हैं। तभी तो आप विभिन्न वैब पोर्टल्स व फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर ग़ज़ल के माध्यम से आज भी अनवरत रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं।”

इसे लेखक की सूझबूझ ही कहा जाना चाहिए कि उन्होंने टी पी सिंह की पद्य से गद्य में प्रस्थान की यात्रा के संबंध में जहां अन्य के नजरिए को रखा है, वहीं दूसरी और उन्होंने टी पी सिंह के पक्ष को भी पाठकों के सामने रखकर स्थितियों को बखूबी स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार टी पी ‍सिंह के गद्य में आने का कुछ इस प्रकार उल्लेख किया है-‘‘वर्तमान में, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थिति अत्यधिक अराजक हो गई हैं। सत्ता-दल द्वारा किए तमाम वायदों को पूरा करने में नाकामयाबी को

ढकने के लिए अनेक प्रकार के अप्रासंगिक मसले उछाले जाते रहते हैं। लव-जिहाद, गोरक्षा, राम मंदिर, हिंदुत्व, राष्ट्रप्रेम और न जाने कितने ही ऐसे मुद्दों की आड़ में दलित और मुसलमानों के बीच में अलगाव पैदा करने की कवायद के चलते इनके साथ मारपीट और शारीरिक यातना के मामले आज शिखर पर हैं। ऐसे में प्रतिक्रियात्मक साहित्य का लिखा जाना वाजिब-सा मनोविज्ञान है।’’

वे टी पी सिंह के लेखन के तेवर के बारे में उन्हीं के शब्दों में आगे कुछ इस प्रकार बयां करते हैं-‘‘प्रस्तुत आलेखों को लिखते वक्त या लिखने से पहले न तो मुझे कोई भूमिका बनाने की आवश्यकता महसूस हुई और न संदर्भों की ही कोई खास जरूरत महसूस हुई, जो कुछ भाव प्रतिक्रिया के रूप में मेरे दिलो-दिमाग में आए, मैंने उन्हें ही अपने आलेखों में ज्यों का त्यों परोस दिया। वैसे भी मुझे आमतौर पर आलेखों को लिखने का जो ट्रेंड होता है, उसका अनुसरण करने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। इसलिए कहना जरूरी है कि ऐसे प्रतिक्रियात्मक आलेखों में ठोस रचना-नियमों और तत्वों का निर्देशों का प्रतिपादन परिलक्षित होना अनिवार्य नहीं है, ऐसी मेरी मान्यता है। समाज, साहित्य और राजनीति की वर्तमान स्थिति पर केन्द्रित मेरे इन आलेखों को पुस्तक रूप में लाने में मुझे कुछ संकोच भी रहा है। क्योंकि मैंने इन्हें लिखते समय इनके पुस्तक रूप में संयोजन तक का कभी सोचा तक भी नहीं था। क्योंकि समसायिक लेखों को लिखने में विचारों के पुनरावृत्ति के दोष से बच पाना प्रायः संभव नहीं होता। एक बात और कि मैंने इन आलेखों को विषय के आधार पर प्रस्तुत न करके, इनके प्रकाशन की तिथि के क्रम के अनुसार ही प्रस्तुत किया है।’’

गौरतलब यह भी है कि उनका प्रत्येक निबंध किसी न किसी अखबार, पत्रिका, वैब-पोर्टल पर कम से कम एक बार अवश्य प्रकाशित हुआ है। यह प्रमाणित करता है कि उनके लेखन में दम है। कहना जरूरी है कि यह दम किन्हीं निजी संबंधों पर आधारित नहीं है। यदि ऐसा होता तो इन निबंधों में वह बेबाकी व साहस नहीं होता जो उनकी पुस्तकों में शुरु से आखिर तक मौजूद मिलते हैं। मैं निजी व लेखकीय संबंधों के आधार पर इतना दावे से कह सकता हूँ कि टी पी सिंह किसी व्यक्ति, संस्था व राजनीति के पैरोकारों से डिक्टेट होकर नहीं लिखते हैं। उनका लेखन उनके अंतर्मन की आवाज है, जो बेबाक है, निर्भीक है, निःस्वार्थ और समय की कसौटी पर खरी उतरती है।

टी पी सिंह जी ने गद्य रचनाओं यानी निबंधों के अतिरिक्‍त ‘कहाँ गई वो दिल्ली वाली’ (शब्द चित्र) के रूप में एक नया प्रयोग किया है। लेखक ने अपनी इस पुस्तक में शीलबोधि द्वारा की गई टिप्‍पणी के माध्‍यम से कुछ इस प्रकार पाठकों से परिचय कराया है- कभी-कभी चीजों को समेटने में बहुत-चीजें खो जाती हैं और उनकी खोज में, शेष चीजें जैसे बिखर-सी जाती हैं। प्रत्येक मनुष्य स्वप्न देखता है। उम्र इसमें बाधा नहीं बनती। सपनों पर उम्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हाँ! स्वरूप पर पड़ता है। सपने कम उम्र में भी आते हैं और अधिक उम्र में भी। कभी-कभी सपने बुने भी जाते हैं। आपकी इस कृति में सपनों से इतर भी एक-दो ऐसे शब्द-चित्र हैं। राजनीतिक चरित्र के पतन को ‘शब्दों पर सवारी करते हैं’ शब्द-चित्र में देखा जा सकता है। बात उस समय की है जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। ‘‘एक कह रहा था कि हमारे प्रधानमंत्री आज के जिन्ना हैं। चतुर-चालाक हैं। कई-कई मुखौटे हैं उनके पास। पार्टी का अलग, धर्म का अलग, सहयोगी दलों का अलग और न जाने कितने ही और।’’ दूसरा बोला, ‘‘अरे सच तो ये है कि हमारे प्रधानमंत्री पढ़े-लिखे हैं, सो शब्दों पर सवारी करते हैं। जैसे चाहे शब्दों को घुमा-फिरा देते हैं।’’ तीसरा बोला, ‘‘अरे! मूर्ख तो जनता है। कुछ समझती ही नहीं। नारों के बल पर ही जिन्दा हो उठती है। हमारे प्रधानमंत्री जमाने की नस को जान गए हैं। जनता की परवाह नहीं करते। नेताओं के तालमेल से सत्ता पर काबिज हैं। जो नाराज होता है, उसे ही मंत्री बना देते हैं।’’

मेरी प्रबल मान्यता है कि आज हम अवसरवादिता और चापलूसी के दौर से गुजर रहे हैं। जाहिर है कि यह बिकाऊ संस्कृति के पोषकों का भी सुनहरा दौर है। इस दौर में सत्तासीन राजनीतिक दलों को कोई खास मशक्कत भी नहीं करनी पड़ती। बिकने वाला खुद अपने पर बिकाऊ होने का टैग लगाकर मंडी पहुंच जाता है और बड़े आराम से पालतू होने का रुतबा हासिल कर लेता है। इस पालतू बनने की होड़ में मीडिया, राजनेता, साहित्यकार और अन्य खासो-आम पीछे नहीं रहना चाहता। यहाँ मानवीय मूल्य, नैतिक मूल्य और खुद्दारी जैसे सार्वभौमिक इंसानी मूल्यों का अकाल-सा पड़ता जा रहा है या यूँ कहें कि ये विलुप्तिकरण की और अग्रसर हैं। देशभक्ति और देशद्रोह की सब परिभाषाएं बदल गई हैं। ऐसे अराजक माहौल में तेजपाल सिंह ‘तेज’ जैसे जिन्दादिल और निर्भीक इंसान अपने ज़ज़्बात पर काबू नहीं रख पाते और बिना किसी अंजाम की परवाह किए रोज कोई न कोई मोर्चा खोले ही रहते हैं।

डा. देवी प्रसाद टी पी सिंह के लेखन की व्यापकता व निर्भिकता को बताने के लिए इन पंक्तियों के लेखक के शब्दों को पुस्तक की भूमिका से उल्लेख करते हुए बताते हैं-‘‘जाति भारत का ऐसा कोढ़ है जिससे कोई भी अपने नाक, आँख व कान कितनी भी जोर से क्यों न बंद कर लें और अपने आप को कितने ही आधुनिक व जबरदस्त सेनेटाईज़र की मदद से कितना ही फुल-प्रूफ कवच क्यों न बना लें लेकिन जाति की छूत जातिवादी समाज के दिलो-दिमाग़ से क्षणभर भी इधर से उधर नहीं होती। परिणामस्वरूप, यह आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक व राजनैतिक जगत जाति के कोढ़ से अछूता नहीं रह पाता। टी पी सिंह अपने आलेखों के द्वारा बड़े साहस से बताते हैं कि किस प्रकार देश के सर्वोच्च पद यानि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चयन के मामले भी कितने घिनौने अंदाज में जाति का कार्ड खेला गया। चयन ही क्यों निर्वाचन की पूरी प्रक्रिया में भी जाति का भूत निरंतर दलित समुदाय और देश की अस्मिता को कैसे निरंतर तार-तार करता रहा, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। इतना ही नहीं, वे ऐसे घटिया कारनामों के पीछे की मानसिकता के सच को भी अपने आलेखों में जगजाहिर करने से नहीं चूकते। यह उनकी बेबाकी, अदम्य साहस और लेखन के प्रति ईमानदारी का जीता-जागता ठोस प्रमाण है। उन्होंने अपने निबंधों के द्वारा इन सब मामलों की जो तस्वीर प्रस्तुत की है, वह काबिल-ए-तारीफ है। जब मुख्यधारा का प्रिंट और इलैट्रॉनिक मीडिया राजनीतिक पार्टियों के पक्ष में अपने नमक का हक अदा कर रहा हो, तब अनेक स्वतंत्र लेखकों, जो बिकाऊ व चापलूस संस्कृति का हिस्सा न बने उनमें से टी पी सिंह भी एक रहे हैं। ‘तेज’ ने ईमानदार पत्रकारिता के खतरों से दो-चार होते हुए भी अपनी लेखनी की पैनी धार बराबर बरकरार रखी और खासोआम को आईना दिखाने में कोई कोरकसर बाकी नहीं छोड़ी।’’

मौजूदा पुस्तक में और भी बहुत कुछ है जिसकी चर्चा की जा सकती है लेकिन स्पेस की मर्यादा के चलते अंत में इतना ही कहा जा सकता है कि इस पुस्तक ने टी पी सिंह जी की बायोग्राफी की कमी पूरी कर दी है। मुझे लगता है कि इस पुस्तक के आने के बाद टी पी सिंह को अपनी ऑटो-बायोग्राफी लिखने की आवश्यकता शेष नहीं रह गई है। इसका श्रेय पुस्तक के लेखक डा. देवी प्रसाद को जाता है। निसंदेह डा. देवी प्रसाद मौजूदा पुस्तक को पठनीय बनाने और टी पी सिंह जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को एक खूबसूरत माला में पिरोने के लिए बधाई के पात्र हैं।

सियासी मियार की रीपोर्ट