अपेक्षाएं,,…
-सुभाष चंद्र कुशवाहा-
दशहरे की छुट्टियों में मैं गांव में था। घर-बार, बाग-बगीचे, ताल-तलैये, बंसवारी अपनी जगह थे, थोड़ी-बहुत आकार-प्रकार की भिन्नता के साथ। पुराने संगी-साथियों में कुछ थे, कुछ काम-धंधे के वास्ते बाहर गए थे। धान की कटाई हो चुकी थी। समीप के बाजार में बजते दुर्गापूजा के नगाड़े, देर रात तक सुनाई देते। बरसात से धुले मौसम का रंग-रूप निखरा हुआ था।
इस बार गांव पहुंचने पर पहले जैसा उल्लास नहीं दिखा। बाबू जी में और न पट्टीदारी की भौजाई चहकती हुई आई थीं। दोनों मामा मिलने नहीं आए थे। बहनें और जीजा भी नहीं।
यह नई बात थी। पता चला कि रिश्तेदार और पट्टीदार मुंह फुलाए हैं। मां-बाबू जी पर दोनों मामा और बहनों की सोच का प्रभाव दिखाई दे रहा था। शायद उन लोगों ने मां-बाबू जी को भड़काया हो या दुनियादारी के कुछ पाठों का पुनर्पाठ किया हो।
पट्टीदार की भौजाई के व्यंग्य बाणों की चुभन इधर-उधर से महसूस कर मैं अंदर ही अंदर आहत होता और कभी-कभी गुस्सा भी। मैं अफसर हूं तो अपने लिए। अपने बीवी-बच्चों के लिए। मेरे लिए किसी ने क्या किया है? मैं स्वयं से सवाल करता।
ऐसा पहले नहीं हुआ। रिश्तेदारों को मेरे आने की जानकारी पहले से होती। वे मेरे पहुंचते ही आ टपकते। कई बार वे मां-बाबू जी के पास पहुंच कर मेरे आने का इंतजार करते। पट्टीदार दिन में कई बार हाजिरी लगा जाते। कोई दूध पहुंचा जाता तो कोई दही। सेवाभाव प्रदर्शित करने में कोई पीछे न रहता। सबके अपने-अपने स्वार्थ थे। बिना स्वार्थ कोई नहीं आता, ऐसी मेरी धारणा थी।
वे मां-बाबू जी को पहले खुश करने का प्रयास करते। फिर उनकी बैसाखी के सहारे मुझ तक अपनी अपेक्षाओं को पहुंचाते और मन की मुराद पूरी न होते देख, अपनी वेदना को उलाहनों और तानों में व्यक्त करते लौट जाते।
सबकी अपेक्षाएं अलग-अलग होतीं। मेरी साहबगिरी की खुरचन की आस में सब आते। दोनों मामा, मां के माध्यम से अपना अधिकार जताते। वे यह जताना चाहते कि उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरना भांजे का दायित्व है। मां की स्थिति बड़ी अजीब होती। वह समझदारी से कम, भावुकता से ज्यादा काम लेती। दरअसल उसे मेरी सीमाओं की जानकारी न थी। वह जल्द रिश्तेदारों की बातों में आ जातीं। वह भी यही समझती कि अफसर माने सब कुछ। वह मेरे इन्कार से आहत होतीं। उसे लगता मैं बहू के इशारों पर रिश्तेदारों से विमुख हो रहा हूं। फिर भी वह दोनों मामा के सामने मेरा बचाव करती और कभी-कभी रिश्तेदारों की स्वार्थपूर्ण अपेक्षाओं को सुन नाराज हो जातीं।
दोनों मामा को लगता मैं बहाना बना रहा हूं या मतलबी हो गया हूं और उनकी समस्याओं पर गौर नहीं करना चाहता। अब बहिना कि दुवार पर हम लोग झांकने नहीं आएंगे वे हर बार नाराज हो कर सुनाते जाते। जाने के पहले वे मेरे पट्टीदारों के दरवाजे पर जा बैठते। ऐसे समय, पट्टीदार लोग उन्हें सहज उपलब्ध होते। तब वहां दोनों मामा की बातों को भरपूर समर्थन मिलता, वह भी सहानुभूति के घलुवे के साथ। गांव के और लोग उतना उत्साह नहीं दिखाते जितना पट्टीदार। शायद औरों और पट्टीदारों में यही फर्क होता हो या यह मेरी नकारात्मक सोच हो।
मैं अब पहले की अपेक्षा, गांव कम जाता हूं। बच्चे बड़े हो गए हैं। अपनी छुट्टियों के साथ-साथ बच्चों की छुट्टियों और परीक्षाओं का ख्याल रखना पड़ता है। यही स्थिति मेरे छोटे भाई की है। वह साल में एक बार चक्कर लगा ले, वही बहुत है। या यों समझिए कि उसे गांव जाना पसंद नहीं है।
हम लोगों की परिस्थितियां और सोच अपनी जगह हैं तो मां-बाबू जी की पीड़ा अपनी जगह, बेटे लोग अपने बेटे-बेटी, मेहरारू के साथ हैं। हम लोगन को कौन पूछता है? बुढ़ापे में अकेला छोड़ दिए हैं। वे सबसे शिकायत करते। वे लोगों को यह नहीं बताते कि बेटे पिछले दो साल से शहर चलने के लिए मान-मनौव्वल कर रहे हैं, पर वे सुनते ही नहीं। एक बार जिद पकड़ ली तो पकड़ ली। कभी मां ढीली पड़ती तो बाबू जी ऐंठ जाते। कभी बाबू जी पिघलने का मन बनाते तो गांव वाले खुरपेंच लगा देते। कितनी बार समझाया-बुझाया, उम्र का आभास कराया, परंतु बाबू जी पीठ पर हाथ नहीं रखने देते। जब तक जांगर चल रहा है, चलाएंगे। यहीं पैदा हुए हैं, यहीं मरेंगे। कहीं और नहीं जाएंगे। केहू के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे। मुझे पंखे की हवा नहीं खानी है। जिंदगी भर बंसवारी की हवा खाएं हैं। वहीं खाएंगे। अपनी जमीन में दफन होंगे।
बाबूजी की चिंता जरजमीन को लेकर ज्यादा थी, अरे जब बेटा लोग खेती-बारी की देख-रेख नहीं करेंगे तो लोग कब्जा कर लेंगे। पेड़ कटवा लेंगे। पट्टीदार तो मुंह बाए ताक रहे हैं कि कब बुड्ढा-बुड्ढी मरें और कब उनका घर-दुवार हथियाएं। इस आशंका के जनक वह खुद थे। गांव वाले जब-तब मां-बाबू जी को सुना-सुना कर उनकी पीड़ा और सुलगाते रहते, जब बेटे गांव-घर से लगाव नहीं रखेंगे तो पोते का रखेंगे? खेत-बारी का चिन्हेंगे? पढ़ाने-लिखाने का यही फल मिलना कुढ़ते, बोलते कुछ नहीं। पर मां बंसवारी में बैठ गालों पर लोर चुवाती रहती। पट्टीदारी की भौजाई ऐसे समय में मां को ढाढस बंधाने पहुंच जातीं, मत रोईए छोटकी माई! हम लोग हैं न। हम लोग आप लोगन को थोड़े छोड़ देंगे? बाबू लोग जीरात (जराअत) की देखभाल नहीं करेंगे तो हम लोग करेंगे। खानदान की जमीन-जायदाद किसी और को हड़पने देंगे? भौजाई की बातों से मां की आशंका कम होने के बजाय और गहरा जाती।
छोटे जीजा ने बाबू जी के सामने एक बार प्रस्ताव रखा था कि अन्य लोगों को खेत बटाई देने के बजाय उन्हें दे दिया जाए। खेती वहीं करेंगे, सास-ससुर की देखभाल भी। जो अधिया बटाईदारों का होता है, वह उनका होगा। परंतु बाबू जी ने इन्कार कर दिया। उन्हें लगा दामाद के जी में लालच समा गई है। एक बार ससुराल में पांव जमाया तो हटाना मुश्किल होगा। क्या पता आगे कोई बखेड़ा खड़ा कर दे या गांव के लोग भड़का दें तो क्या होगा? फिर दूसरा दामाद क्या सोचेगा?
बाबू! मेरी ओर भी निगाह कीजिए। बड़े मामा अक्सर खास स्टाइल में मुझसे अनुरोध करते। वह बात तब शुरू करते, जब मेरे पास कोई और नहीं होता। यद्यपि मैं उनकी बातों पर गौर नहीं करता। बस अनमने मन सुनता और जब ऊब जाता तो अपनी मजबूरी बता कर उठ जाता। मामा इससे और कुढ़ते। उन्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं होता। उन्हें मेरा स्वभाव नहीं भाता। समझते कि भांजा बहाना बना रहा है या हम लोगों से कोई मतलब नहीं रखना चाहता। वह अपने चेहरे के भावों से मुझे याद दिलाते कि किस प्रकार बचपन में ममहर में मेरा ख्याल रखा जाता था। गर्मी की छुट्टियों में आम के बगीचे में या नाना के संग चरवाही में मुझे शैतानी करने की छूट थी तो सुबह-शाम नानी सजाव दही सबसे पहले मुझे ही परोसती थीं। हर बार फसल कटते ही कुछ न कुछ सीधा (राशनध्अनाज) की गठरी, पका कटहल या सुथनी मामा पहुंचा देते थे। गरीबी के दिनों में मेरे पढने के लिए उन्होंने एक लालटेन भी खरीदी थी। कई मेलों में बड़े मामा ने कंधे पर बैठाकर मुझे घुमाया था, जलेबी और घुघुनी खिलाई थी।
शायद इसलिए मामा पुरानी स्मृतियों में डूबते-उतराते, स्वयं को कुरेदते हुए बोलते जाते, गांव-जवार के लोग कहते हैं कि तोहार भगिना इतना बड़ा साहब हो गया है। ऊ जवन चाहे तवन कर सकता है। खाली हुकुम करने भर की देर है।
मैं मामा की बात का आशय समझ जाता। वह हर बार अपने कक्षा आठ पास बेटे को काम दिलाने की सिफारिश करते। कभी बाबू जी से तो कभी मां से जोर डलवाते। मैं उस स्थिति में खुद को फंसा महसूस करता। मेरी तरफ से मनमाफिक जवाब न पा कर बड़े मामा अंदर ही अंदर कुलबुलाते। फिर सहानुभूति बटोरने के लिए गांव वालों को सुनाते फिरते, आगे बढ़ जाने पर लोग, गरीब-गुरबों को भूल जाते हैं। हित-मीत का ख्याल नहीं करते। निगाह फेर लेते हैं। गंवई, मनई उन्हें गन्हाते हैं। फिर गला खंखारने के बाद अपनी बात पूरी करते, …सारे जवार के लोग कहते हैं कि तोहार भगिना इतना बड़ा अफसर हो गया है, गाड़ी, बंगला, नौकर-चाकर सब कुछ है उसके पास। शहर मेम से शादी किया है। शहर में ठाठ से रहता है और आप लोगों के लड़के बेकाम घूम रहे हैं? साहब होने का यही मतलब है? वह चाहे तो एक मिनट में काम दिला दे। असल बात चाहने की है? बड़े-बड़े फैक्ट्री वाले, ऐसे साहबों के आगे-पीछे घूमते हैं। लोग उनकी बातों के समर्थन में सिर हिला देते। इससे मामा की सोच और वेदना और मजबूत हो जाती।
सियासी मियार की रीपोर्ट