कविता : मंच..

तब तक मंच खाली था
कुर्सियां भी सजी थीं
फूलदान रखे थे
सामने दर्शकों के लिए भी
बैठने की व्यवस्था थी
प्रचार बहुत पहले से ही किया जा रहा था
आयोजक प्रयोग कर रहे थे
अपेक्षानुरुप भीड़ भी पहुंची
एक से एक विव्दान पढ़े लिखे इंसान
वक्ता भविष्य की सोच रखने वाले उपस्थित थे
पर किसी ने भी बिन बुलाए
मंच पर बैठने की मर्यादा भंग नहीं की
कुछेक मन ही मन चाह रहे थे
लेकिन शर्म झिझक आड़े आ रहे थे।
मंच सुनसान हो रहा था
बिन दूल्हे की बारात की तरह
भीड़ भी उकता रही थी
कुछ घर के लिए उठने भी लग गये
तभी,
मंच खाली देखकर
भीड़ से कुछेक निकले
बॉहे चढ़ाते हुए
असभ्य तरीके से आकर मंच संभाला
पदासीन हुए कुर्सियां धन्य हुई
और मंच सुशोभित हुआ
उकताई भीड़ शांत हुई
व्याख्यान बनवाये गये
संबोधन शुरु हुआ
उपस्थित लोगों को
दर्शक एवं श्रोता
कहा गया…।।
सियासी मीयार की रिपोर्ट
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