मौत का कफ सिरप

कफ सिरप पीने से राजस्थान और मध्यप्रदेश में 18 बच्चों की मौत हो चुकी है। न जाने ऐसी कितनी मौतें हो चुकी हैं अथवा हो सकती हैं, क्योंकि ऐसी घटनाएं दर्ज भी कम होती हैं। कंपनियां कफ सिरप में जहरीला, रासायनिक यौगिक मिलाने से बाज आ जाएंगी, हम ऐसा नहीं मानते। बच्चों की मौत का सिलसिला 1937 से जारी है, जब अमरीका में कफ सिरप पीने से 105 जिंदगियां थम गई थीं। यह विश्व की ऐसी पहली त्रासदी थी। 1938 में अमरीका ने संबद्ध कानून को ही बदल दिया और कफ सिरप में ‘डायएथिलीन ग्लाइकॉल’ (डीईजी) के इस्तेमाल पर ही रोक लगा दी। तब से कोई भी सामूहिक त्रासदी सामने नहीं आई है। बहरहाल आप सचेत रहें, डरने की जरूरत नहीं है। डॉक्टरों का कहना है और भारत सरकार ने भी परामर्श जारी किया है कि 5 साल की उम्र से कम बच्चों को खांसी-जुकाम का कोई भी सिरप न पिलाया जाए। पुरखों के घरेलू इलाज ज्यादा असरदार हैं। वैसे भी खांसी दो-तीन दिन में खुद ही ठीक हो जाती है। जिस कंपनी का कफ सिरप ‘कोल्ड्रिफ’ पीकर बच्चों की मौत हुई है, सरकार ने तुरंत प्रभाव से उसे और कंपनी की अन्य 19 दवाओं को प्रतिबंधित कर दिया है। यह सवाल अभी सामने है कि न जाने कितनी कंपनियां अब भी कफ सिरप बनाने में डीईजी का इस्तेमाल कर रही हैं? यदि सरकार की एजेंसियां गंभीर होकर ऐसी कंपनियों की दवाओं का निरीक्षण करेंगी, तो हम त्रासदियों से बच सकेंगे! दरअसल डीईजी मीठे स्वाद वाला, रंगहीन, गंधहीन, तरल पदार्थ होता है। इसका उपयोग औद्योगिक सॉल्वेंट के तौर पर किया जाता है। दवाओं में इसके इस्तेमाल की भारत में भी सख्त मनाही है। यह पेंट, स्याही और कुछ प्लास्टिक के निर्माण में इस्तेमाल किया जाता है। दवा में कंपनियां मुनाफे के लिए प्रोपीलीन ग्लाइकॉल के साथ मिलावट के तौर पर डीईजी का इस्तेमाल करती हैं। प्रोपीलीन सुरक्षित है, लेकिन काफी महंगा है। डीईजी गुर्दे, यकृत, तंत्रिका तंत्र को गंभीर नुकसान पहुंचाता है। बच्चों में इसके शुरुआती लक्षण ये हैं कि उन्हें उल्टी, पेट दर्द और कम पेशाब की शिकायत होने लगती है।
अंतत: गुर्दे फेल हो जाते हैं और मौत हो जाती है। यह कोई पहला हादसा या त्रासदी नहीं है। 2022 में जांबिया में 70 बच्चों की मौत हो गई थी। भारतीय कंपनी के कफ सिरप को आरोपित किया गया। उज्बेकिस्तान में भी 65 बच्चे कफ सिरप पीने के बाद मर गए। भारतीय कंपनी को त्रासदी का जिम्मेदार माना गया। 2020 में जम्मू-कश्मीर में कफ सिरप पीने से 12 बच्चों की मौत हो गई थी। उस हादसे की फाइलें धूल फांक रही होंगी, क्योंकि उसके पांच साल बाद यह त्रासदी सामने आई है। यदि आप सोचेंगे कि इन त्रासदियों ने भारतीय व्यवस्था और अधिकारियों की आत्मा को झकझोर दिया होगा, तो आप गलत सोच रहे हैं। 1986 में मुंबई में 14 बच्चे मारे गए। 1998 में करीब 150 बच्चे दिल्ली के कलावती सरन बाल अस्पताल में दाखिल कराए गए, सभी के गुर्दे गंभीर रूप से प्रभावित हुए थे, अंतत: 33 की मौत हो गई। गुरुग्राम की एक कंपनी को ‘हत्यारा’ आरोपित किया गया। दरअसल भारतीय फार्मा कंपनियों पर, जहरीले, दूषित कफ सिरप के कारण मासूमों की जान लेने के, निरंतर आरोप लगते रहे हैं। ऐसी वैश्विक बदनामी झेलने के बावजूद उन्होंने सबक नहीं सीखा अथवा उन्हें सरकार द्वारा बाध्य नहीं किया गया। तमिलनाडु और मप्र की जांच रपटें सामने आई हैं, जिनके निष्कर्ष हैं कि 46 फीसदी तक डीईजी का उपयोग किया गया, जबकि एक शीशी में 0.1 फीसदी मात्रा का ही आदेश और कानून है। भारत में कफ सिरप का 5.2 अरब डॉलर का बाजार है। अनुमान है कि 2032 तक यह बाजार 7 अरब डॉलर से अधिक का हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बार-बार डीईजी और ईजी को लेकर चेतावनी दी है। सरकारों से निगरानी बढ़ाने, घटिया दवाओं को हटाने या प्रतिबंधित करने और दवा आपूर्ति चेन पर कड़ी जांच करने के आग्रह किए गए हैं। उनके बावजूद यह त्रासदी हमारे सामने है। गौरतलब यह है कि ऐसी हरेक त्रासदी विदेशी बाजार में हमारी जेनेरिक दवाओं की प्रतिष्ठा को संदेहास्पद बनाती है। सरकार को भर-भर कर डॉलर चाहिए, लिहाजा ऐसी त्रासदियां कुछ दिनों के बाद ‘अतीत’ बन जाती हैं। दवा के नाम पर जहर बनाना और बेचना, दोनों अपराध माने जाते हैं। इस मामले में ऐसी कार्रवाई होनी चाहिए कि भविष्य में दोबारा ऐसी घटना न हो।
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