उसके हिस्से की पनाह…
-सैली बलजीत-

उसे पहली बार देखा तो एक साथ ढेर-सी उत्सुकताओं का जेहन में पनप आना स्वाभाविक था। वह पूरा दिन मशीन की तरह काम करती तो और भी ताज्जुब हुआ था। वह लगभग आठ बजे आ जाती लेकिन जाने का समय कभी भी निश्चित नहीं हुआ। वह अभी चैदह साल की होगी। उसके जिस्म से कसकर लिपटी चुन्नी इस बात का प्रमाण भी थी कि वह उस उम्र की बारीकियों से जानकार हो चुकी है।
वह मुंबई की एक गंदी बस्ती में रहती है। मुंबई में मेरा जाना कई साल बाद हुआ था। एकाएक मेरे चाचाजी के निधन का समाचार मिला तो मुंबई जाना हुआ था। चाचाजी का परिवार वहीं रहता है। मीरा रोड का नक्शा मेरी आंखों में उतरने लगा था। रेलवे स्टेशन के बगल में गगनचुंबी इमारतों में रश्मि क्रिस्टल का बोर्ड पढ़ते ही, राहत हुई थी… और मेरे सामने मुंबई का तिलिस्म एक-एक करके खुलने लगा था। हमारा मिलन एक-दूसरे को दिलासे देने के उपक्रम के साथ हुआ था।
दूसरे दिन मेरी उत्सुकता फिर सरसराने लगी थी।
मैंने राहुल से पूछा था, यह लड़की कब से यहां काम कर रही है? राहुल चाचाजी का पौत्र है।
दो-तीन साल हो गये हैं…। पापा को तरस आ गया। बस इसे रख लिया… अंकल… इसकी अजीब-सी कहानी है। तभी तो यह पूरा दिन यहीं रहती है। मम्मी ने इसे सभी सलीके सिखा दिए हैं।
क्या हुआ इसके साथ? मैंने पूछा था।
बहुत गरीब हैं ये लोग। तभी तो घर-घर जाकर खपना पड़ता है। चार बहनें हैं ये। अंकल, बड़े हादसे झेले हैं इन लोगों ने।
क्या हादसे हुए हैं? सभी इसी तरह घरों में काम करती हैं…?
हां तो। सभी पूरा दिन घर से बाहर रहती हैं। घर में ताला लटका रहता है। रात को घर लौटती हैं तो एक-दूसरे से मिल पाती हैं…
यहां की लाइफ ही ऐसी है। भागदौड़ करके ही पेट भरता है। क्या-क्या नहीं करना पड़ता यहां। मैं यहां मुंबइया जिंदगी का बखान करने लगा था।
तब तक उस लड़की ने फर्श साफ कर दिए थे। मैं उसकी चुस्ती देख दंग रह गया था।
मैंने महसूस किया था कि हालात किस तरह ऐसी लड़कियों को समय से पहले ही परिपक्व कर देते हैं। मैंने महसूस किया कि यह लड़की सचमुच उम्र की उस दहलीज पर पहुंचने से पहले ही उम्र की ढलान पर पहुंच गई है। सभी बहनों के सपनों के गुलमोहर अब कहां खिलेंगे? गुलमोहर कब तक उनके सपनों से खिसकते रहेंगे?
राहुल ने उस लड़की से जुड़ी अनेक बातें बताई थीं।
पढ़ाई तो जाने कब की छूट गई थी उसकी। उस दिन वह रोने लगी थी। आते ही सभी हैरान हो गये थे। उसकी हिचकियां बंध गई थीं।
क्या हुआ, बता तो? कुछ बताएगी भी? चाचाजी के बेटे अशोक ने पूछा था उससे।
कल रात वह फिर रोने लगी थी।
क्या हुआ थाकृबताओ तो सही…?
लाइनों की तरफ से कुछ गुंडे आ गये थे। मुझे छेड़ने लगे। चक्कू निकाल लिए थे। मुझे पकड़ लिया। अंकल मैं क्या करती…? वह फिर रोने लगी थी।
उन्हें पहले कभी देखा है?
नहीं।
पहचान सकती हो? कहां रहते हैं सभी, पता है कुछ?
मैं क्या जानूं। बड़ी-बड़ी मूंछों वाला एक लड़का है। उसे पहचान सकती हूं…पर टेसन की सवारियां देख सभी भाग गए थे।
तुझे कहा था न… राहुल तुझे छोड़ आएगा… तू किसी की मानती शुक्र कर वरना ले जाना था तुझे किसी सुनसान जगह पर और तेरी लाश भी नहीं मिलनी थी, समझी…?
वह फिर से रोने लगी थी, उसकी हिचकियां बंध गई थीं।
अब रोती काहे को है… बच गई है वरना… रोती रहती उम्रभर… अब यहीं प्रबंध करते हैं तेरा कोई… यहीं रुक जाया कर रात को। पूछ आना घरवालों से …तेरा लफड़ा ही खत्म कर देते हैं।
किससे पूछना है? घर में बहनें ही हैं… वे मानेंगी तभी न?
तेरी भलाई के लिए कह रहे हैं मुन्नी, जमाना खराब है तूने अभी देखा ही क्या है…? इससे भी खूंखार आदमी बैठे हैं दुनिया में। चाचाजी का लड़का लंबा-चैड़ा भाषण देने लगा था।
मेरा तीसरा दिन है यह मुंबई में। इस बीच राहुल ने मुझे उस लड़की के परिवार का पूरा इतिहास बता दिया है। मीरा रोड के स्टेशन के पास उसकी मां मछली का धंधा करती थी। आते-जाते लोगों की निगाहें मछली खरीदने की बजाय उसके गठे हुए मांसल जिस्म पर अधिक ठहरतीं।
ले लो बाबू एकदम ताजा पीस है। वह अकसर आते-जाते राहगीरों को मछली की टोकरी की तरफ संकेत करते कहती है।
तू अपनी बात कर, क्या लेगी? कोई मनचला उसे कहता तो वह भीतर तक जल-भुन जाती।
जा रे… सुबह-सुबह बोनी के वक्त तो खुदा से डर। मछली खरीदने का है तो रुक, नहीं तो फूट, क्या समझा। वह ऐसे लोगों से निपटना जानती है।
तुझ जैसी सभी ऐसे ही नखरें करती हैं पैले…।
अब खड़ा नहीं होने का… भागने का है, जूती देखी है न…? तुम लोगों का इलाज है मेरे पास… अब रुकने का नहीं।
उसने इसके साथ ही पांव से जूती उतार ली थी। वह मनचला वहां से खिसक गया था।
वह अक्सर दिनभर ऐसी स्थिति में से गुजरती है। उसके घर में चार बेटियां हैं। उम्र का गठीलापन सभी पर चढ़ रहा है। किस-किस को संभालती फिरेगी? वह सोचती है सबसे छोटी बेटी चंदा भी उसके कद के बराबर आ गई है। उससे बड़ी वाली तो कब की उसके कद के बराबर हो चुकी है। सारा दिन सभी बेचारी बड़े लोगों के घरों में मशीनों की तरह खपती हैं। कहां-कहां तक वह उनकी निगरानी करती फिरे, आंख की दूसरी ओर परदेश… भांति-भांति के घरों में उनका जाना होता है। फिर… सभी आदमी तो एक जैसे होते नहीं, क्या पता कब किसकी अक्ल मारी जाए! फिर बदन के रसियों की कौन-सी जात होती है।
हर रात, वह अपनी झोपड़ी में जब लौटती है तो उसके चेहरे पर खौफ का लबादा चढ़ आता है। वह पगलाई-सी एक-एक लड़की से पूछती है। पहले वह बड़ी वाली बेटी से पूछती है, तू ठीक तो है न?
क्या हुआ है मुझे मां… अच्छी-भली तो हूं देख? मां को देखते हुए बड़ी बेटी कहती है।
डरती हूं… जमाना खराब है… अपने आप को संभाल के रखना…। आज औरत के जिस्म को सेंध लगाने वाले बहुत हैं…।
लेकिन… मां… छिपकली कब तक छत से चिपकी रहेगी? एक दिन तो धड़ाम से नीचे गिरेगी ही? हम छिपकलियां कब तक बच पाएंगी?
तो बेटी… कोशिश करना, छिपकली छत से चिपकी रहे… उसे गिरने मत देना… उसने बेटी को कसकर छाती से लगा लिया था। उस दिन चंदा की मां ने जिस्मों की मंडी में विचरने वाले लोगों से सावधान रहने का लंबा-चैड़ा भाषण दे डाला था।
एक महीना भी नहीं बीता था, एक दिन मछली बेचते अंधेरा हो गया था। मीरा रोड स्टेशन के पास थोड़ी दूर तक उजाला पसरा रहता है। लगभग नौ बज रहे थे। तभी चमचमाता हुआ चाकू उसकी ओर बढ़ा था। उसे जमीन घूमती हुई प्रतीत हुई थी।
अब बता…? तुम्हें कहा था न? तुम मान जाती तो क्या जाता, बोल अब क्या सोचा है? एक भद्दी-सी शक्ल वाला खूंखार-सा आदमी उसके सामने खड़ा था। वह अंधेरे में उसे पहचान नहीं पाई थी।
वह हांफते हुए बोली, देख बे… छोड़ दे मुझे… हाथ नहीं लगाने का… मर्द है तो चाकू फेंक के आ…। वह गालियां निकालने लगी थी।
तेरी उछलकूद अभी बंद करता हूं… चुपचाप आ जा इधर… वरना… वह उसे धमका रहा था।
उसने पिच से उस पर थूक दिया था। उस आदमी ने चमचमाता हुआ चाकू उस पर तान दिया था। वह टूट गई थी। वह चिल्लाई थी, लेकिन सन्नाटे में उसका चीत्कार गुम हो गयी थी। पूरा बदन शिथिल हो गया था उसका।
वह हार गई थी। उसका पति रोज की भांति दारू के नशे में धुत्त लौटा था। उसका पति भइंदर में किसी सेठ की चाकरी करता है। कभी-कभार लड़कियों को देख उसे उनकी शादी की चिंता अवश्य सताती है, लेकिन वह इसकी अनदेखी कर देता है।
राहुल ने बताया था कि चंदा की मां ने उसी रात अपने बदन को आग लगा ली थी। दूसरी सुबह चंदा काम पर नहीं आई थी। … उनके बाप का कोई अता-पता नहीं, वह उसी दिन से गायब हो गया है।
अशोक ने अपनी पत्नी से मशविरा किया था। अशोक चाचाजी का छोटा बेटा है। पत्नी उसके पास आ गई थी, देख तो… उस दिन वाली बात का चंदा के दिमाग पर गहरे से असर हुआ है… उसका कुछ सोचना होगा… अशोक ने कहा था।
जवान लड़की को कहां-कहां संभालते फिरेंगे… रात-बिरात तो हो जाती है काम में…? पिंकी बोली थी।
तभी तो कहता हूं… यहीं पड़ी रहा करेगी, चार कपड़े हैं तो ले आए यहां, नहीं तो सिलवा देंगे। अशोक ने लगभग अपना निर्णय सुना दिया था।
पिंकी ने कहा था, बात गंभीरता से सोचने वाली है। जल्दबाजी किसलिए?
अशोक बोला था, धर्म-पुण्य का काम है एक बेसहारा कन्या को सहारा देना… अपनी फिर कौन-सी कोई बेटी है…
मैंने कब मना किया है? पर सोच लीजिए…। इसका बाप जाने कहां होगा… पी-खा के मर-खप गया होगा… जिंदा होता तो कहीं दिखता न? पिंकी गुस्सैल हो उठी थी।
उस चैप्टर को क्यों खोलती हो…? चंदा से पूछ लेंगे… कल से वह यहीं रहेगी हमारे साथ। जो बन पड़ेगा, करेंगे। शादी ही करनी है न उसकी? कर देंगे।
तो ठीक है… पर एक चिंता और है… उसकी दूसरी बहनों को… उन्हें भी कोई परिवार ऐसे ही अपना ले…
बहुत लोग हैं इस दुनिया में… कोई ठौर उन्हें भी मिल जायेगा… अशोक कांप गया था।
वह सोचने लगा था, चंदा की मां मर गई, कोई हंगामा नहीं हुआ। उसकी मां की इज्जत चली गई, पूछा किसी ने? बेटियां तो होती ही छिपकलियां हैं… जब तक छत से चिपकी रहीं सुरक्षित, छत से गिरते ही सब तहस-नहस हो जाता है। फिर मुंबई जैसे शहर में तो यह और भी कठिन है, जहां लोग छिपकलियों को छत पर चिपकने देना तो दूर छत पर रेंगने भी नहीं देते… फिर कहां जाएं ये लावारिस छिपकलियां?
राहुल मेरे पास आ गया था, अंकल चंदा पर कहानी लिखोगे न?
मैंने कहा था, क्यों नहीं लिखूंगा? अगर तुम लोग अच्छा काम कर रहे हो तो मुझे चंदा की कहानी लिखकर सुकून मिलेगा…।
कहानी में क्या-क्या लिखोगे? राहुल ने पूछा था।
जो तुम कहोगे… बोलो क्या-क्या लिखूं? मैंने कहा था।
मुझे क्या पता? राहुल ने कहा था।
चंदा का बाप फिर कभी लौटा। मैंने पूछा।
… सुना है… वह भी मर गया।
ऐसे लोगों को मर ही जाना चाहिए… उसे जीने का कोई हक नहीं… अच्छा हुआ मर गया… और छोड़ गया लावारिस बेटियों को…
अंकल… सभी लड़कियां अच्छे घरों में काम कर रही हैं।
पर उनको ऐसा संरक्षण मिल पाएगा… जैसा चंदा को दिया है आप लोगों ने?
अंकल वे बड़ी बहादुर लड़कियां हैं। राहुल ने कहा।
नहीं… इस दुनिया में जब तक लार टपकाने वाले भेडि़ए छुपे बैठे हैं… इनकी बहादुरी कोई मायने नहीं रखती… क्या समझा?
समझ गया अंकल… राहुल बोला था।
इस दौर में औरत जात की इज्जत की सेंधमारी ही सबसे बड़ा सवाल है… छिपकलियों की तरह कब तक छत से चिपकी रह सकेंगी… चंदा की बहनें…?
अंकल आप पहेलियां बुझा रहे हैं…
मैं सच कह रहा हूं… कौन संरक्षण देगा इन्हें?
राहुल छत की ओर निहारने लगा था। वह निरुत्तर हो गया था।
मुंबई में आज आखिरी दिन है मेरा, चंदा को घर का काम करते हुए देख रहा हूं। उसकी बहनों का खयाल एकाएक आ गया है… उन्हें भी चंदा की तरह संरक्षण मिल जाए… यही दुआ है… सबसे बढ़कर गुस्सा उसके कायर बाप पर आ रहा है… चंदा की मां मरती नहीं तो क्या करती? कब तक बेटियों की रक्षा करती? छिपकलियों को तो छत से गिरना ही होता है और… मछलियां कब तक जाल की गिरफ्त से बच सकती हैं? पानी से बाहर आईं और… कितने हाथ एक साथ लपकने को उठ खड़े होते हैं…।
सियासी मियार की रीपोर्ट
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