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रोशनी का टुकड़ा….

रोशनी का टुकड़ा….

-अभिनव शुक्ल-

सूरज की किरणें आकाश में अपने पंख पसार चुकी थीं। एक किरण खिड़की पर पड़े टाट के परदे को छकाती हुई कमरे के भीतर आ गई और सामने की दीवार पर छोटे से सूरज की भांति चमकने लगी। पीले की बदरंग दीवार अपने उखड़ते हुए प्लास्टर को संभालती हुई उस किरण का स्वागत कर रही थी।

बिस्तर पर पड़े-पड़े अनिमेष ने अपनी आंखें खोल कर एक बार उस किरण की ओर देखा और फिर आंखें मूंद कर उस अधूरे सपने की कड़ियों को पूरा करने की उधेड़बुन में जुट गया जिसे वह पिछले काफी समय से देख रहा था, पर सपना था कि अपनी पिछली कड़ियों से जुड़ ही नहीं पा रहा था।
कई बार पुतलियों पर जोर डालने के बावजूद जब सपना पूरा नहीं हुआ तो उसने अपनी आंखों को दुबारा खोला और दीवार पर पड़ती हुई किरण को देखने लगा। खिड़की से दीवार तक वह किरण वातावरण में उपस्थित छोटे-छोटे रेशों-रजकणों को प्रकाशित करती हुई दीवार पर स्थिर हो रही थी। कमरे का वह वातावरण जो नितांत गतिविधिहीन एवं शांत-सा लग रहा था, एक किरण मात्र के प्रवेश से गतिमान हो उठा था।

वास्तविकता तो यह थी कि किरण ने उस वेग को दृष्टि प्रदान कर दी थी जो अब तक दीप्यमान नहीं था।

दीवार पर पड़ते प्रकाश के बिंब को देखते हुए वह अपने बचपन के उस पड़ाव पर पहुंच गया जब उसका परिवार इलाहाबाद के कटरा मोहल्ले की चूड़ी वाली गली में बने अपने पुश्तैनी मकान में रहता था। वहां सब उसे अन्नी पुकारते थे। वह और उसके ताऊजी का बेटा रमन आईने से दीवार पर सूरज की किरणों को चमकाते और फिर उस बिंब को पकड़ने के लिए दौड़ते, पर वह बिंब कभी हाथ में नहीं आता और यदि कभी उनकी नन्हीं-नन्हीं उंगलियां रोशनी के उस टुकड़े तक पहुंचती भी तो वह रोशनी उनके हाथों पर बिखर कर रह जाती। फिर भी सूरज के उस बिंब को छूने में जो सुख मिलता वह अतुलनीय था। अनिमेष बिस्तर से उठा और एक बार फिर सूरज की उस किरण को अपने हाथों में कैद करने का प्रयास करने लगा।

समय कितनी तेजी से बीतता है। रमन का ब्याह हो गया था और उसने वहीं इलाहाबाद में एक मेडिकल स्टोर खोल लिया था। कल का अन्नी आज का अनिमेष भगत बन चुका था। अनिमेष भगत एक बेरोजगार, जिसने नौकरी के लिए अपने अलग मापदंड बना रखे थे, एक पुत्र जो अब घर से पैसे मंगाने में शर्म का अनुभव करने लगा था, एक गुमनाम लेखक जिसकी रचनाओं को नगर का कोई भी बड़ा पत्र छापने को तैयार नहीं होता था। वास्तव में अनिमेष अपने भीतर छिपे लेखक को अपने सबसे निकट पाता, धीरे-धीरे घर से पैसे मांगने में शर्म आनी ख़त्म सी होती जा रही थी, वैसे भी अब घरवाले पैसे देने में हिचकिचाने लगे थे। वह चार बार मांगता तो कभी एक बार पैसे आते तो कभी वो भी ना आते। बेरोजगारी तो अपनी आदत ही डाल चुकी थी। वैसे भी वह लेखक ही था जिसकी बदौलत वह अपनी थोड़ी-सी जरूरतों को पूरा करने भर के पैसे जुटा पाता। इलाहाबाद से दिल्ली आए उसे लगभग तीन वर्ष बीत चुके थे। नौकरी की तलाश उसे यहां खींच लाई थी, उसने सुना था कि दिल्ली में आने वाले वर्षों में दो लाख से भी अधिक लोगों को रोजगार उपलब्ध होगा। नौकरियां थीं अभियंताओं के लिए, बावर्चियों के लिए, मजदूरों के लिए, तकनीशियनों के लिए, अंग्रेजी को अंग्रेजों की तरह बोलने वालों के लिए, पर हिंदी के स्नातक के लिए कोई जगह किसी के पास नहीं थी। इधर उधर प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं में कुछ लिख लिखा कर वह अपना जीवन यापन कर रहा था।

समय के साथ पत्रकारिता ने अपना स्वरूप बदला है। समाचार पत्र पढ़ने के स्थान पर अब लोग न्यूज चैनल्स पर जीवंत समाचार देखना अधिक पसंद करते हैं। आज के समय में लेखक की जो स्थिति है वो भी किसी से छिपी नहीं है। पत्रकारिता के क्षेत्र में जो बदलाव आया है उसकी तीव्र गति में अनेक लेखक और कवि ऐसे हैं जो अचानक पीछे छूट गए हैं। अनिमेष लिखता तो अच्छा था परंतु नवयुग जिस गति और जिस लयात्मकता की मांग उससे करता वह उसके पास न थी। संपादक चाहते थे कि वह कुछ चटपटा लिखे, कुछ ऐसा जिसको पढ़कर उत्तेजना पैदा की जा सके पर वह जो लिखता था उसको यह कहकर नहीं छापा जाता था कि ऐसा तो पहले भी बहुत बार लिखा जा चुका है।

इस सबके बावजूद नगर में छपने वाले एक साप्ताहिक समाचार पत्र उजागर में अनिमेष की रचना अवश्य छपती थी। प्रत्येक रविवार को प्रकाशित होने वाले इस पत्र में लेख, कहानी, कविता या जो कुछ भी उसने लिखा होता वह छप जाता और दो सौ रुपए अनिमेष के हाथ पर रख दिए जाते। इस पत्र के संपादक थे श्रीमान राकेश पराशर। अनिमेष आज तक संपादक जी के इस स्नेह को समझ नहीं पाया था, न तो वह उनकी जाति का था, न उनके क्षेत्र से था और न ही संपादक महोदय को कोई लाभ पहुंचाने की स्थिति में ही था, फिर भी उसकी रचनाएं निर्बाध रूप से छपती आ रही थीं।

ऐसा सुनते हैं कि राकेश जी भी बहुत दिनों तक अपनी रचनाओं को छपवाने हेतु इधर उधर भेजते रहे थे और अंततः थक हार कर उन्होंने प्रिंटिंग प्रेस का काम शुरू किया। काम अच्छा चल पड़ा तो अंदर छिपे लेखक ने एक बार फिर अंगड़ाइयां लेना प्रारंभ कर दिया तथा उन्होंने अपने स्वयं के अख़बार उजागर की नींव रखी। आस-पास के परिचित दुकानदारों से कुछ विज्ञापन मिल जाते और बाकी पैसे वे अपनी जेब से लगाते थे। नए लोगों को लिखने के लिए प्रेरित करने में उन्हें आनंद आता था। सुनते तो ऐसा भी हैं कि आजकल के कुछ प्रतिष्ठित लेखक उनके आंगन से होकर ही अपने लक्ष्य तक पहुंचे हैं परंतु उन लेखकों के नाम किसी को पता नहीं थे। अनिमेष को ऐसा नहीं लगता था कि वह भी दूसरे प्रसिद्ध लेखकों की तरह यहीं से अपने आपको लेखन की दुनिया में सिद्ध कर सकेगा।

अनिमेष को कई बार यह सोचकर दुख होता था कि उसकी रचनाओं को बहुत कम लोग ही पढ़ते थे। कलम से क्रांति का जो स्वप्न वह एक अरसे से देखता आ रहा था वह उसको टूटता-सा लगता। उजागर की कुल दो हजार प्रतियां छपती थीं जिसमें से अधिकतर आस पास के दुकानदारों में मुफ्त बांट दी जातीं और बाकी प्रेस से ही कबाड़ी वाले के पास पहुंच जातीं। स्कूलों के बाहर खड़े फेरीवाले आमतौर पर उजागर पर ही चने कुरमुरे आदि बेचते थे। कुल सौ-दो सौ प्रतियां ही असली पाठकों तक पहुंचतीं जिसमें से अधिकतर मुख्य ख़बरों के आगे कम ही बढ़ते थे। ऐसे में चैथे पृष्ठ पर छपने वाले लेख को कितने लोग पढ़ते होंगे यह कहना कठिन नहीं था।

अनिमेष अन्य नामी-गिरामी पत्रों में भी यदा-कदा अपनी रचनाएं भेजता रहता था। परंतु उन पत्रों ने तो जैसे उसकी रचनाओं को न छापने की कसम खा रखी थी। दैनिक प्रकरण से कल ही उसका लेख वापस आया था, वह लेख जो उसने हिंदू मुस्लिम एकता पर लिखा था, इसी एकता की कड़ियों में उलझकर एक लिफाफे के रूप में उसके सिरहाने पड़ा था। अलसाए हुए अनिमेष ने एक दृष्टि उस लिफाफे की ओर डाली, उठकर टूथपेस्ट को अपने ब्रश में लगाया तथा कमरे से बाहर निकल आया। बरामदे में लगे आईने पर जब उसकी नजर पड़ी तो अपनी आंखों के नीचे उभरती हुई कालिख को देखकर वह एक बार ठिठका और फिर मन ही मन अपने आपसे कुछ कहता हुआ आगे बढ़ा।

उठो भाई एक और दिन तैयार है तुमसे दो-दो हाथ करने के लिए। अभी बाबूलाल भी किराया-किराया चिल्लाता हुआ आ रहा होगा। यहां आंखों के नीचे तो ऐसी कालिख जम रही है कि मानो रात भर इन्होंने कोयले की खान में काम किया हो। अम्मा अगर इस हालत में देख लें तो पहचान भी ना पाएं। चलूं, राकेश जी को ये लेख देता हूं जाकर, एक वही हैं जो इसको छाप सकते हैं वरना यदि बाकी पत्रों का बस चले तो हिंदू मुस्लिम एकता को शब्दकोष से ही बाहर करवा दें।

खैर, चाहे जितने लोग उस अख़बार को पढ़ते हों पर कोई एक पाठक ऐसा था जो एक पोस्टकार्ड पर अपनी प्रतिक्रिया लिखकर अवश्य भेजता था। पच्चीस पैसे का वह पोस्टकार्ड भले ही हजारों का ना होता हो पर अनिमेष के लिए वह दो सौ रुपए का तो हो ही जाता क्यों कि उसको पाने के बाद ही वह अपने अगले लेख को लिखने की हिम्मत जुटा पाता। अनिमेष को ऐसा लगता कि यदि कोई उसकी रचना पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहा है तो हो ना हो कहीं ना कहीं उसकी कलम अपने उद्देश्य में सफल हो रही है। कमरे में वापस आकर उसने एक बार फिर पोस्टकार्ड को देखा,
प्रिय लेखक जी,
आज आपका लेख पढ़ा, बहुत अच्छा लगा। ऐसी मनोहारी रम्य रचना पढ़े एक अरसा बीत गया था। भ से भारत, भ से भूख और भ से भ्रष्टाचार की श्रृंखलाओं को आपने एक कुशल चितेरे की तरह अपने कैनवस पर उतारा है। लेख की भाषा और शैली भी बहुत अच्छी लगी। व्यंग्यात्मकता के पुट के कारण लेख और भी सुंदर बन पड़ा है। आशा है कि आगे भी आप ऐसे ही उत्तम लेखों से हम पाठकों की तृष्णा को शांत करते रहेंगे।
आपका
पाठक

अब तक कम से कम बीस बार वह इसको पढ़ चुका था। पर उसे ऐसा लगता मानो प्रशंसा अथवा प्रतिक्रिया के यह शब्द उसको असीम शक्ति प्रदान कर रहे हों। कभी-कभी तो उसको ऐसा लगता कि यदि यह पोस्टकार्ड उसके पास ना आए तो वह आगे कुछ भी लिख ना पाए। वैसे वह यह भी जानता था कि उसका ऐसा सोचना एक अंधविश्वास से अधिक कुछ भी नहीं था परंतु ऐसा अंधविश्वास जिससे व्यक्ति को प्रेरणा मिलती हो, विश्वास करने योग्य होता है। पोस्टकार्ड के अक्षर-अक्षर को एक बार पुनः अपने मानस में बिठाकर अनिमेष ने अपनी सायकिल उठाई और उजागर के दफ्तर की ओर बढ़ चला। कुछ ही समय में अपने लेख को बगल में दबाए वह राकेश जी के सामने खड़ा था। उसने लेख को राकेश जी के आगे बढ़ाया, राकेश ने अनिमेष की आंखों में आंखें डालते हुए कहा, अरे, ये खेद सहित का पर्चा तो हटा देते। कितनी बार समझाया है तुम्हें कि तुम हमारे पेटेंट लेखक हो, मगर तुम मानते नहीं हो। बडे पत्रों में छपने के लिए बड़ा नाम, बड़ी जान पहचान का होना बहुत आवश्यक है। लिफाफा वापस आने पर होने वाले दुख से मैं भी परिचित हूं पर ऐसे ही कोई प्रेमचंद थोड़े ही बन जाता है। देखूं तो क्या लिखा है तुम्हारी आग उगलती धारदार कलम ने, हमम ह़िंदु मुस्लिम बढ़िया है, छप जाएगा, ये लो भाई हमारा आशीर्वाद। इतना कहते हुए उन्होंने दो सौ रुपए अनिमेष को पकड़ा दिए। अनिमेष रुपए लेकर चुपचाप अपने घर की ओर चल पड़ा।

अनिमेष के जीवन में एक और बड़ा ही महत्वपूर्ण प्राणी था, उसका मकान मलिक बाबूलाल जो उसके कमरे के सामने वाले कमरे में ही रहता था। कभी वह किसी से बोलता तो ऐसे मानो कोई बहुत बड़ा एहसान कर रहा हो। उसकी बातचीत को झगड़े में बदलते ज्यादा समय नहीं लगता था। पिछले चार महीनों में अनिमेष को कई बार बत्ती जलती छोड़ देने की वजह से फटकार पड़ चुकी थी। कमरे का किराया पांच सौ रुपए था, कमरे के अलावा एक कुर्सी, एक मेज और एक तखत भी उस कमरे में पहले से पड़े थे, बिजली का अलग से कुछ नहीं लिया जाता था अतः यदि बाबूलाल बिना मतलब बत्ती जलती देख लेता तो आगबबूला हो उठता। इधर हमारे लेखक बाबू को लिखते-लिखते सोने की आदत थी, तो सामन्यतः कई बार लाईट बुझाना भूल भी जाते थे।

बाबूलाल को बीड़ी और शराब पीने की लत थी। शराब पीने के बाद तो कभी-कभी वो बड़ी ऊलजलूल हरकतें करता, कभी किसी के दरवाजे पर जाकर जोर-जोर से कोई पुराने जमाने का फिल्मी गीत गाता और कभी आसमान की ओर देखकर चांद तारों को गालियां बकता रहता। कई बार वह घर के बाहर खड़े यूकेलिप्टस के पेड़ से चिपक-चिपक कर रोता रहता, ऐसे ही एक दिन उसने अनिमेष को बतलाया कि उसके पिता ने यह वृक्ष उसी दिन लगाया था जिस दिन उसका जन्म हुआ था, इस रिश्ते से वह पेड़ बाबूलाल को अपने जुड़वां भाई की तरह लगता था। इसके अलावा भी वह अनेक बेतुकी हरकतें किया करता था। एक दिन शराब के नशे में धुत होकर उसने अपने पड़ोसी के लड़के को बिना बात के ही बहुत पीटा। उस दिन के बाद से आस पास के लोगों ने बाबूलाल का एक प्रकार से बहिष्कार ही करना प्रारंभ कर दिया। उसकी ऐसी ही हरकतों से तंग आकर उसका पुत्र टीटू अपने परिवार के संग एक दूसरे मोहल्ले में रहने लगा था, परंतु बाबूलाल सबसे यही कहते थे कि उसने अपने बेटे और बहू से तंग आकर घर से निकाल दिया है।
जैसे ही अनिमेष घर में घुसा बाबूलाल ने उसका दरवाजा खटखटाया।
आज एक तारीख़ है किराया कहां है।
जी, अभी तो मेरे पास दो सौ रुपए ही हैं।
लाओ, अभी इतने ले रहा हूं पर याद रहे कि बाकी के तीन सौ रुपए भी जल्दी मिल जाने चाहिए, नहीं तो मुझे समाज सेवा करने का कोई शौक नहीं है।
बाकी के पैसे आपको दो दिन में लाकर दे दूंगा। इतना कहकर अनिमेष अपने कमरे में आ गया।
तीन दिन बीत चुके थे, अनिमेष रात को देर से सोया था अतः अभी तक उठा नहीं था। बाबूलाल उसके कमरे के बाहर खड़ा अंदर जलती हुई बत्ती को देख रहा था। ना जाने जलते हुए एक बल्ब को देखकर कितने वॉट का करंट उसके शरीर में दौड़ जाता था। लेकिन उसने सोचा कि किराया लेने के बाद ही कुछ बोलेगा। कहीं ये लड़का बिदक गया तो? उसने आवाज दी,
उठो भैया, जरा बाहर आओ।
अनिमेष आंखे मलता हुआ बाहर आ गया।
तीन दिन हो गए हैं, बाकी के तीन सौ रुपए?
अभी नहीं हैं मेरे पास, जब होंगे तब दे जाऊंगा। सुबह-सुबह जगा दिया आपने, अब तो आज का पूरा दिन ख़राब होगा।
देखो भाई, मैंने कोई खैराती अस्पताल नहीं खोल रखा है, मुझको अभी पैसे चाहिए।
अभी नहीं हैं मेरे पास, कहां से दूं?
एक तो रात भर बल्ब जला था और दूसरा अनिमेष पैसे भी नहीं दे रहा था, अब तक बाबूलाल का पारा चढ़ चुका था। वह गुस्साते हुए बोला,
तुमको शर्म नहीं आती है, मेरे पैसे मारकर बैठे हो, मेरे इतनी बार समझाने पर भी लाईट जलाकर सोते हो, तुम्हारे जैसे किराएदार से निभा पाना मेरे लिए और अधिक संभव नहीं है। निकल जाओ मेरे घर से, मैं शरीफ आदमी हूं इसलिए तुमको कल सुबह तक का समय देता हूं कि अपने लिए कोई जगह देख लो और भगवान के लिए मेरा पीछा छोड़ो। इतने नखरे तो मैंने अपने बेटे के नहीं देखे और एक बात याद रखना, मेरे पैसे दिए बिना तुम अपना सामान यहां से नहीं ले जा सकते हो।
अनिमेष इस अचानक हुए आक्रमण के लिए तैयार नहीं था। परंतु वह भी रोज-रोज की इस चिक-चिक से तंग आ चुका था अतः उसने बाबूलाल से कह दिया कि वह घर छोड़ देगा।
घर से निकलकर अनिमेष सीधे उजागर के दफ्तर पहुंचा। आज अनिमेष बहुत दुखी था, एक तो सुबह-सुबह बाबूलाल से झगड़ा हुआ और दूसरी ओर उसके पाठक का पत्र जो लेख छपने के दो दिन के अंदर अख़बार के दफ्तर पहुंच जाता था, अभी तक नहीं पहुंचा था। अपने आप को सांत्वना देते हुए मन ही मन उसने सोचा कि,
जो होता है अच्छे के लिए ही होता है, राकेश जी ने मुझे चार सौ रुपए एडवांस दे दिए हैं तथा पास ही एक जगह रहने की बात भी कर ली है, मैं अभी जाकर ये पैसे बाबूलाल के मुंह पर मारता हूं। सुबह तक वहां रुकने का कोई मतलब नहीं है, जहां स्नेह नहीं है वहां रहना भी नहीं है।

ऐसे भावों को मन में लिए अनिमेष दफ्तर से उठा और सीधे बाबूलाल के कमरे की ओर चल पड़ा। बाबूलाल उस समय अपनी बीड़ी जलाने के लिए माचिस ढूंढ रहा था, उसने चुपचाप पैसे लिए तथा फिर माचिस ढूंढ़ने के कर्म में लीन हो गया। अनिमेष अपने कमरे में आया और एक-एक करके सामान रखने लगा।
कह तो ऐसे रहा था कि सामान रख लूंगा जैसे मेरी कोई इज्जत नहीं है। पर सामान है ही क्या, मेरे पास ये चार डायरियां हैं, एक पेन है, एक दरी है, एक तकिया और ये बल्ब और कुछ कपड़े। शायद तीन सौ रुपए से ज्यादा का ही हो। अब मुझे क्या करना, पैसे तो दे ही दिए हैं, अब चलता हूं।
कोने में पड़ी कुर्सी मेज को देखकर वह ठिठका, इसपर बैठ कर उसने कितने ही लेख लिखे थे। खिड़की खुली हुई थी, लगा बाहर यूकेलिप्टस मानो कुछ कहना चाहता था। अनिमेष कुछ देर खिड़की के बाहर देखता रहा, उसे लगा मानो आज वह वृक्ष ही उससे रुकने के लिए कह रहा हो। उसने अपनी कलम उठाई और बैठकर कुछ सोचने लगा।

मैंने पैसे तो दे ही दिए हैं, अब यदि कल सुबह तक रुक जाऊं तो कोई गलत बात नहीं है। वैसे भी इस कुर्सी से, इस मेज से इस तखत से और बाहर लगे इस यूकेलिप्टस से मुझको अपनापन भी मिला है और प्रेरणा भी, भले ही इनके मालिक ने मुझे दुत्कारा हो। अब जो अपने बेटे का न हुआ वह किसी और का क्या होगा। मनुष्य को न जाने किस चीज की भूख है और न जाने यह कैसे शांत होगी। बाबूलाल कितना पैसा दबाए बैठा है पर और-और की रट तो जैसे छूटती ही नहीं या फिर शायद मकान मालिक बनने के बाद मानव का स्वभाव ऐसा ही हो जाता है, पता नहीं, अगर वो अपने आपको तीस मार खां समझता है तो मैं भी कुछ कम नहीं हूं, आज नहीं जाऊंगा, कल सुबह ही खाली करूंगा।

अनिमेष काफी देर तक कुर्सी पर बैठा रहा परंतु कुछ लिख नहीं पाया। बैठे-बैठे ही कब उसकी आंख लग गई उसे पता ही न चला। रात के लगभग दो बजे किसी ने दरवाजे को जोर से खटखटाया, अनिमेष ने उठकर जब किवाड़ खोला तो देखा कि बाबूलाल सामने खड़ा है, उसका चेहरा पसीने से लथपथ था।
दर्द से छाती फटी जा रही है। जरा डाक्टर को बुला लाओ।
इतना कहकर बाबूलाल वहीं दरवाजे पर बैठ गया।

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था, पहले भी कई बार कभी खांसी तो कभी जुकाम, कुछ न कुछ होता ही रहता था। बूढ़ी देह थी, ऊपर से बीड़ी पीने का शौक तो रोग कितने दिन दूर रहते। जब भी बाबूलाल को कोई समस्या होती तो वह दौड़ा-दौड़ा अनिमेष के पास ही आता। आज अनिमेष का पारा भी सातवें आसमान पर था लेकिन बाबूलाल को कराहते देख अनिमेष उसे सहारा देकर उसके कमरे तक ले गया, बिस्तर पर लिटा कर पानी पिलाया और बाहर आ गया।
मुझे तो लगा कि बत्ती जलती हुई देखकर एक बार फिर अपने स्नेह की वर्षा मुझ पर करने आया है। मुझसे मकान खाली करने को कह रहा था। मैं नहीं जाऊंगा किसी डाक्टर को बुलाने और वैसे भी इस समय रात के तीन बजे कौन से डाक्टर साहब राजी हो जाएंगे यहां आने के लिए और मान लो मैं शाम को ही चला गया होता तो।
मन ही मन ऐसा सोचते हुए अनिमेष ने बाबूलाल के कमरे में झांक कर देखा, बाबूलाल गहरी नींद में सो चुका था। अनिमेष ने अंदर जाकर उसे चादर ओढ़ाई और अपने कमरे की ओर चल पड़ा।
कल सुबह जाने से पहले डॉ साहब को ले ही आऊंगा, लगता है कि दर्द ज्यादा हो रहा था नहीं तो इतनी रात गए मेरे कमरे में ना आता।

सुबह-सुबह अनिमेष डॉ पवार को अपने साथ लेकर आ गया। दरवाजा खोलकर जब वह अंदर पहुंचा तो उसने देखा कि बाबूलाल का शरीर अकड़ रहा है। डॉ साहब ने बताया कि बाबूलाल की मौत तो चार पांच घंटे पहले ही हो चुकी है। अनिमेष ने घड़ी में देखा तो सुबह के साढ़े सात बज रहे थे। बाहर लगे यूकेलिप्टस के पत्ते झर रहे थे। कुछ ही देर में टीटू अपने परिवार के साथ पहुंच गया। उसके आते ही रोना धोना चालू हो गया। अनिमेष स्तब्ध-सा सबकुछ देख रहा था। बाबूलाल के शरीर को बिस्तर से उठाकर जमीन पर रख दिया गया। बिस्तर पर पड़ी चादर और गद्दे को भी हटाया गया। चादर के नीचे एक पोस्टकार्ड पड़ा था जिसपर लिखा था कि,
प्रिय लेखक जी,
आज आपका लेख पढ़ा, बहुत अच्छा लगा। हमारे नेताओं ने भी अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो वाली पालिसी ही अपना रखी है। आपके लेख में एक आम आदमी के मजहब की जो बातें बताई गई हैं वे प्रशंसनीय हैं। इधर स्वास्थ्य में कुछ गड़बड़ी की वजह से आज मैं पत्र डाल नहीं पा रहा हूं। एक दो दिन में अवश्य पोस्ट कर दूंगा।
आपके अगले लेख के इंतजार में,
आपका,
पाठक

टीटू ने पत्र को एक ओर रखा तथा अर्थी तैयार करने लगा। अचानक अनिमेष दहाड़ें मार-मार कर रोने लगा, आस पास के सब लोगों ने उसे सांत्वना देने के अनेक प्रयास किए पर अनिमेष की आंखों से बहती हुई अश्रुधारा रुक ही नहीं रही थी। लोग कह रहे थे कि देखो मकान मालिक और किराएदार में पिता पुत्र-सा स्नेह था, तभी सूरज की एक किरण परदे के पीछे से आई और दीवार पर स्थिर हो गई।