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बेटी का ब्याह..

बेटी का ब्याह..

दिल और दिमाग दोनों भारी लग रहे थे कैसे क्या होगा? यह सोचकर ही कांप जाता। सूरज पूरब से पश्चिम की ओर चला गया। लालिमा ने उसे चारों तरफ से घेर लिया। लाल, लाल सूरज एकदम शांत है, जैसे साधना सफल हो रही है। ऐसा सकून परोपकार के बाद ही प्राप्त होता है। क्या मुझे भी शान्ति मिलेगी। बरखू ने आसमान की ओर निहारा। बस पांच मिनट की जिन्दगी है और शेष है उसके बाद…..।

गुलबिया बप्पा चाय! अम्मा कह रही हैं नमक मंगवा दो। कहकर खड़ी हो गयी। छोटंकी की तबियत जब से खराब हुई है, तब से तंगी और बढ़ गई है। ऐसे में क्या करे आदमी? कैसे जिये? खैर आज की रात और उसके बाद ठाठ ही ठाठ। बरखू ने चाय ले ली। नमक मन में दोहराया। जेब में सिर्फ एक रुपये का ही नोट पड़ा था। निकालकर गुलबिया के हाथ पर रख दिया। टोर्रा वाला ले आना। वह चली गई।

बरखू ने चाय की चुस्की ली। तुलसी, अदरख, कालीमिर्च, अजवाइन और ज्वरांकुश का स्वाद मुंह में समा गया। सर्दी-खांसी में ऐसी चाय अमृत तुल्य होती है। कई दिनों से तबियत खराब चल रही थी, पर इतने रुपये भी नहीं हो पा रहे थे, कि दवा-दारु का इंतजाम कर सके। सर्दी-जुकाम तो सुरुवा पीने से चली जाती है, पर अब वे दिन कहां? कभी सर्दी में रोज एक टाइम गोस्त पका करता था और अब सालाना, छमाही भी नसीब नहीं होता था। साग-तरकारी ही नहीं जुर पाती, फिर यह सब…।

निगाह फिर सूर्य पर जा टिकी दो घड़ी और बचे थे काल कवलित होने में। श्वेत परत धीरे-धीरे स्याह होती जा रही थी। सूर्य क्षणप्रतिक्षण धुंधला पड़ता जा रहा था। ये-ये-ये लो डूब गया सूरज। हल्की गोल परछाई सी दिख रही थी बस। कुछ देर बाद निशान भी गायब हो गया। अब लाख कोशिश करने पर भी उसकी परछाई दिख नहीं रही थी। बादलों की दौड़-धूप अभी भी चल रही थी। मुसीबत का सूर्य इतनी आसानी से नहीं डूबता। बेइमानी कभी समाप्त नहीं होती। मक्कारी की जड़ कभी नहीं उखड़ती। अंधेरे में रास्ता खोजना बड़ा मुश्किल होता है। सुख और दुःख के बीच का झीना परदा दिन और रात के बीच के आसमानी परदे से ज्यादा मोटा होता है। घर में अन्न के लाले थे। गुलबिया भी घास-फूस सी बढ़ गई। एक को भेजा नहीं दूसरी तैयार। फूलों की डोली में कांटों की सेज। दहेज भी खूब लगता है अब। पहले की बात और थी, जब दो जोड़े कपड़े में ही ब्याह हो जाता था। रानी के बाप ने क्या दिया था आखिर? पुंजी लेकर आ गए थे। हमें भी तो कोई और लालसा न थी। रानी सी रानी नौकरानी से बत्तर हो गई। चारों बेटियों को ब्याहने के बाद अब तो कुछ शेष न बचा था। धन-मवेशी सब समाप्त हो गया था। घर तक बिक गया इन्हीं बाल-बच्चों के चक्कर में। आन, बान, शान, स्वाभिमान शेष था और आज रात वह भी…..।

जंगल से लकड़ियां काट-काटकर झोपड़ी तैयार की थी। अब तो इसका भी नम्बर आ गया, किन्तु इस टुटही मड़इया को खरीदेगा कोई नहीं। गुलबिया का ब्याह कैसे होगा राम जाने…….., अरे सब होगा……। धूम-धाम से होगा, बस आज की रात और। कल रात गुलबिया की महतारी से बड़ी बहस हो गई थी। उसने सारा दोष बरखू पर मढ़ दिया था। अगर पहले से ख्याल रखते तो क्यों ये दिन देखने पड़ते। छटंकी की दवा भी नहीं करा सकते हम।

क्या कहती हो, कुछ होश है।

हां सब होश है। कायर, डरपोक तुम भी कोई आदमी हो। एक रुपये का पर्चा और हफ्ते भर दवा…….. खाक फैदा करेगी।

तुम कहना क्या चाहती हो?

वही जो तुम समझ रहे हो।

क्या? मतलब मैं जानवर…।

नहीं! जानवर तो फिर भी अपना पेट भर लेते हैं। तुम तो अपने लिए भी।

बरखू ने चटाक से चाटा रसीद कर दिया।

दिन बीत चुका था। रात आने वाली थी। सांझ का धुंधलका गाढ़ा होने लगा था। बरखू ने अपना कम्बल लिया और कम्पनी चला गया। वैसे यह बात सच थी कि वह अपने भर का भी नहीं कमा पा रहा था। अगर गुलबिया और उसकी मां कन्डे न पाथें और कढ़ाई न करें तो एक जून की रोटी भी मुहाल हो जाए। तीन माह से तनख्वाह नहीं मिली थी। कम्पनी में लगातार घाटा होता जा रहा था। काम रोज होता था। माल भी खूब बिकता था, पर पैसा तिराता ही न था।

चौकीदारी करते-करते कचुआ गया था वह। इधर रात ने कोहरे की सफेद चादर ओढ़ी और उधर बरखू ने काला कम्बल ओढ़ लिया। आसमान में बदली अभी तक छाई हुई थी। कूड़े-करकट से आग जला रखी थी, जब लौ तेज होती तो देह में गर्मी आ जाती और बुझने पर शरीर फिर बर्फ हो जाता। सोचते विचारते बारह बज गए। दिल की धड़कन तेज हो गई। एक घंटे बाद सब कुछ बदल जाएगा। आदमी जीते जी कैसे मुरदा हो जाता है, उसका अनुमान अभी से लग रहा था। ऊपर वाले से क्या कुछ छुप सकता है, पर मजबूरी है….। अकेला होता तो अलग बात थी….। बाल-बच्चों के लिए तो…।

काश ये ठंड सुबह तक मुझे ठंडा कर देती। हे ईश्वर अब इस देह से मुक्ति दिला दो। कहां तक सहूं दुनिया के जुल्म? यहां मालिक की सुननी पड़ती है और घर में बीबी-बच्चों की। तू सुबह का सूरज मुझे मत दिखाना।

आदमी बीबी-बच्चों के लिए क्या नहीं करता? जान तक दे देते हैं लोग। मन का कोई भरोसा नहीं रहता कि कब किधर भाग जाए। जान देना और बात है, ईमान देना और। आत्मा को मारकर जीना भी कोई जीना है। वे लोग अभी आ रहे होंगे। क्या करूं? अगर आज नहीं देखता हूं तो कल बच्चों के लिए भी कुछ न कर पाऊंगा। बिना लेन-देन के कोई ठीक-ठाक घर भी तो नहीं मिलता। लाड-प्यार से पाली बेटी को भला कैसे अनाप-सनाप झोंग दें? आखिर मां-बाप की जिम्मेदारी भी तो होती है कुछ। बिना दहेज की लड़कियां रोज जलाई फूंकी जा रही हैं। आत्महत्या की खबरें भी सुनाई पड़ती हैं। इन सबसे मन विचलित हो गया। मैं अपनी बेटी को बेवजह मरने नहीं दूंगा। ईमानदारी जाए भाड़ में। दिया भी भला क्या है इस मुई ईमानदारी ने। पेट भर भोजन भी नहीं नसीब होता। कम्पनी रहे या मिटे मेरी बला से। वैसे भी मालिक पैसे वाला है। कई कम्पनियां चल रही हैं। इसे क्या परेशानी हो सकती है?

बरखू ने पक्का इरादा कर लिया कि वह अपना फर्ज निभायेगा। बीबी-बच्चों की देख-रेख करना अत्यन्त आवश्यक है। मैं अपने धर्म को नहीं छोड़ सकता। कौन ऐसा है जो सदा सच बोलता है? वास्तव में कोई सच्चा नहीं है, सब झूठे हैं।

टन्न…रात एक बजे का घंटा लग गया। चारों तरफ सांय-सांय हो रहा था। हृदय की गति तीव्र हो गई। असमंजस अभी दूर नहीं हुआ था। बाल-बच्चों के ताने भी याद आ रहे थे। दिमाग में फिरकी सी घूम रही थी। बप्पा कभी जलेबी लाना….। टूटी थाली से दाल बह जाती है…। तवा छन्नी हो गया है….। काश पशमीना शाल होता, तब सर्दी फटकने न पाती।

बीबी-बच्चों के तार-तार होते कपड़े और सूनी आंखें उसकी आंखों में नाच गए।

भर्र..। बाहर गाड़ी आ गई। जाकर गेट खोलूं या रहने दूं।…. छोड़ो… कह दूंगा… सो गए थे।

बरखू। आवाज आई। बरखू।

बरखू चुपचाप बैठा रहा।

बरखू मैं दशरथ।

हां आते हैं भाई, काहे गला फाड़ रहे हो। गेट खोला ट्रक भीतर आ गई। दशरथ ने अपने चेले को ताला तोड़ने में लगा दिया। अरे ठहरो तो जरा।

क्या ठहरे? दुविधा में मत पड़ो। अपना परिवार देखो। बाकी सब उसके भरोसे छोड़ दो।

बरखू सोच में डूब गया। अब सारे दुख दूर हो जाएंगे। छटंकी और गुलबिया की फीस अब न बाकी रहेगी। स्कूल में फिर से नाम लिखवा दूंगा। साहबों की झिड़कियों से भी छुटकारा मिल जाएगा। सारा परिवार खुश हो जाएगा।

शटर खुल गया। माल लादा जाने लगा। क्या यह पाप नहीं है?… परिवार के लिए पाप…. वाल्मीकि के परिवार वालों ने उनके पाप को वहन नहीं किया था…. क्या मेरे बच्चे मेरा…. नहीं नहीं…। कोई किसी का नहीं होता। सब स्वार्थवश ही तो साथ रहते हैं। कौन बड़ी चाहत है? हमेशा हाय-हाय…।

दशरथ ने कांधे पर हाथ रखा। घबराओ मत बरखू तुम्हारा बाल भी बांका न होगा। अभी तुम्हें रस्सी से बांध-बूंध देंगे। मुंह पर टेप चिपका देंगे।

पुलिस आएगी तब।

तू घबराता क्यों है बरखू। तू कह देना अंधेरे में चेहरा देख नहीं पाए। चारों ओर काला कोहरा छाया था। मार-पीट कर बांध दिया। बाकी रो-धो देना। बहुत ज्यादा नौकरी छूट जाएगी, तो चिन्ता मत करना, कहीं और सेट करा देंगे।

भाई मेरा जी तो धक्-धक् कर रहा है।

वह तो करेगा ही। पहली बार है न। बाद में सब ठीक हो जाएगा। पचास हजार की रकम कोई मामूली थोड़े है। राज करना आराम से। जिन्दगी के खूब लुत्फ उठाना। राजाओं की तरह ठाठ से जीना। बेटी का ब्याह धूम-धाम से करना। बीबी के लिए जेवर गढ़वाना। पैसा बोलता है। आज के बाद तुम्हारा जीवन बदल जाएगा।

बरखू का मन स्थिर नहीं हो रहा था। कभी यह सब ठीक लगता और कभी गलत। ऊंट किसी एक करवट चैन से न बैठ रहा था। चाय की केतली के समान ही विचारों का उबाल बार-बार आ रहा था। काम भी शुरू हो चुका था। बिश्वास का खजाना लुट रहा था। उसूलों की जंजीर टूट रही थी। बेगैरत का पट्टा गले में कसता जा रहा था। बरखू का सिर भारी हो रहा था। जी मिचलाने लगा। वह कुछ समझ नहीं पा रहा था। आधी से ज्यादा ट्रक भर चुकी थी। बरखू छोटा गेट खोलकर बाहर निकल आया। सर्दी में भी गर्मी लगने लगी थी। माथे से पसीना बह रहा था। बाप, दादाओं की इज्जत आबरू दांव पर लग चुकी थी। ईश्वर सब देखता है और उसके अनुसार ही फल देता है।… पर आज जमाना बदल चुका है। मन में तर्को-वितर्कों की आंधियां चल रही थीं ।

दशरथ ने अपना काम निपटाया और बरखू को खोजने लगा। ससुरा जाने कहां मर गया? लगता है मुझे भी फंसवायेगा। इधर-उधर देखकर कहां गया रे? ओ बरखू के बच्चे। तभी बरखू ने छोटे गेट से प्रवेश किया। दशरथ बोला-कहां चला गया था तू? चल गेट खोल कर उधर आ तुझे बांध-बूंध दूं। वरना पुलिस वाले तेरी अच्छी-खांसी हजामत बना देंगे।

मेरी फिक्र न करो भाई। अपनी खैर मनाओ।

मतलब दशरथ चौक पड़ा।

तभी पुलिस वाले सामने आ गए। मैनेजर के बच्चे? चोरी करता है। दरोगा ने तड़ातड़ दो चाटे जड़े। दशरथ थर-थर कांप रहा था, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। सारे लोग पकड़ लिए गए। कम्पनी का मालिक भी आ गया था। उसने पूछा-तुमने इनका साथ क्यों नहीं दिया?

बरखू ने जवाब दिया-आपके विश्वास और अपने जमीर को जिन्दा रखने की खातिर।

पुलिसिया कार्यवाही हो चुकी थी। बरखू घर लौट रहा था। सुबह का लाल-लाल सूरज निकल रहा था। कोहरे की चादर छट रही थी। सूर्य की रोशनी बढ़ती जा रही थी। बरखू ने आसमान की ओर देखा और मुस्करा पड़ा जैसे मन का फूल विकसित हो गया हो।

सियासी मियार की रिपोर्ट