व्यंग्य आलेख : आँखों की नींद और दिल का चैन कुर्सी ने छिना…
-प्रभुनाथ शुक्ल-
निशानेबाज आजकल बाँकेलाल की बेचैनी दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती जा रहीं है। उनकी रात काटे से नहीं कट रहीं है। जैसी हालत प्रेमिका की अपने प्रेमी के खोने पर होती है ठीक वैसे ही बाँकेलाल की हो गयी है। चुनाव जीतने के बाद जब से मुख्यमंत्री की कुर्सी छीनी है, तब से बेचारे सूखे छोहाडा हो गए हैं। उनकी आंखों की नींद और दिल का चैन गायब है। अबकी बार मुख्यमंत्री बनने के सपने कामयाब नहीं हुए। लोग नए वर्ष के जश्न में डूबे हैं। लेकिन वे पूस की रात में सत्ता की कुर्सी से चपकने के बजाय रजाई से दिल लगाकर बैठे हैं। बाँकेलाल की धर्मपत्नी उन्हें कुछ इस तरह समझा रहीं हैं। दिल दीवाना बिन कुर्सी के मानेना, तू पगला है समझाने से समझे ना। अब उन्हें कौन बताए बेचारी कुर्सी मुंगेरीलाल के हसीन सपने बन गयी। बाँकेलाल कुर्सी के प्रति बेहद वफादार थे। कभी कुर्सी से अलग नहीं हुए, लेकिन यह जुदाई उन्हें जहर जैसी लगती है।
अब बेचारे बाँकेलाल को कौन समझाए। कुर्सी की जुदाई में उनकी हालत कुछ इस तरह हो गयी है। जब से छोड़ गयीं तू दिल मेरा ना लागे, तेरी याद में मेरे दोनों नैना जागे। अब कुर्सी के लिए बाँकेलाल का जिया बेकरार है, लेकिन बेचारे अब करें भी तो क्या करें। सपने भी कितने बेवफा होते हैं लोगों की नींद चैन चुरा के चले जाते हैं। तभी तो लोग कहते हैं सपनों का क्या सपने सच नहीं हो पाते हैं, सागर की लहरों की तरह आते और जाते हैं।
सत्ता में पुन: वापसी के लिए उन्होंने कितना प्रयास किया। पूरी पार्टी को बंपर बहुमत से जीत दिलाई। उन्हें पूरा भरोसा था कि इस बार पार्टी उनकी मेहनत देख फिर सत्ता का सिंहासन उन्हें सौपेंगी लेकिन पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने ऐसा दगा कि बेचारे न घर के रहे न घाट के। चुनाव जीतने के बाद भी जैसी हालत बाँकेलाल की है ठीक वैसे उनके विरोधी बनवारीलाल की। जीत के जश्न के लिए उन्होंने पूरे नौ मन के लड्डू बनाए थे। लेकिन बनवारीलाल की पार्टी का प्रदर्शन तो पिछले चुनाव से भी घटिया साबित हुआ। मुख्यमंत्री की कुर्सी तो छोड़िए पार्टी में दूसरी जिम्मेदारी भी छीन ली गई। यह शीर्ष नेतृत्व की चिड़िया भी गजब होती है। इसी चिड़िया के मारे बेचारे बाँकेलाल और बनवारी लाल जैसे बहुतेरे हैं। लेकिन अब कौन हाथी मारे और दाँत उखाड़े यानी शीर्ष नेतृत्व को कौन बदले।
बाँकेलाल की हालत मुख्यमंत्री की कुर्सी जाने के बाद घायल शेर की तरह है, लेकिन अब बेचारे करें भी क्या। शीर्ष नेतृत्व से वह पंगा भी नहीं ले सकते हैं। वरना पार्टी दूसरी ताज़पोशी पर भी चंद्रग्रहण लग सकता है। अब उनकी हालत दिल के अरमां आंसुओं में बह गए, हम वफा करके भी तन्हा रह गए। अब बाँकेलाल और बनवारीलाल की हालत उस शादी के लड्डू जैसी हो गयी है जो खाए तब भी पछताए और न खाए तब भी। बाँकेलाल जैसों को पार्टी का शीर्ष नेतृत्व आंखों नहीं भाता, लेकिन बेचारे अब क्या करें। बाँकेलाल तो पार्टी में चुनाव जीत कर भी शीर्ष नेतृत्व की बदौलत मारे गए। जबकि बनवारीलाल के सपने तो मुंगेरीलाल के हसीन सपने ही साबित हुए। फिर नए साल के जश्न को लेकर उन्हें यह कहकर संतोष करना पड़ रहा है कि दिन महीने साल गुजरते जाएंगे, हम कुर्सी के लिए जीते और मरते जाएंगे।
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