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चरण-पादुका की नहीं बैशाखी की सत्ता..

चरण-पादुका की नहीं बैशाखी की सत्ता..

-राकेश अचल-

त्रेता में राम राज की स्थापना से पहले 14 साल तक चरण-पादुका की सत्ता थी। कलियुग में एक बार फिर ऐसी ही सत्ता जनता के सामने आ रही है, लेकिन इस सत्ता में चरण-पादुकाएं नहीं बल्कि बैशाखियाँ इस्तेमाल की जा रहीं हैं। नयी सरकार आजकल में वजूद में आ जाएगी। मजे की बात ये है कि ये सरकार भले ही अकेले भाजपा या मोदीकी सरकार नहीं है लेकिन इसका झंका-मंका पहले की ही तरह किया जाने वाला है। यानि कि नए पंत प्रधान के रूप में जो भी शपथ लेगा पूरी भव्यता और दिव्यता के साथ लेगा ताकि चेहरे पर पड़ीं शिकन किसी को नजर न आएं।
पूरी दुनिया की तरह हम भी देश की भावी बैशखी सरकार के नेताओं और भावी पंत प्रधान को अपनी शुभकामनाएं देते हैं कि वे पूरे पांच साल अबाध सत्ता में रहकर जनता की सेवा करें। लेकिन हमारी शुभकामनाओं से क्या होना जाना है। होगा तो वो ही जो राम जी ने रच रखा है। राम जी की लिखावट हम जैसे आम लोग कैसे समझ सकते हैं? राम जी की लिखावट तो उन्हें अयोध्या लाने का दम्भ दिखने वाले लोग ही नहीं पढ़ पाए और ठीक नए मंदिर के आसपास ही जीत का परचम नहीं फहरा पाए।
देश में गठबंधन की सरकार कोई पहली बार नहीं बन रही है। देश के पास इसका पर्याप्त तजुर्बा है, लेकिन जनता के पास भी इस बात का खासा तजुर्बा है कि गठबंधन की सरकारें कैसे काम करतीं हैं और उनकी उम्र कितनी होती है? गठबंधन की सरकार कायदे से जनता की सरकार होती है क्योंकि इसमें एक नहीं बल्कि अनेक दल शामिल होते हैं, लेकिन गठबंधन की सरकार चलाना आसान नहीं होता। कुछ नेता इसमें कामयाब होते हैं तो कुछ नहीं। गठबंधन की सरकार कि ऊपर हमेशा अनिश्चय कि बादल मंडराते रहते हैं। ये कब गरजें और कब बरस जाएँ कोई नहीं जानता।
बहुत पीछे न भी जाएँ तो देश में आपातकाल के बाद बनी गठबंधन की सरकार ढाई साल में ही अपने ही बोझ से गिर गयी थी। जनता ने जिस कथित तानाशाही कि खिलाफ जनादेश देकर गठबंधन की सरकार बनाने का रास्ता दिया था उसी जनता ने ढाई साल बाद गठबंधन में शामिल दलों और उसके नेताओं को धूल भी चटा दी थी। अटल बिहारी बाजपेयी और डॉ मन मोहन सिंह जैसे बिरले ही नेता हुए हैं जिन्होंने ढंग से गठबंधन की सरकार को चलाया। डॉ मन मोहन सिंह ने तो पांच नहीं बल्कि दस साल तक गठबंधन की सरकार चलाई। 2024 में भी जनादेश भाजपा सरकार की तानाशाही कि खिलाफ आया है लेकिन संयोग से जनता ने पार्टी को तो सत्ता से हटा दिया लेकिन जिस व्यक्ति को लेकर आक्रोश था वो नया चेहरा लगाकर बैशाखियों कि सहारे फिर सत्ता के शीर्ष पर है।
चूंकि ये नई सरकार बैशाखियों के सहारे चलने वाली सरकार है इसलिए इस बार तानाशाही के सर उठाने के अवसर तो कम आएंगे, लेकिन कहते हैं कि चोर चोरी छोड़ सकता है हेराफेरी नहीं, इसलिए ये सरकार कब गिर जाये, कोई नहीं जानता। खुद भाजपा और टीडीपी तथा जेडीयू को भी इसका पता नहीं है। नयी सरकार की उम्र देशकाल तथा परिस्थितयां तय करेंगीं। नयी सरकार का एजेंडा भी पहले की तरह हिंदुत्व, सनातन, एक राष्ट्र-एक चुनाव या सीएए जैसे मुद्दों क लेकर विवादास्पद नहीं होगा। नई सरकार तीन बड़े और बाकी के छोटे दलों की मंशा के अनुरूप साझा कार्यक्रम [कॉमन मिनिमम प्रोग्राम ] और एजेंडे के अनुरूप चलेगी। नए पंत प्रधान में इतनी कूबत नहीं है कि वो परदे के पीछे से अपना एजेंडा चला सके।
आपको याद दिला दूँ कि नयी सरकार के नए दूल्हे राजा ने 2002 में भी राजधर्म नहीं निभाया था और न पिछले एक दशक में। 2002 में तो टोकने वाले अटल बिहारी बाजपेयी भी थे लेकिन बीते एक दशक में किसी ने भी अटल जी की तरह राजधर्म की याद दिलाने का दुस्साहस नहीं दिखाया। सबके सब पंत प्रधान के सामने भीगी बिल्ली बने रहे। नए जनादेश के बाद भी सबसे बड़ी पार्टी के संसदीय दल की बैठक में कोई एक महावीर उठकर खड़ा नहीं हुआ जो पार्टी का बंटाधार करने वाले अपने नेता से प्रश्न या प्रतिप्रश्न कर सके। प्रश्न करने की मनाही पहले भी थी और आगे भी शायद रहेगी। बावजूद इसके समाज की प्रश्नाकुलता समाप्त नहीं होती। लोग स्वाभाविक रूप से सवाल करते हैं। उन्हें पता नहीं होता कि प्रश्न करना भी आजकल अपराध की श्रेणी में शामिल कर दिया गया है।
2024 में पूरा देश चाहता है कि केंद्र की सरकार एक लोकतान्त्रिक सरकार साबित हो। एक ऐसी सरकार जिसके एजेंडे में मंगलसूत्र, मुर्गा-मछली, मुजरा और मुसलमान शीर्ष पर न हो। देश को नई सरकार से एक ही दरकार है कि वो देश की सियासत से अदावत का खात्मा कर समाज में सद्भाव की पुनर्स्थापना करे। समाज में व्याप्त भय के वातावरण को निर्मूल करे। ये कोई कठिन काम नहीं है, लेकिन इसे कठिन बना दिया गया है। पुरानी सरकार समझती थी कि भय बिन प्रीत हो ही नहीं सकती, किन्तु जनता ने साबित कर दिया कि भय से भय ही पैदा होता है लेकिन प्रीति नहीं। ये त्रेता नहीं कलियुग है। इस युग में हर चीज कि मायने बदल गए हैं। भारत को उन देशों की नकल भूलकर भी नहीं करना चाहिए जहाँ भय दिखाकर प्रीति करने कि लिए बाध्य किया जा रहा है। हम तो बचपन से सुनते आ रहे हैं कि – है प्रीति यहां की रीति सदा, मै गीत वहां कि गाता हूँ, भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ।
देश की अठारहवीं संसद का स्वरूप भी सरकार की तरह बदला हुआ नजर आएगा। नई संसद में अब शायद ही कोई सत्तारूढ़ दल का सदस्य अल्पसंख्यक सांसद को बिधूड़ी की भाषा में धमका पाए, क्योंकि नई संसद में भाजपा की लाख कोशिशों कि बावजूद कम से कम 23 अल्पसंख्यक मुसलमान सांसद भी चुनकर आये हैं, नई संसद में हाथी का प्रवेश वर्जित कर दिया गया है। भाजपा की बी टीम माने जाने वाले कुछ दलों की ताकत भी इस बार सदन में कम दिखाई देगी। संसद में संतुलन साफ़ दिखाई देगा। अब सत्तारूढ़ दल विपक्ष की न अनदेखी कार पाएंगे और न ध्वनिमत से विधेयक पारित करने का दुस्साहस दिखा पाएंगे। संसद में अब व्यक्ति विशेष कि नारे भी शायद ही लगाए जायें।
नयी सरकार और नयी संसद कि बारे में आज ही सब कुछ लिख देना उचित नहीं है। हमारे यहां नई बहू की पालागन का रिवाज है, इसलिए नई बहू से भी ज्यादा उम्मीदें नहीं है। नई बहू पहले चलना, उठना-बैठना तथा घूंघट सम्हालना सीख ले, बाद में सब कुछ देखा जाएगा। सत्ता की सीता के हांथों में अभी तो मेंहदी का रंग सुर्ख भी नहीं हुआ है। हमें नयी सरकार को वक्त देना पड़ेगा। पहले छह महीने में पूत के पांव पालने में दिखाई देने लगेंगे। अभी तो सवाल ये है कि
-कन्हैया ! किसको कहेगा तू मैया?
एक ने तुझको जन्म दिया
और एक ने तुझको पाला। रे कन्हैया !

सियासी मियार की रीपोर्ट