Monday , September 23 2024

राज्यपाल के संवैधानिक दायित्व पर सवालिया निशान…

राज्यपाल के संवैधानिक दायित्व पर सवालिया निशान…

आजादी और गणतंत्र का दर्जा मिलने के बाद भारत में ‘राज्यपाल’ पद की स्थापना ‘राज्य के केन्द्र के प्रतिनिधि’ के रूप में की गई थी, राज्य व केन्द्र सरकारों के बीच सम्बंधों की कड़ी के रूप में राज्यपाल होते थे, जिनकी छवि पूर्णतः गैर राजनीतिक व निष्पक्ष पदाधिकारी के रूप में होती थी और इस पद पर ऐसे निष्पक्ष छवि वाले अपने क्षेत्र विशेष के विशिष्ट महानुभावों की पदस्थापना की जाती थी, जिनकी समाज व देश में निष्पक्ष व महत्वपूर्ण भूमिका रही हो, फिर वह चाहे सामाजिक क्षेत्र की महान हस्ती हो या साहित्य या किसी अन्य क्षेत्र की। अर्थात् राज्यपालों की भूमिका राज्यों की सरकारों को उचित सलाह देने और केन्द्र व राज्य के बीच में सम्पर्क माध्यम के रूप में होती थी और उस समय इस पद विशेष की अहम् भूमिका भी होती थी तथा यह पद काफी सम्मान की दृष्टि से देखा-परखा जाता था। किंतु अब समय के साथ इस पद की गरिमा में गिरावट आती गई और इस पद पर आसीन शख्स को केन्द्र सरकार का प्रतिनिधि नहीं बल्कि जासूस माना जाने लगा और राजनीतिक रूप से केन्द्र व राज्य के बीच दलीय असंतुलन इसी पद पर आसीन शख्स की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण गड़बड़ाने लगा, इसी कारण आज राज्यपाल पद एक ‘गरिमामय’ पद नही रहा, बल्कि केन्द्र की ही दलीय सरकारों के लिए ‘सहयोगी’ और केन्द्र की राजनीतिक सरकार विरोधी राज्य सरकारों के लिए ‘गैर सहयोगी’ होकर रह गया। विशेषकर जबसे इस गैर राजनीतिक पद पर राजनीतिक भूमिका वाले नेताओं की नियुक्तियां होने लगी तब से इस पद की गरिमा का ह्मस होने लगा और इसी कारण आज यह पद उतना ‘सम्मानीय’ नही रहा जितना आजादी के बाद के वर्षों में रहा, इसी कारण अब राज्य सरकारों व राज्यपालों के बीच सम्बंध विवादित हो गए।
आज इस पद को लेकर चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय को राज्यपालों की भूमिका को लेकर टिप्पणी करने का मजबूर होना पड़ा तथा राज्यपाल पद पर आसीन शख्सों को अपनी अंतर आत्मा में झांकने की सीख देनी पड़ी, विशेषकर राज्यपालों के कर्तव्यों व दायित्वों को लेकर। साथ ही राज्य की दलीय विरोधी राज्यपालों को सीख भी देनी पड़ी, सुप्रीम कोर्ट की नाराजी का मुख्य कारण राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को राजनीति के तहत् राज्यपालों द्वारा जनहित के विधेयकों को मंजूरी के बजाए अपने पास लम्बें समय रोककर रखे रहना था और इसी कारण राज्य सरकारों को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना था। सुप्रीम कोर्ट की तल्खी भरी सवालिया टिप्पणी यह थी कि राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को रोककर क्यों रखते है, विधानसभा को तो जनता ने चूना होता है, क्या राज्यपाल भी जनता द्वारा चुने गए होते है? उन्हें निर्वाचित सदन के फैसले रोकने का क्या अधिकार है? सुप्रीम कोर्ट के माननीय मुख्य न्यायाधीश का तो कथन यह था कि ऐसे मामले सर्वोच्च न्यायालय तक आना ही नहीं चाहिए, इन्हें तो मुख्यमंत्री और राज्यपाल को आपसी सहमति से ही निपटा लेना चाहिए। किंतु यहां फिर वही मुख्य कारण, जब राज्य सरकार व राज्यपाल अलग-अलग राजनीतिक विचारधारा वाले हो तो ऐसा ही होता है और कार्यपालिका व न्यायपालिका से सक्रिय व ईमानदारीपूर्ण भूमिका की अपेक्षा की जाती है। केन्द्र की दलीय विरोधी राज्य सरकारें ऐसे राज्यपाल को संविधान के अनुरूप उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं करने देती, ऐसे में न राज्य का विकास हो पाता है और न ही जन कल्याणकारी योजनाएं मूर्तरूप ले पाती है। वास्तव में इस स्थिति के लिए कोई एक क्षेत्र दोषी नही है, बल्कि दोष दोनों पक्षों केन्द्र व राज्य की दलीय सरकारों की समझ व उनके संवैधानिक समर्पण आधारित है। इसी स्थिति और समझ के चलते आज राज्यपालों के पद विवादित होते जा रहे है, क्योंकि इस पद पर आसीन शख्स अपनी राजनीतिक मनोकामना का संवरण नही कर पाता। इसी लिए आज कई राज्यों में सरकारों व राज्यपालों के बीच विवाद की स्थिति है, केन्द्र को राजनीति से परे होकर ऐसे विवादों को सुलझाना चाहिए।

सियासी मियार की रिपोर्ट