अधूरी किताब, रुके हुए सपने..

छोटी‑सी वो लड़की है,
मन में स्कूल बसाए,
लेकिन घर के कामों ने,
उसके पंख कतराए।
सुबह‑सुबह वो बैग उठाकर
दहलीज़ पे रुक जाती है,
माँ की आवाज़ – “पहले काम” –
सुन‑सुन के थक जाती है।
ब्लैकबोर्ड और खड़िया वाली
वो पहली प्यारी कक्षा,
अब रसोई के धुएँ में खोकर
बन गई बस एक इच्छा।
सहेली साइकिल से जाती है
स्कूल की हँसती राहों पर,
और ये बर्तन, झाड़ू, रोते बच्चे
बाँधें इसकी चाहों पर।
दीवारों पर नारा लिखा है –
“बेटी पढ़े तो देश बढ़े”,
पर इसकी कॉपी के सारे पन्ने
बस अलमारी में ही पड़े।
रात को जब सब सो जाते हैं,
ये चुपके कॉपी खोलती है,
अपने ही नाम को छू‑छू कर
भीतर हौले से बोलती है।
सोचती है, काश किसी दिन फिर
स्कूल की घंटी यूँ बजे,
मेरा भी नाम पुकारे कोई –
“आ जा, आज देर न हो तुझे।”
सपनों से वो वादा करती –
एक न एक दिन भोर आएगी,
मेरी नहीं, पर मेरी जैसी
कोई लड़की ज़रूर पढ़ पाएगी।
— डॉ. प्रियंका सौरभ
सियासी मियार की रीपोर्ट
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