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रूपा की आजी..

रूपा की आजी..

-रामवृक्ष वेणीपुरी-

कुछ दिन चढ़े, मैं स्कूल से आकर, आंगन में पलथी मारे चिउरा-दही का कौर-पर-कौर निगल रहा था कि अकस्मात मामी ने मेरी थाली उठा ली, उसे घर में ले आई। पीछे-पीछे मैं अवाक् उनके साथ लगा थाय थाली रखा मुझ से बोली- बस, यहीं खा, बाहर मत निकलना, रूपा की आजी आ. रही है, नजर लगा देंगी! समझे न?

मैं समझता क्या खाक? हां, रूपा की आजी से कौन बच्चा नहीं डरता? उनकी बड़ी-बड़ी आंखें देखकर न सिहर उठता? वह डायन हैं गांव भर में यह बात प्रसिद्ध है। वह जिस को चाहें -जादू की फूंक में मार सकती हैं, बच्चों पर उनकी खास नजरे इनायत रहती हैं। कितने बच्चों को, हंसते-खेलते शिशुओं को, उनकी ये बड़ी-बड़ी आंखें निगल चुकी हैं

बड़ी-बड़ी आंखें!

रूपा की आजी की यह है सूरत-शकल-लम्बी गोरी औरतय भरा-पूरा- बदन। हमेशा साफ, सफेद बगाबग कपड़ा पहने रहतीं। उस सफेद कपड़े के घेरे से उनका चेहरा रोब बरसाता। फिर, उनकी बड़ी-बड़ी आंखें जिन पर लाली की एक, हलकी छाया! पूरे बदन का ढांचा मर्दों के ऐसा, मानों धोखे से औरत हो गई हों। जिस गांव से यह आई है, वहां, लोग कहते हैं, औरतों का ही राज है। लोगों ने मना किया उनके ससुर को, वहां बेटी की शादी मत कीजिए। किन्तु, वह भी पूरे अखाड़िया थे-जिद कर गये, देखें, कैसी होती है वहां की लड़की।

रूपा की आजी ब्याह के आईं। आने के थोड़े ही दिनों बाद ससुरजी चल बसे। कुछ दिनों के बाद रूपा के दादाजी भी। इन दोनों की मौत अजीब हुई। ससुरजी दोपहर में खेत से आये, रूपा की आजी ने थाली परोस कर उनके सामने रखी। दो कौर खा पाये थे कि पेट में खोंचा मारा, दर्द हुआ, खाना छोड्कर उठ गये। शाम होते-होते उसी दर्द से चल बसे।

रूपा के दादाजी एक बरात से लौटे, थके-मांदेय नवोढ़ा पत्नी-रूपा की आजी-ने, हंस कर, एक गिलास पानी पीने को दिया। पानी पीते ही सिर धमका, ज्वर आया, उसी ज्वर से तीन दिनों के अन्दर स्वर्ग सिधारे।

पहली घटना से ही कानाफूसी शुरू हो गई थीय दूसरी घटना ने बिल्कुल सिद्ध कर दिया–रूपा की आजी डायन है, दोनों को जादू के जोर से खा गई है।

रूपा के पिताजी का जन्म उसके तीन-चार महीने बाद हुआ। रूपा की आजी की गोद भरी-आखिर इस डायन ने अपना खानदान बचा लिया, लोगों ने कहना शुरू किया। बेटे को इस डायन ने बड़े नाज से पाला, पोसा, बड़ा कियाय उसकी शादी की-धूमधाम से। किन्तु, कैसी है यह चुड़ैल। शादी का बरस लगते-लगते बेटे को भी खा गई-मुंछउठान जवान बेटे को! कितना सुन्दर, गठीला जवान था वह! कुश्ती खेलकर आया, इस के हाथ से दूध पीया। खून के दस्त होने लगे। कुछ ही घंटों में चल बसा। उसके मरने के बाद इस रूपा का जन्म हुआ और रूपा अभी प्रसूतिगृह में ही .कें-कें कर रही थी कि उसकी मां चल बसी! बाप रे, रूपा की आजी कैसी बड़ी डायन हैं! डायन पहले अपने ही घर को स्वाहा करती है।

जवान बेटे की मृत्यु के बाद, रूपा की आजी में अजीब परिवर्त्तन हुआ। आंखें हमेशा लाल रहतींय छोटी-छोटी बातों से भी आंसू की धारा बह निकलतीय होंठों-होंठ कुछ बुदबुदाती रहतींय दोनों जून स्नान कर भगवती का पिंड लीपतीं, धूप देती बहुत साफ कपड़ा पहनतींय .जिस जवान को देखती, देखती ही रह जातींय जिस बच्चे पर नजर डालतींय मानों आखों में पी जायंगी। लोगो ने शोर किया-अब इसका डायनपन बिल्कुल प्रगट हो गया। डरो भागो-रूपा की आजी से बचो!

रूपा की आजी से बचो-लेकिन, बचोगे कैसे? भर-दिन रूपा को गोद लिए, कंधे चढाये, या उसकी छोटी उंगलियां पकड़े यह इस गली से उस डाली, इस घर से उस धर आती-जाती ही रहती है। न एक व्रत छोड़ती है, न एक तीरथ। और, हर व्रत और तीरथ के बाद गांव-भर का चक्कर! उत्सवों में बिना बुलाये हाजिर! उफ, यह डायन कब मरेगी? कब गांव- को इससे नजात मिलेगी।

मन-ही-मन यह मनाया जाता, किन्तु ज्योंही रूपा की आजी सामने आईं नहीं कि उनकी खुशामदें होतीं। कहीं वह नाराज न हो जायं। अपने ससुर, पति, बेटे और पतोहू को खाते जिसे देर न लगी, वह दूसरे के बाल- बच्चों पर क्यों तरस खायगी? स्त्रियां उन्हें देखते कांप उठतीं, किन्तु, ज्योंही वह उनके सामने आईं कि दादीजी कहकर उनका आदर-सत्कार रना शुरू किया। इस आसन पर बैठिए, जरा हुक्का पी लीजिए, सुपारी खा लीजिए, यह सौगात आई है, जरा चख लीजिए, आदि आदि। रूपा की- आजी कुछ सत्कार स्वीकार करतीं, कुछ अस्वीकार। उनकी अस्वीकृति आग्रह नहीं मानती थी। अस्वीकृति! और, लोगों में थरथरी लग गई। फिर, परिवार ही ठहराय अगर बरस-छह महीने में किसी को कुछ हुआ, तो रूपा की आजी के सिर पर दोष गिरा!

कितने ओझे बुलाये गये इस डायन को सर करने के लिए। उनके बड़े-बड़े दावे थे-डायन मेरे आगे नंगी नाचने लगेगीय डायन के कोचे से आप-ही-आप आग जल उठेगीय डायन खून उगलने लगेगीय डायन पागल होकर आप-ही आप बकने लगेगी। ओझा आये, तांत्रिक आये। टोटके हुए, तंतर हुए। तेली के मसान की लकड़ी, बेमौसम के ओड्हुल के फूल, उलटी सरसों का तेल, मेंढक की खाल, बाघ के दांत-क्या-क्या न इकट्ठे किये गये! ढोल बजे, झांझ बजी, गीत हुएय देव आये, भूत आये, देवीजी आई! किन्तु रूपा की आजी न पागल हुईं, न नंगी नाचीं, न उनकी देह पर फफोले उठे। ओझा गये, तांत्रिक गये, कहते हुए-उफ यह बड़ी घाघ है। बिना कारूकमच्छा गये, इसका जादू हटाया नहीं जा सकता। कई ओझे इसके लिए रुपये भी ऐंठते गयेय किन्तु रूपा की आजी जस-की-तस रहीं।

मैं बड़ा हुआ, लिखा-पढ़ा, नयेज्ञान ने भूत-प्रेत पर से विश्वास हटाया, जादू-टोने पर से आस्था हटाई। मैंने कहना शुरू किया-यह गलत- बात, रूपा की आजी पर झूठी तुहमत लगाई जाती है! बेचारी के घर में एक के बाद एक आकस्मिक मृत्युएं हुईं, उसका दिमाग ठीक नहीं। आंखों की लाली या पानी डायनपन की नहीं, उसकी करुणाजनक स्थिति की निशानी हे। बच्चों के देखकर, दुलारकर जवानों को मूर-घूरकर वह अपने जवान बच्चे की याद करती या उसे भूलने की कोशिश करती है। पूजापाठ सब उसी की प्रतिक्रिया हैं। दुनिया में भूत कोई चीज नहीं, जादू-टोना सब गलत चीज! लेकिन मेरी बात कौन सुनता है? एक दिन मामी मेरी इस बकझक से व्याकुल होकर बोली-

हां, तुम्हें क्या, तुम्हारे लिए जरूर जादू-टोना गलत है। भगवान तुम्हें चिरंजीवी करें। किन्तु, उनसे पूछो, जिनकी कोख इस डायन ने सूनी कर दीय जिनके बच्चों को यह जिन्दा चबा गईय जिनके हंसते-खेलते घर को इसने मसान बना दिया।

कहते-कहते उनकी आंखें भर आईय कुछ गरम-गरम बूंदें आंखों से निकलकर जमीन पर हुलक रहीं। फिर बोलीं- उस पड़ोसिन की बात है। उसकी बेटी सुसराल से लौटी थी- गोद भरकर! एक दिन उसका छह वर्ष का नाती गिन में किलक रहा था। कितना सुन्दर था वह बच्चा! जैसे विधना ने अपने हाथों संवारा हो। जो देखता, मोह जाता। कई दिन मेरे घर आया था-जबरदस्ती मेरे कंधे पर चढ़ गया, दही मांगकर खाया। तुतली-तुतली बोली, चिकने-चिकने दुध-मूंहे दांत। हंसता तो इंजोरिया हो जाती। किलकिलाता, तो हरसिंगार झड़ने लगते। और, वैसे बच्चे को……।

हां, एक दिन वह बच्चा अपने ऑगन में था, कि यह भूतनी पहुंची। यह भूतनी-हां, इसी तरह आंसू बहाती, होंठ हिलाती, रूपा का हाथ पकड़े। इसे देखते ही उसकी मां का मुंह सूख गयाय नानी डर गईय चाहा, बच्चे को छिपा दें। किन्तु वह बच्चा छिपाने लायक भी तो नहीं था! ऊधमी, नटखट! झटपट दौड़ा आया, इस चुडैल के कंधे पर चढ़ गया। चढ़कर इसके बालों को नोचने, गरदन को हिलाने और अपने छोटे-छोटे पैरों से इसे एंडियाने लगा। बच्चे की इस हरकत से भूतनी हंस पड़ी-पहली बार लोगों ने इसे हंसते देखा। फिर खुद घोड़ा बनी, बच्चे को सवार बनाया और बहुत देर तक घुड़दौड़ करती, बच्चे को हंसाती खेलाती रही। बार-बार उसे छाती से लगाती, कहती, ऐसा बच्चा दूसरा .न देखा। आह मेरा… किन्तु, बात बीच ही में काटकर फुट-फूटकर रो पड़ी। उसे रोते देख, बच्चे ने ही गुदगुदी लगाकर, रिझाकर, भुलाकर उसे चुप कराया। चुडैल घर चली, आशीर्वाद देती हुई-युग-युग जीए यह बच्चा, तुम्हारी गोद हमेशा भरी रहे बेटीय भरी रहे, इसी तरह सोने की मुरत उगलती रहे। उसकी मां भौंचक, नानी के जैसे जी में जी आया।

किन्तु, जानते हो, इसके बाद क्या हुआ? मामी कहे जा रही थीं। कुछ ही दिनों के बाद लड़के को सूखा रोग लग गया। कहां गया उसका वह रूप, वह रंग, वह चुहल, वह हंसी। सूखकर कांटा हो गया, दिन-रात चेंचें किये रहता। जो उसे देखते, आंसू बहाते और एक दिन आंसुओं की बाढ़ लाकर वह.. उफ।

उस दिन उसकी मां को तुम देखते। पागल हो गई थी बेचारी! बच्चे की लाश को पकड़े थी, छोड़ती नहीं थी। किसकी हिम्मत जो उससे .बच्चा मांगे? आंसू सूखकर ज्वाला बन गये थे-उसकी आंखों से चिनगारी निकल रही .थी! बच्चे को छाती से चिपकाये थी, जैसे वह दूध-पीता बच्चा हो। अंट-संट बोलती, बच्चे के मुंह में छाती देने की कोशिश करती! उसे चुप देख, कभी-कभी चिल्ला उठती- जब चिल्लाती, मालूम होता, उसका -कलेजा फट रहा है, सुननेवालों के भी कलेजे फटते… .

मैं देख रहा था, मामी का कलेजा आज भी फटा जा रहा है। किस्से का अंत शब्द से नहीं, आंसुओं के ज्वार से हुआ।

और, मामी के बच्चे को भी तो इसी ने खाया- वह बोलती नहीं हैं, किन्तु उनके करुण चेहरे की एकाएक भावभंगी-आंसू की एक-एक बूंद- -यह कह रही है। कम्बख्त को बच्चे खाकर भी संतोष न हुआ, मामी की कोख में जैसे इसने राख भर दी। तब से एक भी बेटा न हुआय बहुत् जंत्र- मंत्र के बाद हुई तो दो बेटियां

मामी को क्या बातय एक दिन मामाजी भी मेरे उपर्युक्त तर्कों पर नाराज हुए और अपनी आंखों-देखी घटना सुनाई-

वह ऊंची जगह देखते हो न? वहां एक दुसाध आ बसा था। बूढ़ा था, दो नौजवान लड़के थे उसकेय घर में बीवी, पतोहुएं। दोनों ही बेटे बड़े ही कमाऊ पूत। गठीले जवान। बूढ़ा भी काफी हुनरमंद। थोड़े ही दिनों में गांव में उनकी पूछ हो गई। बाहु का बल था। कमाते, खाते। नेक स्वभाव के – न किसी से झगड़ा, न झमेला। सबको खुश रखने की कोशिश करतेय सबके काम आते।

एक दिन वह बुढ़िया–तुम्हारी रूपा की आजी, -पहुंची और बोली, जरा मेरा काम कर दो। बूढ़े ने देखते ही सलाम किया, बैठने को कुश की चटाई रख दी। बुढ़िया नहीं बैठी-दुसाध से हड्डी छुला जाती हैय फिर, .मैं बाभनी। बूढ़ा न बोला, सिर्फ अर्ज किया-आज तो दूसरे बाबू को बचन दे चुका हूं, कल आपका काम हो जायगा। बुढ़िया ने जिद की दृ नहीं, आज ही मेरा काम होना चाहिए। बीच ही में बड़ा लड़का बोल उठा-दुसाध .से हड्डी छुलाती है तो क्या घर नहीं छुलायगा बुढ़िया तमक उठी! – तुम मेरा अपमान करते हो? इसलिए न कि मैं निपूती हूं, मुझसे तुम्हें क्या डर, मेरा लड़का होता…। बुढिया पहले गरजी, अब बरस रही थी! बूढ़ा दुसाध भौंचक। हाथ जोड़कर आरजू-मिन्नत करता रहा-अभी चलता .हूं, हम अभी चलते हैं, बाबू का काम कल होगा, आज आप ही का। किन्तु, बुढ़िया वहां जरा भी क्यों ठहरती? घर लौटी।

इसी रास्ते वह जा रही थी, मामा जी ने कहा, मैंने देखा, उसके होंठ .जल्द-जल्द हिल रहे थे, आंखें लाल थी, ऑचल से आंसू पोंछती जाती। पीछे-पीछे बूढा दौड़ा जा रहा था। बूढ़े को रोककर मैंने दरियाफ्त किया, उसने सारी बातें सुनाईं। वह कांप रहा था-बाबू, बाल-बच्चेवाला हूं, न जाने क्या हो जाय?

और, विश्वास करोगे, तुम्हारी रंगरेजी विद्या इसका क्या माने- बतायगी, कि उसी रात में बूढ़े के बड़े बेटे को सांप ने काट लिया।

भोर में देखा, हाय, वह पट्ठा बेहोश पड़ा है। समूचा शरीर पीला पड़- गया है, मुंह से झाग निकल रहा है। गांव-गांव से सांप का विष उतारनेवाले- पहुंचे हैं। कोई जोर-जोर से मंत्र पढ़ रहा है, कोई उसको फटकार रहा है, कोई जड़ी पीसकर पिलाने की कोशिश में है, कोई उसकी नाक में कुछ सुधा रहा है १ जब-तक वह आंखें खोलता है, रह-रहकर हाथ-पैर फटकारता है, फिर निस्तब्ध हो रहता है। निस्तब्धता निस्पंदता में और निस्पंदता निर्जीवता में बदलती जाती है। बूढ़ा बाप छाती पीट रहा है, छोटा भाई दाढू मारकर रो- रहा है। मां और स्त्री की गत का क्या कहना! विष उतारने वाले कहते हैं, हम क्या करें! सांप का विष उतरता है न? यह तो आदमी का विष है! सीधा जादू, ठीक आधी रात को लगाया गया है, उतर जाय, तो भाग। बूढ़े का वैसा भाग्य नहीं था। धीरे-धीरे हमलोगों के देखते-देखते उसके जवान बेटे की अर्थी उठ कर रही! दूसरे ही दिन उसका सारा परिवार गांव छोड्कर चला गया!

अरे, यह बुढ़िया नहीं, काल है! आदमी नहीं, सांपिन है। चलती– फिरती चुड़ैल बाभनी है, नहीं तो, इसे जिन्दा गाड़ देने में कोई पाप नहीं लगता!

मामा की आंखें अब अंगारे उगल रही थीं। मैं चुप था! भावना पर- दलील का क्या असर हो सकता हैं भला ……..

शिवरात्रि का यह मेला। लोगों की अपार भीड़। बच्चे, जवान, बूढ़े लड्कियां, युवतियां, बूढ़ियां। शिवजी पर पानी, अक्षत, बेलपत्र, धूल, फल? फिर, एक ही दिन के लिए लगे इस मेले में घूम फिरय खरीद फरोख्त। धक्के-पर- धक्के। चलने की जरूरत नहीं. अपने को भीड़ में डाल दीजिए. आप ही-आप किसी छोर पर लग जाइयेगा। बच्चों और स्त्रियों की अधिकता! उन्हीं के लायक ज्यादा सौदे। खंजड़ी पिपही, झुनझुने, मिट्टी की मूरतें, . रबर के खिलौने, कपड़े के गुड्डे, रंगीन मिठाइयां, बिस्कुट, लेमनचूस। टिकुली, सेंदूर, चूड़ियां रेशम के लच्छे, नकली गोट, चकमक के पत्तेय आईना, कंघी, साबुन, सस्ते एसेंस और रंगीन पाउडर। भावसाव की छूट, हल्ला-गुल्ला। गहनों के झमझम में चूड़ियों की झनझन। साडियों के सरसर में हंसी की खिलखिल।

कहीं नाच हो रहाय कहीं बहुरुपिये स्वांग दिखा रहेय घिरनी और चरखी पर बच्चे झूले का मजा लूट रहे।

अकस्मात् एक ओर से शोर। पगली-पगली-पगली। छोडो-छोडो- छोड़ो। डायन, डायन, डायन। मारो, मारो-मारो।

एक औरत भागी जा रही है, अधनंगी, अधमरी। लोग उसका पीछा कर रहे हैं। बात क्या है?

मेले में आई एक युवती अपने बच्चे को एक सखी के सुपुर्द कर सौदा करने गई थी। सखी जरा चंचल स्वभाव की थी। बच्चे चंचल होते ही हैं। सखी लाल छड़ी की रंगीन मिठाई बेचनेवाले की बोली पर भूल गई-मेरी लाल खड़ी अलबत्ताय मैं तो बेचूंगा कलकत्ता! इधर बच्चा उसकी अंगुली छुड़ाकर, धीरे से वहां से निकलकर झुनझुनेवाले के पास पहुंच गया। जब सखी का ध्यान लाल छड़ी से हटा, तो वह व्याकुल होकर बच्चे को खोजने निकली। देखती क्या है, एक बुढ़िया उस बच्चे को गोद में लिये झुनझुने दे रही और मिठाइयां खिला रही है! कैसी उसकी सूरत-फटाचिटा कपड़ा, हल से भरा शरीर, बिखरे बाल, लाल-लाल आंखे, बड़ी-बड़ी टांग, बड़ी-बड़ी बांह! उसे देखते ही, वह चीख पड़ी–डायन! बुढिया चैंकी, गुर्राई-ऐं, क्या बोलती है? किन्तु वह तो चिल्लाए जा रही थी-डायन, डायन, डायन! हल्ला देख बच्चा चीखने लगा। बुढ़िया ने बच्चे को कंधे पर लिया! वह बुढिया के नजदीक पहुंचकर बच्चे को उससे छीनने की कोशिश करने लगी। एक हल्ला एक शोर, एक गौगा। अब बच्चा सखी की गोद में, और बुढ़िया को लोग पीट रहे हैं। बच्चा बार-बार उसकी ओर देखकर बुदिया बुदिया कह उठता है, . मानो उसकी मार पर तरस खाता हो, उसकी गोद को ललक रहा हो। किन्तु कौन उसपर ध्यान देता है?

बुढ़िया भागी जा रही हैय स्त्रियां, बच्चे, मर्द उसके पीछे लगे हैं १ -थोड़ी-थोड़ी देर पर वह रुकती है, दांत दिखाती है, हाथ जोड़ती हैः कभी-कभी गुस्सा होकर ढेले उठाती है। वह सिर्फ ढेले उठाती है, लोग उसपर ढेले फेंकते हैं। इसी भगाभगी में वह एक ऐसी जगह पहुंचती है, जहां पहले एक कुंआ था। अब उसकी गच खराब हो गई थी, वह भथ रहा था। भागने में व्याकुल, उसका ध्यान उस ओर न रहाय धड़ाम से उस कुंए में जा रही!

भीड़ रुकती है! कोई कहता है-मरने दो। कोई कहता है-निकालो। जब तक निर्दयता पर करुणा की विजय हो, तब तक वह जल-समाधि ले चुकती है!

यह उसकी लाश है! किसकी लाश? बुढ़िया की लाश-रूपा की आजी की लाश! रूपा की आजी की लाश? वह यहां कहां?

रूपा की शादी बड़ी धूम से की उसने। सारी जायदाद बेचकर। जिस भोर में रूपा की पालकी ससुराल चली, उसी शाम को वह घर छोड्कर चल दी। कहां? कौन जाने? इतने दिनों तक वह कहां-कहां की धूल छानती आज पहुंची थी इस मेले में! क्यों? क्या रूपा को देखने? उसके बच्चे को देखने, ! क्या वह रूपा का बच्चा था? उसने परिचय क्यों न दिया?

छोड़िए उस चर्चा को।

बहुत दिन हुए, रविबाबू की एक कहानी पड़ी थी। एक भद्र परिवार की महिला हैजे से मर गई। लोग जलाने को श्मशान ले गये। चिता सजाई जा रही थी कि वर्षा होने लगी। चिता छोड्कर लोग बगल की अमराई की मैड़ैया में छिप रहे। काली रात थी। जब वर्षा खतम हुई, उन्होंने पाया, चिता से मुर्दा गायब! क्या सिंयार खा गये? खोज-ढूंढ फिजूल गई।। किन्तु, किस तरह बाबूसाहब से कहा जायगा कि उनकी असावधानी से मुर्दा गायब, हुआ? झूठमूठ चिता में आग लगाकर चले आये। इधर बेचारी महिला पानी की बूंद से जीवन पा चिता से उठी। दिनभर खेतों में छिपी रही, भद्रकुल की महिला थी। रात में जब घर पहुंची, दरवाजा खटखटाया। उसकी बोली सुन, लोग दौड़े-अरे, भूत, भूत! – नैहर पहुंची, वहां भी भूत-भूतय बहन के घर पहुंची, वहां भी भूत-भूत। जहां जाय, वहीं भूत, भूत, भूत! आखिर उसने अपने को गंगा की गोद में सिपुर्द कर दिया।

क्या रूपा की आजी भी कुछ इसी तरह लोकापवाद की शिकार नहीं हुई ? धटनाओं ने उसके साथ साजिशें कींय लोगों ने जल्लाद का काम किया!

(रचनाकार डॉटकॉम से साभार प्रकाशित)

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