एक उंगली उठ जाती है..
-अंजना वर्मा-

एक उंगली सिर्फ उठ जाती है
तुम्हारी ओर
छूती भी नहीं तुम्हें
लेकिन उस उंगली के उठते ही
ऐसा क्यूं होता है कि तुम
धराशायी हो जाती हो स्त्री?
इसलिए कि मिट्टी की बनी हो तुम
मिट्टी का घड़ा हो-जल से भरा कलश!
दोनों दुनिया में रहती हो बारी-बारी से
घूमती हो चकरघिन्नी की तरह
मैके में छोटे भइया से लेकर दादा जी तक
ससुराल में
वहां के कुत्ते से लेकर पति और सास-ससुर तक
कौन नहीं तुम्हारी सेवा का जल पीता है?
यही जल है जो
आटा में मिलता है तो रोटी बनती है
चावल के साथ खदकता है तो भात बनता है
कुएं से घड़ों में भरकर
घर में आता है तो स्नान-पूजा होती है
चंदन के साथ घिसा जाता है
तो माथे पर तिलक लगता है
स्तन से उतरता है तो
बच्चे का पेट भरता है
शिराओं में दौड़ता रहता है तो
जीवन की सांसें चलती रहती हैं
आंखों से झरता है तो रिश्तों की गांठें बनती हैं
इस घड़े को फोड़े कर कहां रहेगा तू पुरुष?
कहां रहेगी तेरी दुनिया?
(हिंदी समय से साभार प्रकाशित)
सियासी मियार की रीपोर्ट
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