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शिक्षक दिवस (5 सितम्बर) पर विशेष : शिक्षाविद और कुशल प्रशासक थे-डॉ राधाकृष्णन…

शिक्षक दिवस (5 सितम्बर) पर विशेष : शिक्षाविद और कुशल प्रशासक थे-डॉ राधाकृष्णन…

डॉक्टर राधाकृष्ण के पूर्वज मद्रास के निकट गांव सर्वपल्ली में निवास करते थे यही से उक्त ब्राह्मण परिवार आजीविका की तलाश में तिरुंतणी गांव में आकर बस गया था। इसलिए राधा कृष्ण का नाम सर्वपल्ली राधाकृष्णन पड़ा। इनके पिता श्री वीर स्वामी उइया पुरोहिताई करते थे। इस कार्य के अंतर्गत वह शिक्षा, धार्मिक उपदेश व दीक्षा देते थे। राधा कृष्णन का जन्म 5 सितंबर 1888 को हुआ था। इनकी मां का नाम सीताम्मा था। ये आपस में पांच भाई बहन थे, इनके माता-पिता धनी तो नहीं थे किंतु इतने निर्धन भी नहीं थे। इसका स्पष्ट कारण यह था कि इनके पिता स्थानीय जमीदार के राजपुरोहित थे। फिर भी राधाकृष्णन ने स्वयं के बलबूते पर ही अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया। राधा कृष्णन की 12 वर्ष तक की प्रारंभिक शिक्षा इनके पिता की देखरेख में गांव में ही रहकर हुई। 1903 में 16 बर्ष की आयु में सिवाकामू के साथ हुआ था। इसके पश्चात उनके पिता जब तिरुंतणी गांव में जाकर बस गए। तो उनका परिचय यहां ईसाई मिशनरियों से हुआ। इन मिशनरियों ने बाद में राधाकृष्णन को पश्चिम ज्ञान अर्जित कराया। क्रिश्चियन स्कूल में तालीम के कारण इन्हें अंग्रेजी विषय का अच्छा ज्ञान हो गया। साथ ही बाइबल भी कंठस्थ हो गई। पुस्तकों का अध्ययन इनकी आदत बन गई। वेल्लोर के वूर हीज कॉलेज में उन्होंने स्कूली शिक्षा ग्रहण की और इसके पश्चात मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिला लिया। यहां उनके सहपाठियों में पंडित कृष्णा स्वामी अय्यर थे जो आगे चलकर भारतीय संविधान निर्माण समिति के सदस्य बने राधा कृष्णन। अपनी सभी कक्षाओं में सदैव प्रथम स्थान प्राप्त करते रहें। मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिले से उनका संपर्क ईसाई मिशनरियों से तो बढ़ा। परंतु जब मिशनरियां पुरानी भारतीय रीति-नीति को सड़ा गला घोषित कर व तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करती तो वे काफी आहत हो उठते थे। उन्होंने एम. ए में दर्शन शास्त्र विषय को इसलिए चुना क्योंकि विवेकानंद जी से वे काफी प्रभावित थे। 20 वर्ष की आयु में राधा कृष्णन ने अपना प्रथम निबंध निबंध दि इथिक्स आफ दि वेदांत लिखा। उक्त लेख पर दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक ए जी हाग की प्रतिक्रिया थी। एम ए की परीक्षा के लिए विद्यार्थी ने जो निबंध प्रस्तुत किया है। उससे यह प्रमाणित होता है कि छात्र दर्शन शास्त्र के मुख्य सिद्धांतों से पूर्णता परिचित है और उसे सब कुछ कंठस्थ याद है। जटिल तर्कों को वह उपयुक्त व सहज ढंग से प्रस्तुत करने की क्षमता रखता है। इन सबके अलावा उसका अंग्रेजी भाषा पर भी प्रभुत्व होना राधाकृष्णन की विलक्षण प्रतिभा को दर्शाता है। हमारे देश में सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन 5 सितंबर को प्रतिवर्ष शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। उस दौर में मद्रास राज्य में शिक्षा सेवा के लिए एल टी होना जरुरी था। इसलिए उन्होंने टीचर्स कॉलेज। सैदापेठ में वर्ष 1910 में दाखिला लिया। यहां भी उनकी विलक्षण प्रतिभा से सब लोग आश्चर्यचकित चकित थे।
जब एल टी परीक्षा की तैयारी के लिए टीचर्स कालेज के प्रोफेसर ने अन्य छात्रों के लिए राधाकृष्णन से व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए कहा। तो उन्होंने कुल तेरह व्याख्यान दिए। राधा कृष्णन के इस व्याख्यान पर स्वयं एम के रंगास्वामी अयंगर की प्रतिक्रिया थी। राधाकृष्णन के व्याख्यानों में विषय की गहराई। वाग्मिता। परिष्कृत शैली। शब्दों के सुंदर चयन ने सबका मन मोह लिया। वर्ष 1911 में राधाकृष्णन ने कालेज की औपचारिक शिक्षा पूरी कर ली। उन्होंने अब तक की सभी परीक्षाएं विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की थी। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि ज्ञान तभी प्राप्त होता है। जब गुरु के प्रति निष्ठा व भक्ति हो। विनम्रता की प्रतिमूर्ति राधाकृष्णन ने इस तथ्य पर पूरी तरह अमल किया। वह मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर डॉ ए जी हाग के प्रिय छात्रों में से एक थे। गुरु के प्रति उनके जहन में अगाध प्रेम और निष्ठा थी।
जब कि दूसरी ओर मिशनरियों द्वारा हिन्दू धर्म की भ्रामक तस्वीर पेश करना उन्हें काफी आहत कर देता था। इस प्रसंग को उन्होंने सकारात्मक रूप में लिया और अपने ज़हन
में यह निश्चय कर लिया कि वह एक दिन अवश्य ही हिंदू धर्म के सही मर्म से मिशनरियों को रुबरु कराएंगे। ताकि हिन्दू धर्म के प्रति जो ग़लत धारणाएं उन्होंने पाल रखी थी। उनसे वे उबर सके। राधाकृष्णन का यह संकल्प उनकी गुरुभक्ति में न तो बाधक था और न ही उनकी गुरु निष्ठा में कोई कमी ला सका। राधा कृष्णन किसी धनी परिवार से नही थे वे निर्धनता से अच्छी तरह वाकिफ थे। छात्र जीवन में वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर अपनी ज़रूरतों को पूरा करने का प्रयास करते रहते थे। आर्थिक रुप से सक्षम हो जाने पर भी उनमें अहंकार नहीं आया। यदि कोई छात्र अपनी किसी भी प्रकार की असमर्थता उनके समक्ष जाहिर करता। तो वह उसे हर हालत में पूरा करने का प्रयास करते। जब वे भारत के उपराष्ट्रपति एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के उपकुलपति थे। तो कलकत्ता विश्वविद्यालय के एम ए( दर्शन शास्त्र) के एक छात्र ने उन्हें खत लिखा। इस खत में उसने लिखा पैसों के अभाव की वजह से आपकी पुस्तक इंडियन फिलासफी क्रय करने में असमर्थ हैं। लेकिन इस सबके बावजूद भी में इस पुस्तक को पढ़ना चाहता हूं। आपकी बहुत बहुत कृपा होगी यदि आप मेरी परीक्षा तक अपनी पुस्तक की एक प्रति भिजवा दें। परीक्षा समाप्त होते ही आपकी पुस्तक लौटा दूंगा। पत्र पढ़ते ही राधाकृष्णन ने तत्काल पुस्तक उक्त छात्र को इस खत के साथ भिजवा दी कि अब इसे लौटाने की जरूरत नहीं है। राधाकृष्णन बालकाल से ही संकोची स्वभाव के थे। इसी वजह से उनके मित्र काफी कम लोग बन पाते थे। वे अपनी इस आदत से ताउम्र मुक्त नहीं हो सके। अध्यापक बनने के पश्चात् जब उन्हें छात्रों को पढ़ाने के लिए कमरे में उपलब्ध नहीं होते। तो वे बिना किसी संकोच के छात्रों को गलियारे में ही पढ़ा दिया करते थे। कालेज की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात राधाकृष्णन मद्रास के प्रेसीडेंसी कालेज में शिक्षक नियुक्त हुए। सन् 1911मे जब उन्होंने दर्शन शास्त्र के साथ साथ वैकल्पिक विषय के रुप में गणित भी ले रखा था। मगर उन्होंने कही भी यह प्रकट नहीं किया। हालांकि उनके व्याख्यानों में कभी-कभी इसकी छाप अवश्य दिखाई दे जाती थी। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह गणित विषय को लेकर कुशल इंजीनियर आदि बन सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। पश्चिमी देशों को भारतीय धर्म एवं दर्शन से रूबरू करने का श्रेय राधाकृष्णन को ही जाता है। राधाकृष्णन की वाणी का ही प्रभाव था कि उनकी आवाज हिन्दुस्तान से बाहर भी पहुंच गई। अवसर के अनुसार सही शब्दों का चयन भावों को व्यक्त करने की विलक्षण प्रतिभा तर्क एवं आत्मिक भावों के मध्य तालमेल बिठाना। राधाकृष्णन ने हिन्दुस्तान सहित। की एशियाई देशों और यूरोप में अध्ययन किया। उन्होंने अपने जीवन काल के 41बर्ष शिक्षा के क्षेत्र में गुजारे। उक्त क्षेत्र में उन्होंने नई नई ऊंचाई को छुआ। शिखर पर पहुंचने के बाद भी शिक्षा के प्रति उनके लगाव को साबित करने के लिए यह उदाहरण ही काफी है जब वे लंदन में हाई कमिश्नर थे। उस दौरान भी वे शिक्षण कार्य करते थे। शिक्षक और प्रशासक। दोनों का ही उन्हें बेहतर अनुभव था। राधा कृष्णन की सबसे बड़ी बात यह क्रिश्चियन कॉलेज में अंग्रेजी भाषा में तालीम ग्रहण करने के बाबजूद उन्होंने अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित और सादगीपूर्ण बनाए रखा। वे शाकाहारी होने के साथ साथ वेशभूषा में भी भारतीय संस्कृति के हिसाब से रहती थी। राधाकृष्णन सदैव कोट, शेरवानी, पगड़ी ही धारण करते थे। इस संबंध में उनका कहना था दूसरे का वस्त्र पहनने की अपेक्षा स्वयं का आवरण धारण करना उचित रहता है। भोजन, वस्त्र में वे हमेशा हिन्दुस्तानी परंपराओं को निभाते रहे। राधाकृष्णन पर विश्व बंधुत्व के प्रतीक स्वामी विवेकानंद का काफी प्रभाव पड़ा। राधाकृष्णन तेज बुद्धि के तो थे ही। वह कुशल प्रशासक भी थे। वे अनेक विश्वविद्यालयों के कुलपति रहे। जब वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति थे और 1926 में जब आंध्र विश्वविद्यालय असितत्त्व में आया तो वे उसके भी कुलपति बने। डां राधा कृष्णन में रचनात्मक लेखन प्रतिभा कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने चालीस से भी ज्यादा ग्रंथ लिखे और150से भी अधिक पुस्तको का संपादन भी किया। इंडियन फिलासफी के दोनों भागों की रचना ने उन्हें जग में ख्याति दिलाई। धर्म की व्याख्या वे इतिहास के आधार पर करते थे। जब बनारस में प्रथम एशियाई शिक्षा सम्मेलन आयोजित किया गया। उसके अध्यक्ष डॉ राधाकृष्णन बने। उनकी विलक्षण स्मरण-शक्ती से चकित रह गए। यह विलक्षण प्रतिभा तब फिर साबित हुई जब अन्नामलाई विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में भाषण देने के पहले ही पत्रकारों ने उनसे भाषण की प्रतिलिपि मांगी। चूंकि तब तक वह टाईप की हुई प्रति उपलब्ध नहीं थी। उन्होंने पत्रकारों को मौखिक रूप से ही उन्हें अपना भाषण बोलकर लिखवा दिया। हालांकि पत्रकारो को भरोसा नहीं हुआ और उन्होंने उनके पहले भाषण की प्रति जो एसोसिएट प्रेस को भेजी गई थी। से मिलान किया तो बिल्कुल ही हाउ बहू पाया। राधाकृष्णन की इस विलक्षण स्मरण शक्ति को देखकर सभी पत्रकार आश्चर्यचकित रह गए। डॉ राधाकृष्णन के राष्ट्रपति चुने जाने के पश्चात विश्व के चिंतकों ने हिन्दुस्तान के नागरिकों को बधाई के बधाई दी थी। इसकी अहम वजह थी। उन्होंने एक चिंतक को हिंदुस्तान के सर्वोच्च पद का दायित्व सौंप दिया था। उल्लेखनीय है कि उनके राष्ट्रपति चुने जाने के पश्चात समूचे विश्व में एक नई आशा एवं विश्वास का संचार हुआ। हिन्दुस्तान ने शासन की बागडोर एक ऐसे व्यक्ति के हाथों में सौंप दी थी। हक़ीक़त में विश्व घटना चक्र पर यदि नजर डालें तो यह दूसरा मौका था। जब किसी शिक्षक एवं दार्शनिक को मुल्क का नेतृत्व सौंपा गया था। राधाकृष्णन से पहले अमेरिका में राष्ट्रपति पद की बागडोर वहां के एक शिक्षक वुडरो विल्सन को दी गई थी। 12मई1962को 78 वर्ष की आयु में राधा कृष्णन हिन्दुस्तान के राष्ट्रपति पद की बागडोर संभाली। उनका कार्यकाल काफी चुनौतियों भरा था। क्यों कि जहां एक ओर भारत के चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध हुए। राष्ट्रपति के रुप में उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाए। सतत अंग्रेजी भाषा एवं विदेश में अध्ययन कार्य करने के बाबजूद भी उन्होंने भारतीय संस्कृति की गरिमा को अक्षुण्ण रखा 1967के गणतंत्र दिवस पर डा राधाकृष्णन ने देश को संबोधित करते हुए यह स्पष्ट किया था कि अब किसी भी सत्र के लिए राष्ट्रपति नहीं बनना चाहेंगे। यधपि कांग्रेस के नेताओं ने उनसे काफी आग्रह किया कि वह अगले सत्र के लिए भी राष्ट्रपति का दायित्व ग्रहण करे। लेकिन राधाकृष्णन ने अपनी घोषणा पर पूर्ण तौर पर अमल किया।
सियासी मीयार की रिपोर्ट