Monday , September 23 2024

कविता : आसमान उदास है..

कविता : आसमान उदास है..

परत दर परत खुल रही धरती

आसमान सिकुड़ रहा नित

परत दर परत ही

धरती खिलखिला रही है

उलट पलट कर

सौंदर्य के बाह्य व्यवहार को अपने

आसमान को लुभा रही है

आसमान उदास है

भूल चुका है परिहास अपने हिस्से का

आततायी होना ही उसका इतिहास है

वह वर्तमान होना चाहता है पूरे होशोहवास के साथ

धरती इसी समय खुलती है

उतार देती है वस्त्र सब शरीर का

बादल पागल बन देखता है सौंदर्य का ज्वार

करे तो क्या करे असमंज में है परिदृश्य पूरा

कहे यदि धरती तुम सुंदर हो

समाज विलासी होने का प्रमाण देता है

न कहे कुछ

धरती नपुंसक और बंजर होने के साक्ष्य

धरती उत्पात कर रही है

आसमान सब सह रहा है अब

धरती उघार हो रही है इधर अनवरत

आसमान सुधर रहा है अब

रिश्ता अजीब है धरती और आसमान का

न इसे दुनिया समझती है न समझता है समाज

धरती जलती है तो बरसता है आसमान

नहीं चाहती धरती कि आसमान बरसे

दिखा कर रूप नग्न सौंदर्य का

वह चाहती है बादल अपना स्वभाव बदले

संभव कहाँ यह नीति आखिर

एक खुल कर बरसे और एक तरसे

सियासी मीयर की रिपोर्ट