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कहानी: गली नंबर दो..

कहानी: गली नंबर दो..

-अंजू शर्मा-

पुत्तर छेत्ती कर, वेख, चा ठंडी होंदी पई ए।

बीजी की तेज आवाज से उसकी तंद्र भंग हुई। रंग में ब्रश डुबोते हाथ थम गए। पिछले एक घंटे में यह पहला मौका था, जब भूपी ने मूर्ति, रंग और ब्रश के अलावा कही नजर डाली थी। चाय सचमुच ठंडी हो चली थी। उसने एक सांस में चाय गले से नीचे उतारते हुए मूर्तियों पर एक भरपूर नजर डाली। दीवाली से पहले उसे तीन आर्डर पूरे करने थे। लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों से घिरा भूपी दूर बिजली के तार पर अठखेलियां करते पक्षियों को देखने लगा। हमेशा की तरह आज भी एक आवारा-सा ख्याल सोच के वृक्ष की फुनगी पर पैर जमाने लगा, आखिरकार ये पक्षी इतनी ऊंचाई पर क्यों बैठे रहते हैं? ऊंचाई दुनिया का सबसे मनहूस शब्द था और ऊंचाइयां उसे हमेशा डर की एक ऐसी परछाई में ला खड़ा करती थी कि जिसके आगे उसका व्यक्तित्व छोटा, बहुत छोटा हो जाता था। दूर आसमान में सिंदूरी रंग फैलने लगा था जिसकी रंगत धीरे-धीरे भूपी के रंगीन हाथों सी होती चली गई।

रंगों का चितेरा भूपी उर्फ भूपिंदर, जस्सो मासी का छोटा बेटा है और हमारी इस कहानी का नायक भी है। यूं कहने के लिए उसमें नायक जैसे कोई विशेषता नहीं थी जिसे रेखांकित किया जाए। अगर सिर्फ उसकी दुनिया ही हमारी कहानी का दायरा हो तो इस खामोश कहानी में न कोई आवाज होगी और न ही संवादों के लिए कोई गुंजाइश रहेगी। यहां भूपी की इस रंगीन कायनात में इधर-उधर, तमाम रंग जरूर बिखरे हैं पर इंद्रधनुषी रंगों से सजी ये कहानी इन सब रंगों के सम्मिश्रण से मिलकर बनी है यानि वह रंग जो बेरंग है। तो कहानी भूपी से शुरू होती है, भूपी की उम्र रही होगी लगभग उनतीस साल, साफ रंगत जो हमेशा बेतरतीब दाढ़ी के पीछे छिपी रहती थी, औसत से कुछ कम, नहीं कुछ और कम लंबाई, इतनी कम कि देखते ही लोगों के चेहरों पर मुस्कान दौड़ जाती थी। पढ़ने-लिखने में न तो मन ही लगा और न ही घर के हालात ऐसे थे कि वह ज्यादा पढ़ पाता। कुल जमा पांच जमात की पढ़ाई की थी पर मन तो सदा रंगों में रमता था उसका! पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाखू, शराब जैसा कोई ऐब उसे छू भी नहीं गया था। हां, अगर कोई व्यसन था तो बस आड़ी-तिरछी लकीरों का साथ और रंगों से बेहिसाब मोहब्बत जो शायद उसके साथ ही जन्मी थी और साथ ही जन्मी थी एक लंबी खामोशी जो हर सूं उसे घेरे रहती थी। उसका कोई साथ या मीत था तो उसके सपने, जो दुर्भाग्य से सपने कम दुस्वप्न ज्यादा थे। भूपी की खामोश दुनिया अक्सर उन दुस्वप्नों की काली, सर्द, अकेली और भयावह गोद में जीवंत हो जाती। ये सपने अब उसकी आदत में शुमार हो गए थे और इनका साथ उसे भाने लगा था।

कम ही मौके आए होंगे जब उसे किसी ने बोलते सुना था। यकीनन मुहल्ले से गाहे-बगाहे गुजरने वालों को यह मुगालता रहता होगा कि वह बोल-सुन नहीं सकता। कहते हैं जब होंठ चुप रहते हैं तो आंखें जबान के सारे फर्ज अदा करने लगती हैं पर भूपी की तो जैसे आंखें बस वही देखना चाहती थी जिसका संबंध उसके काम से हो और आंखों के बोलने जैसी सारी कहावतें बस कहावतें ही तो रह गई थी। पता नहीं ये दुस्वप्नों के नीद पर अतिक्रमण का असर था या कुछ और कि ये आंखें अक्सर बेजान, शुष्क और थकी हुई रहा करती थी। यह सहज ही देखा जा सकता था कि उन तमाम काली रातों की सारी कालिमा, सारा अंधेरा, सारा डर और सारा अकेलापन इन भावहीन आंखों के नीचे अपने गहरे निशान छोड़ गया था, हालांकि इनकी इबारत पढ़ पाना किसी के लिए भी संभव नहीं था, फैक्टरी में दिन भर मेहनत कर रात में गहरी नींद लेने वाली बीजी भी इन निशानों की थाह कब ले पाई थी।

जस्सो मासी उर्फ बीजी उर्फ जसवंत कौर एक नेक, मिलनसार और खुशमिजाज औरत थी जो ज्यादा सोचने में यकीन नहीं रखती थी या उन्ही के शब्दों में कह लीजिए जिंदड़ी ने मौका ही कदो दित्ता (जिंदगी ने मौका ही कब दिया)। गेंहुआ रंग, छोटा कद, स्थूल शरीर, खिचड़ी बाल और कनपटी पर किसी हल्के से रंग की चुन्नी के बाहर, मैं भी हूं अंदाज में झूलती एक सफेद लट, चैड़े पायंचे वाली सलवार-कमीज और चेहरे पर मुस्कान! मुल्क के बंटवारे ने सब लील लिया था, बंटवारे के दंश को सीने में छुपाए, काफी अरसा हुआ तरुणाई की उम्र में पति के साथ पंजाब से यहां आकर बसी थी। जाने वो दिल था, जिगर था या जान थी जो वहां छूट गया था, लोग कहते हैं वो अब पाकिस्तान था। बहुत समय लगा ये मानने में कि वो मुल्क अब गैर है, कि अब वो हमारा नहीं रहा, कि उसे अब अपना कहना खामखयाली है। और देखिए न उनकी उजड़ी गृहस्थी और टूटे दिल को उस दिल्ली में ठिकाना मिला जो खुद भी न जाने कितनी बार उजड़ी और बसी थी। पर दिल्ली जब हर बार उजड़ कर बस गई तो जस्सो मासी की नई-नई गृहस्थी भला कब तक उजड़ने का दर्द संजोती रहती। दिल्ली ने ही उनकी तरुणाई की वे जाग-जाग कर काटी रातें देखी, तिनके-तिनके जोड़ कर जमाया घौंसला देखा और दिल्ली ही असमय पति के बीमार हो जाने पर दो बच्चों के साथ हालात की चक्की में पिसती, उस जूझती फिर भी सदा मुस्कुराती मां के संघर्षों की मौन साक्षी बनी। इन मुश्किलों ने उन्हें जुझारू तो बना ही दिया था, साथ ही वे छोटी-छोटी बातों को दिल से लगाने को फिजूल मानने लगी थी। यूं भी जिंदगी ने उन्हें सिखाया था जब मुश्किलें कम न हो तो उनसे दोस्ती कर ली जाए, उन्हें गले लगा लिया जाए।

यह एक निम्न-मध्यमवर्गीय लोगों का मोहल्ला था, जहां रहते हुए लोगों को न तो बीत गए सालों की संख्या याद थी और न ही एक दूसरे से कब रिश्ता बना यह भी याद रहता था। अपने छोटे-छोटे सुखों को महसूसते और पहाड़ जैसे दुखों से लड़ने को अपनी आदत में शुमार किए उन लोगों का बड़ा-सा परिवार थी यह गली, जिसे गली नंबर दो कहा जाता था। इन लोगों ने धर्म, जाति और क्षेत्रीयता जैसे तमाम आग्रहों से ऊपर उठकर एक नए पंथ की अघोषित, मौन स्थापना कर दी थी जिसे भाईचारा कहा जाता था, जो खून के रिश्तों से कही ऊपर था। कोई हालांकि कई बार छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते ये लोग शाम को साथ मिलकर मन-मुटाव को साथ-साथ विदा कर देते थे। तो जस्सो मासी, जी हां लोग उन्हें इसी नाम से पुकारा करते थे, यूं तो कहने को दो बेटों वाली थी पर बड़ा बेटा करमजीत उर्फ काके, बेटा कम अपने पूर्वजन्म के कुकर्मों का फल ज्यादा लगता था उन्हें। पिता की बीमारी और घर में कामकाजी मां की गैर-मौजूदगी ने जहां छोटे को चुप्पा बना दिया था, बड़ा निकम्मा, और नाकारा निकला हालांकि कहने के लिए किराए का ऑटो चलाया करता था, शराबी-कबाबी ऊपर से एक दिन एक एंग्लो-इंडियन लड़की को घर ले आया।

कहने लगा बीजी, बहू है तुम्हारी, इसके साथ कोर्ट मैरेज की है।

अब आप जानो जस्सो मासी तो जस्सो मासी ठहरी! फौरन उसे दरवाजा दिखाकर कहा – फिटे मुंह तेरा, जित्थों लाया है, ओत्थे ही छड़के आ मोए!

तीन दिन के भीतर मुहल्ले वालों और इक्का-दुक्का नातेदारों को इकट्ठा किया और फेरे डालकर बहू को घर ले आई। ढोल बजा तो पूरे मोहल्ले से ज्यादा जस्सो मासी नाची थी। दबी जनाब से बहू के धर्म पर छींटाकशी करने वालों की कमी नहीं थी पर जस्सो मासी ने यह कहकर सबका मुंह बंद कर दिया कि – औरत की भला क्या जात और क्या धरम, पानी जिस भांडे में गया वैसा ही हो गया। लौटे विच पाओ तो लौटे वरगा, होर थाली विच पाओ ते थाली वरगा! तो ग्लेडिस अब लक्ष्मी हो गई थी। और गली नंबर दो का क्या कहना, कुछ दिनों की कानाफूसी के बाद वही लक्ष्मी सबकी लाड़ली बहू थी और सुबह दिन निकलते ही पैरी-पैना चाची जी पैरी-पैना मासीजी करते हुए उसकी कमर दोहरी हो जाती थी। यूं चार दिन तो मजे में कटे फिर चंद दिनों में ही शाम को डगमगाते कदमों से लौटते पति की खस्ता हालत, कपड़ों से आती असहनीय दुर्गंध और खाली जेब ने कुल मिलाकर जो तसवीर खींची थी उसमें लक्ष्मी को भविष्य पर छाई अंधकार की छाया साफ दिखाई पड़ती थी और ये भी कि अब तो बस सास के सहारे दिन कटेंगे या खुद ही कमा-खाकर गुजर होगी। मायके में चर्च में जाकर जी भर रोई पर कही कोई रास्ता नहीं था। खुदा उसका नसीब लिखते हुए सारी स्याही खो बैठा था बस दूर तक काला रंग बिखरा नजर आता था।

हरे-पीले, लाल-नीले, बैंगनी-नारंगी, दुनिया की भागदौड़ और चकाचैंध से दूर भागते भूपी को रंगों में निजात मिलती थी। ये और बात है कि उसके मन में दुनिया को लेकर जो भी तसवीर बनती थी वो बहुत बेरंग थी। अपने कद को लेकर कोई ग्रंथि पाली हुई थी उसने या फिर ऊंचाई से उसका डर इसका कारण था, भूपी अक्सर उंची-लंबी आकृतियों से मुंह फेर लिया करता था। उसके अवचेतन में सदा एक लंबा, ऊंचा, ठूंठ सा वृक्ष विद्यमान रहता था जो मन को कभी हरा-भरा होने ही नहीं देता था। ऐसा नहीं था उसने कोशिश नहीं की, पर उसकी तमाम कमजोर कोशिशें उस ठूंठ की ऊंचाई के सामने हार मानकर दम तोड़ गई। कभी-कभी भूपी को लगता था उसकी ऊंचाई हर रोज थोड़ा कम हो जाती है और ठूंठ हर रोज उतना ही बढ़ जाता है। उसे लगता था किसी दिन यह ठूंठ उसकी पूरी लंबाई को लील लेगा और वह पूरा का पूरा इसी ठूंठ में समा जाएगा। उसका यह डर अमूमन दिन में जाने कहां सोया रहता और रात में धीरे धीरे उसकी नींद पर काबिज हो जाता। वह पसीने-पसीने हो जाता और अपने घुटनों को पेट में घुसाए, खिड़की से बाहर स्ट्रीट-लाइट को देखते-देखते सुबह का इंतजार करता। उसकी बेचैनी बढ़ जाती और रगों में दौड़ता लहू, मानो लहू नहीं किसी ज्वालामुखी से निकलता गरम लावा हो जाता जिसका बहाव उसे दुनियावी चहल-पहल से कही दूर ले जा पटकता। हैरत की बात यह थी कि जो भूपी पहले घंटों अपनी दुनिया में लौटने की कोशिश करता रहता था उसे अब ये दूसरी अंधेरी, भयावह दुनिया रास आने लगी थी। ये दर्द, ये तकलीफ, ये बेचैनी और ये डर उसकी आदत जो बन गए थे।

इधर ग्लेडिस उर्फ लक्ष्मी ने देखा उसके अलावा ससुराल में कुल जमा चार प्राणी हैं। पति आधे दिन बोतल भर के लायक कमाता है और सब कमाई दारू में उड़ा देता है। ससुर बीमार और लकवे से लाचार है। सास किसी फैक्टरी में काम करती है और देवर यानि भूपी मूर्तियां बनाता है। लोगों को लगा था बहू ईसाई है चार दिन में सब छोड़छाड़ कर अपने घर लौट जाएगी। उसके घरवालों ने भी कुछ इसी तरह की सलाहें उसकी झोली में डाल दी पर लक्ष्मी, जो अपने परिवार की सारी हिदायतों, आशंकाओं और भविष्यवाणियों को नजरअंदाज कर इस घर में आई थी, उसने इस रिश्ते को एक मौका देने का फैसला किया। दिन बीतते गए, पता नहीं ये फेरों पर खाई कसमों का असर था या सास का स्नेह, गरीब मां-पिता की लाचारी की चिंता थी या घुटने टेकने से इनकार करती, गर्भ में आ गए एक अजन्मे शिशु की मां की जिजीविषा थी कि लक्ष्मी-लक्ष्मी ही रही, फिर कभी ग्लेडिस नहीं बनी तो नहीं बनी। गले में डला क्रॉस ॐ में बदल गया और उसने एक टिपिकल संस्कारी बहू की तरह सास की गृहस्थी संभाल ली, वही रोजी-रोटी के लिए देवर की मदद करने लगी। सास को चूल्हे-चैके से छुटटी मिली, ससुर को दवाई समय पर मिलने लगी वही भूपी के अकेलेपन के दायरे में लगी सेंध ने कुछ दिनों के लिए उसे परेशान तो जरूर कर दिया था पर वक्त का पहिया जब मंथर गति से आगे सरकता गया तो धीरे-धीरे यह अतिक्रमण उसे भी रास आने लगा। और हुआ यूं मूर्तियां अब गली नंबर दो की आवाजाही, एक-दूसरे की चुगलियां करती औरतें और भूपी की खामोशियों से इतर भी कुछ आवाजें सुनने लगी थी।

भाभी, पीला रंग कब खत्म हुआ होर हरा रंग किन्ना लाणा है…

भाभी, एक कप चा पीणी है…

भाभी, सिंह साहब का आदमी क्या बोल रहा था… वगैरह-वगैरह…

भूपी ने मूर्तियां बनाने का काम छुटपन में ही सीख लिया था, कुछ अरसा काम एक दोस्त के घर काम किया और फिर जल्दी ही अपना काम शुरू कर दिया। रबर की डाई उर्फ सांचे में प्लास्टर ऑफ पेरिस का घोल डालकर उसे छत पर सुखाया जाता था। एक लाइन से बने 10 Û 10 के चार कमरों को जोड़ कर बनी लंबी छत पर लाइन से मूर्तियां रखी रहती थी। एक कोने में एक छप्पर डला था जो अक्सर स्टोर रूम का काम करता था। मूर्तियां पूरी तरह से सूखने के बाद उन्हें रंगा जाता था। ये दिवाली से ठीक पहले का समय था। तो बस चारों और लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां ही नजर आती थी। ऑर्डर के मुताबिक लक्ष्मी-गणेश की कुछ मूर्तियों को सुनहरा रंगा जाता था, कुछ को पूरा सिल्वर कलर किया जाता था और बाकी को विभिन्न रंगो में रंगा जाता था। थोड़े ही दिनों में लक्ष्मी ने सब सीख लिया था, कैसे सबसे पहले सिंहासन पर फिरोजी रंग, लक्ष्मी जी की साड़ी में लाल रंग, उनकी चोली में हरा रंग, गणेश जी के वस्त्रों में पीला रंग, हाथ पांव में पीच रंग और गहनों को सुनहरा रंगा जाता था। यहां तक तो सारा काम दोनों मिलकर करते थे, बस इसके बाद का काम केवल भूपी ही करता था और यह था उनकी आंखों का चित्रण। मूर्तियों में प्राण फूंकने वाला मुहावरा यहां साकार हो जाता जब भूपी बड़े मनोयोग से, अपने सधे हाथों से उनकी आंखें चित्रित किया करता था। एक-एक कर मूर्तियां साकार हो उठती थी और लक्ष्मी उन्हें गिनते हुए ऑर्डर पूरा होने की खुशी में झूम उठती थी। इसके बाद ईटों के एक छोटे से चबूतरे पर रखकर उन पर वार्निश का स्प्रे किया जाता। जहां एक ओर मूर्तियां जीवंत हो चमक उठती वही उनके रंग भी पक्के हो जाया करते। लक्ष्मी के लिए ये मूर्तियां केवल मूर्तियां नहीं थी, घर का राशन थी, बच्चों की स्कूल की फीस थी, बिजली का बिल थी और मकान-मालिक का चाहे मामूली-सा ही सही, पर समय पर दिया जाने वाला किराया भी थी।

सियासी मियार की रीपोर्ट