दीपावली हर्षोल्लास का पर्व
-संजय गोस्वामी-

दीपावली हर्षोल्लास का पर्व है क्योंकि यह बुराई पर अच्छाई, अंधकार पर प्रकाश और अज्ञान पर ज्ञान की विजय का प्रतीक है। इस दौरान लोग दीपक जलाते हैं, घरों को सजाते हैं, और मिठाइयाँ और उपहारों का आदान-प्रदान करते हैं, जिससे त्योहार खुशी, उत्साह और समृद्धि से भर जाता है। यह भगवान राम की रावण पर जीत, भगवान कृष्ण द्वारा नरकासुर का वध और धन की देवी लक्ष्मी की पूजा से भी जुड़ा है। हर्ष और उल्लास के कारण: बुराई पर अच्छाई की जीत: यह त्योहार भगवान राम के 14 साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटने और रावण पर उनकी जीत की याद दिलाता है। रोशनी का उत्सव: दिवाली को रोशनी का पर्व भी कहते हैं, जहाँ घरों और सड़कों को दीपों और रोशनी से जगमगाया जाता है, जो अंधेरे पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है। धार्मिक महत्व: इस दिन धन की देवी लक्ष्मी और भगवान गणेश की पूजा की जाती है, जो समृद्धि और सौभाग्य लाते हैं। यह भगवान महावीर के निर्वाण से भी जुड़ा है। सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ: लोग नए कपड़े पहनते हैं, रिश्तेदारों और दोस्तों से मिलते हैं, उपहार देते हैं और एक-दूसरे को बधाई देते हैं। आतिशबाजी और मनोरंजन: आतिशबाजी और पटाखे खुशी का एक हिस्सा हैं, हालांकि इनका सुरक्षित उपयोग आवश्यक है। समृद्धि का प्रतीक: यह त्योहार धन और समृद्धि से जुड़ा है, और लोग मानते हैं कि दिवाली के दौरान माँ लक्ष्मी का घर में आगमन होता है।
दीपावली का पर्व तब पडता हैं जब सूर्य चंद्र दोनो शुक्र की राशि तुला में होते हैं और प्राय: शुक्र भी तुला मे होते हैं। तो प्राय: सूर्योदय के समय तुला लग्न मे सूर्य चंद्र व शुक्र विद्यमान रहते हैं। अब जन्म लग्न देह का कारक हैं, चन्द्रमा मन का और सूर्य आत्मा का। तो जब सूर्य लग्न का स्वामी व चंद्र लग्न का स्वामी व जन्म लग्न का स्वामी एक साथ एक ही स्थान पर हो और अधिष्ठित राशि का स्वामी भी वहीं हो तो ऐसा योग पूर्णता: प्रदान करने वाला योग होता हैं। ऐसा जातक जीवन मुक्त हो जाता हैं। पर किस विधि से? अधिष्ठित राशी स्वामी की उपासना से। अब कार्तिक अमावस्या (उत्तर भारतीय) को प्राय: ऐसा होता हैं। सूर्य व चंद्र दोनो शुक्र की राशि में ही होते हैं तो उनका स्वामी शुक्र होता हैं और वह भी उसी राशि मे स्वराशी का होता हैं। तो शुक्र की उपासना से एक साथ सारी साधना हो जाती हैं जो स्वर्गापवर्गदा कही जाती हैं। अब शुक्र की उपासना से अभिप्राय उसके स्वामी देव की उपासना से हैं। तो शुक्र का स्वामी कौन? प्राचीन मत से इन्द्राणी (यही आचार्य वराहमिहिर ने लिखा हैं बृहज्जातक में) इन्द्राणी कौन? जो इंद्र की अर्धान्गिनी वा सहचरी हैं वह। तो इंद्र कौन? वही जो परम उपास्य हैं अर्थात ईश्वर और इन्द्राणी अर्थात उसकी शक्ती पृकृति जिसे श्री कहते हैं। वेद के मंत्रो मे ईश्वर की उपासना इंद्र सम्बोधन से सर्वाधिक हैं। अब शक्ती के कयी रूप हैं तो लक्ष्मी भी शक्ती का ही रूप हैं। तो शक्ती की उपासना की जाती हैं जिस से एक ही साधना से सारे कार्य सिद्ध हो जावें। दीपावली को कालरात्रि कहा जाता हैं। रुद्र द्वारा एक बाण से त्रिपुर का वेध हो या त्रिपुष्कर योग जैसे शब्दों का प्रचलन हो या त्रिलोक विजय जैसी उपमा हो या और भी बहुत कुछ संकेतक कथानक व सूत्र इसी से सम्बंधित व संदर्भित होते हैं। सिंह लग्न व वृष लग्न काल मे पूजन साधन का विधान भी इसी कारण हैं कि दोनो लग्नो के स्वामी शुक्र से युत या शुक्र स्वयं ही होकर स्थान भेद से वही योग निर्माण कर देते हैं। इसलिये दीपावली पूजन का विधान अमावष्या को ही होता हैं। अमावष्या अर्थात वह कालावधि जब चन्द्रमा(मन) सूर्य(आत्मा) के (अंशो की गणना से) अधिकतम निकट जा रहा हो। जब दोनो एक ही अंश पर मिल जाते हैं तो अमवष्या पूर्ण हो जाती हैं। और तब प्रथमा स्पर्श होता हैं जब चन्द्रमा सूर्य से आगे निकल जाता हैं। अर्थात मन आत्मा को छोड़कर आगे बढ़ जाता हैं। जीवन की सारी साधना आत्मोपलब्धी की ही हैं न कि आत्मविसमृती की। इसलिये उपासना अमावष्या में ही होनी चाहिये। इसी हेतू लक्ष्मीपूजन चतुर्दशी की रात्रि में तब कर दिया जाता हैं जब अमवष्या लग गयी हो जबकि उद्यात अमवष्या आगामी दिवस को होती हैं पर रात्रि मे उस समय तक यदी अमवष्या न रहे तो व प्रयोजन नही रखती। कालरात्रि की उपासना उसी रात्रि मे उसी समय की जाती हैं जब अमवष्या तिथि हो व चन्द्रमा सूर्य के निकट जा रहा हो न कि सूर्य से दूर जा रहा हो। उपासकों व साधकों के चिंतन मनन हेतू यह विचार प्रस्तूत किया हैं जिस से विषय को समझने को एक आधार मिले। अस्तु प्रत्येक वर्ष ऐसे योग नही बन पाते हैं। पर कम से कम चंद्र सूर्य की और बढ रहा हो इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए।
(यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है)
सियासी मियार की रिपोर्ट
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