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तलाश नयी किरण की…

तलाश नयी किरण की…

-सुदर्शन वशिष्ठ-

लगता, यह बच्चा नहीं है। बच्चे की डम्मी है, शो केस में। कभी लगता, कद-काठी तो बच्चे की है, वैसे सयाणा आदमी है, धीर गम्भीर। बच्चे तो पल भर भी टिक कर नहीं बैठ सकते। करने को कुछ न हो तो ऐसे ही बैठे-बैठे हिलते रहेंगे। यह तो गुमसुम। जैसे स्कूल में न हो कर किसी खुफिया एजेंसी में ट्रेनिंग ले रहा हो।
हैरी… हैरी…! बार बार छेड़ता चिंतामणि, हैरी! क्या कर रहो हो। कम्प्यूटर पर बैठे हो… अरे! बैठे तो चेयर पर हो, कम्प्यूटर तो सामने है।
वह कम्प्यूटर में न जाने क्या-क्या खेलता रहता। यही उसका प्ले ग्राउंड था। वे बाहर खेलने नहीं जाते। बाहर ऐसी खुली जगह भी तो नहीं थी। पहाड़ों में ग्राउंड कहां होते हैं! उनकी गेम, ग्राउंड, साथी, मित्र कम्प्यूटर ही था। वहीं बाईक चलाते, तेज गति की कारें दौड़ाते। उनका तन नहीं, मन दौड़ता।
ग्रेंडपा!…. क्या पागलों की तरह हर समय आवाजें लगाते रहते हो। चुप नहीं रह सकते……। रिया डांटती। रिया थोड़ी चंचल थी। नटखट भी थी। हालांकि हैरी से एक ही साल छोटी थी।
अकस्मात ही आई रिया। उसके आने से पहले बड़ी हाय तौबा मची थी। …इतनी जल्दी अगला बच्चा नहीं…. बहु ने चीखोपुकार मचाई।
कोई बच्चा शोर नहीं मचाता। दोनों मोटे चश्मों से ऐसे देखते, जैसे देख नहीं रहे हों। बात करते, जैसे बात नहीं कर रहे हों। बच्चे थे ही कितने! दो ही तो थे। शाम होते ही दोनों अपने अपने कमरों के बंद हो जाते। दस-बारह साल की उम्र में ही इतने सयाने हो गए कि अपना कमरा खुद अपने ढंग से सजाने लगे। चिंतामणि तो दसवीं जमात तक मां के साथ सोता था।
यह बच्चे इतने ज्ञानी होने पर भी इनडिफरेंट क्यों हो गए। परिपक्व होते इन बच्चों की बहुत चिंता होती… जैसे कोई फल समय से पहले पक तो जाए, साइज में घटता जाए। या जैसे कोई बरगद सा पेड़ बोनसाई हो जाए। क्या होगा…क्या करेंगे! वैसे तो बच्चे बड़े होते जाते हैं, हम बूढ़े। यहां बच्चे बूढ़े होते जा रहे हैं और हम बच्चे बनते जा रहे हैं।
एक दिन हैरी ने पूछा थाः ग्रेंडपा! आप रिटायर हो गए…. क्या अब घर में ही रहेंगे! घर में क्या करेंगे पूरा दिन…. कोई जॉब क्यों नहीं कर लेते। आप तो बिना ऐनक पढ़ लेते हैं। चुप रह गया चिंतामणि। दादी ने किचन से ही तपाक से जबाब दियाः बेटा! अब ये कुछ नहीं कर सकते।
धक्का सा लगा चिंतामणि को। रिटायरमेंट को चिंतामणि ने सहजता से स्वीकारा था। रिटायरमेंट के तीन महीने बाद एक बार जब ऑफिस गया तो एक सहयोगी ने कहाः यार! आप तो आधे रह गये…. क्या हुआ! भाभीजी खाने को नहीं देते या रिटायरमेंट को आपने दिल से लगा लिया।
सुबह-सुबह घर में तूफान सा मच जाता, सुनामी की तरह। किसी का ट्रेकसूट सोफे पर लटक जाता। किसी की टाई दरवाजे से झूलती। कोई गीला तौलिया लिहाफ पर छोड़ देता। किसी का टूथ पेस्ट डाइनिंग टेबल पर चम्मच की जगह रखा मिलता। सात साढ़े सात तक सब जैसे कठपुतली बन जाते। एक अजीब सी हलचल घर के सभी कमरों में मच जाती। सर्दी हो या गर्मी, चिंतामणि छह बजे उठ जाता। पुरानी आदत थी। बड़े आराम से किचन में अपनी पसंद की अदरक वाली चाय बना बालकनी में बैठ जाता ताकि किसी के बीच न अड़े। सर्दियों में अपने कमरे में लिहाफ में गर्दन दिए ऊंट की तरह पसरा रहता। बाहर निकलना तो जोखिमभरा काम था। अपने कमरे का कब्जा उसने नहीं छोड़ा था। पत्नी तो कभी किसी बच्चे के साथ सो जाती थी। जब वह अपनी जगह से नहीं हिलता तो पत्नी बड़बड़ातीः अरे! कहां छिप गए… अब ऑफिस तो जाना नहीं है… जरा सब्जी तो हिलाओ…. कुछ तो कर पैर हिलाओ….ऐसे ही पसरे रहते हैं। सारी उम्र इसी मक्कारी में गुजार दी। बहू को भी नौ बजे तक स्कूल जाना होता था, सुबह का नाश्ता सास ही तैयार करती।
कभी बेटा कहताः पिताजी! लॉफ्टर क्लब चले जाया करो। सुना है वहां सुबह कई लोग जाते हैं। सण्डे को जब घर में शान्ति होती, लॉफ्टर क्लब से अजीब सा शोर सुनाई पड़ता।
चिंतामणि का गांव में एक भाई है मुक्तामणि। जब भी मिलता है, पहले हंसता जाता है, बात बहुत बाद में। जब भी फोन आए पहले हंसता जाता है, चाहे बिल कितना क्यों न आ जाए। हंसने के बाद पूछता हैः हा हा हा…मैं बोल रहा हूं…हा हा हा… भाऊजी कैसे हैं, ठीक हैं! हा हा हा य भाभीजी कैसे है, ठीक हैं! हा हा हा य भतीजा कैसा है, ठीक हैं! हा हा हा…।
उधर कभी कभी लॉफ्टर क्लब से ऐसा शोर आता जैसे लोग गहरे कुएं में बचने के लिए चिल्ला रहे हांे। इधर कोई अपनी नेकर ढूंढ रहा है, तो कोई जुराबें। कभी-कभी इस हुड़दंग के बीच आकर वह हाथ बंटाने की कोशिश करता।
सबके चले जाने पर नौ बजे तक सुनामी थमता। पूरे घर में किताबें, मैले कपड़े, टूथब्रश, जांघिए, बनियान, जूठन के टुकड़े बिखरे होते। दूसरी बार चाय की तीव्र इच्छा होने पर वह बड़ी सावधानी से बचता बचाता, उचक-उचक कर कदम धरता किचन में जाने की कोशिश करता। पत्नी नहाने गई हो तो बिना आवाज किए, जल्दी से पैन ढूंढ कर निकाल लाता जो अब तक पत्ती से भरा और काला पड़ गया होता। कभी पत्नी की दहाड़ सुनाई पड़ती तो पैन हाथ से गिरने को हो जाता।
इतने में रेस्क्यू ऑपरेशन की तरह बाई आ धमकती। आते ही बाई टेबल पर मोबाइल रखती जो रखते ही बज उठता…मुन्नी बदनाम हुई ड्रालिंग तेरे लिए… गाना बंद कर बाई जोर से चिल्लातीः हैलो! कौण बोल रिया है…। दूसरी ओर से आवाज गूंजतीः कहां है तू साली!… घर घर का गंद खाती है… कब आएगी… मेरा जाणे का टैम हो रिया है…।
हां, आ रई हूं… थोड़ी ठण्ड रक्ख… यूंही इंजन की तरा गरम होई जा रिया है।
बाई के आने पर रेस्क्यू की जगह एक आतंक सा छा जाता। अब सारा घर उसका था। झाड़ू उठा कर एक कमरे से दूसरे, दूसरे से तीसरे में बेखटके घूमती जैसे रिसर्च आर्डर ले कर आई हो। वह कुर्सी पर पांव रख कर उकड़ूं बैठ जाता। बाई पूरे घर की धूल उस पर उंडेलती।
घर में बाई लगाने के वह शुरू से खिलाफ रहा। अरे! सारी आजादी खत्म हो जाती है। न जोर से बोल सकते हैं। न गा सकते हैं। न कुछ कर ही सकते हैं। जब तक बाई घर में रहती है, पूरे घर में उसी का साम्राज्य चलता है। किसी को वह अपने आसपास फटकने नहीं देती।
कुछ दिनों से बाई अपने साथ अपना बच्चा भी लाने लगी थी।…. इस करमजले को कहां छोड़ूंगी… यह शर्त लगा दी थी। वह उसे खिलाने की कोशिश करता। बाहर जाने लगता तो बाई कहती…घूमने जा रए हो तो इसे भी ले जाओ न अंकिल….।
पत्नी कहती तो उसे थी, सठिया खुद गई थी। बाई के रहने तक दो घण्टे पूजा में ही बैठी रहती। वह बाई के बच्चे को कॉलोनी की सड़कों में घुमाता।
चिंतामणि ने तीन बैडरूम का फ्लेट लेकर भीतर सारा काम खुद करवाया। दूर की सोच कर स्टोर के चैथे कमरे को अपने लिए बनवा लिया जिसमें रिटायरमेंट से पहले ही काबिज हो गया।
चिंतामणि मिश्र…. प्रायः सभी उसे मिश्रा साहब कहते। साथी अफसर याराने में सीएम भी कहते। सीएम यानी चीफ मिनिस्टर। अपने ऑफिस में उसकी हैसियत चीफ मिनिस्टर से कम न थी। जो चाहे, वह करवा लेने की क्षमता थी उसमें।
नौकरी में रहते कभी इस शहर में बसने की सोची न थी। गांव में इतना बड़ा मकान। वहां रिपेयर करवाई। लेंटर डलवाए, मॉडर्न टॉयलेट बनवाए। नौकरी के कारण बच्चे शहर में पले, बड़े हुए। सभी गांव के नाम पर नाक भौं सिकोड़ने लगते जैसे गोबर की बास आ रही हो। अंततः यही फ्लेट लेना पड़ा। वह अब भी बार बार गांव चले जाने की धमकी देता रहता।
यह भी एक सुनामी ही था जिसने चिंतामणि का जहाज शहर के बीचोंबीच ला पटका।
उस समय मिश्रा का दबदबा जितना ऑफिस में था, उतना ही घर मंे भी था। घर और ऑफिस का बेताज नहीं, ताज पहने बादशाह था मिश्रा… इतना ब्रिलिएंट कैरियर… एक ही झटके में प्रशासनिक सेवा में आ गया। एफआर, एसआर के नियम तो संस्कृत श्लोकों की तरह जुबानी याद थे। उसकी लिखी नोटिंग से असहमत होना आसान नहीं होता। रिटायर होते होते ज्चाइंट सेक्रेटरी तक पहुंच गया।
बड़ा जहाज एकदम नहीं डूबता। उसे डूबने में समय लगता है। ऐसे ही कुछ हुआ चिंतामणि मिश्र के साथ भी। उसका जंगी जहाज महीनों, सालों समुद्र में हिचकोले खाता रहा। दूर से देखने पर लगता नहीं था कि वह डूब रहा है।
पहले ऐसी नहीं थी शारदा। ज्यादा नहीं, प्लस टू तक पढ़ी थी। पिता ने संस्कारमय घर ढूंढा था और परंपरागत ढंग से विवाह किया। विवाह से पहले ग्रहों के मिलान के साथ साथ 28 गुण भी मिलाए। विवाह के तुरंत बाद एक आकर्षण रहता है जो एक दूसरे को बहुत करीब लाता है। पचपन के बाद शारदा में एकाएक परिवर्तन आ गया। चिंतामणि जब जीवन में तरक्की और परिपक्वता की ओर बढ़ रहा था, शारदा उदासीन सी हो गई। एकदम मर्दाना सी। पचास-पचपन साल की उम्र में जो सब औरतों के साथ होता है, उसके साथ भी हुआ। इसके बाद एक बदलाव जो आया, वह नॉर्मल नहीं हो पाया। ……ऐसे तो कोई एकदम बदल नहीं जाता। अपना गुण धर्म कोई नहीं छोड़ता। …….वह तो जैसे औरत से मर्द हो गई।
चिंतामणि को लगता, यह जो औरत सामने बैठी है, वह नहीं है। कोई और ही है। इसकी आंखों की कोरों में दुर्दिनों सी झुर्रियां हैं। माथे पर अतृप्ति की लकीरें हैं। चेहरा मोटा, मुर्झाया, सख्त और क्रूर हो गया है। यही नहीं, इसकी काया ही नहीं, मन भी बदला हुआ है। शरीर ही नहीं, सोच भी बदली हुई है। वह जो थी…. एकदम खिली हुई, धूप सी उजली। हंसमुख, मखमली हाथ, ताजिंदगी साथ। रंगीन चिड़िया सी सदा चहचहाती, फुदकती, उड़ती, डाल डाल पर बैठती। कोयल सी गाती, हिरणी सी मदमाती। जिसकी चंदन गन्ध से समूचा वातावरण महक उठता, वह मुट्ठी में बंद रखना चाहता। छांव सी डोलती, वह सोना चाहता। गिलहरी सी भागती, वह देखना चाहता। तितली सी उड़ती, वह पकड़ना चाहता। बदली सी घुमड़ती, वह छूना चाहता। लहर सी उछलती, वह पीना चाहता।
यह क्या हुआ उसे…. सारी मस्ती, सारी स्फूर्ति किसने निचोड़ ली!
अरे! मेरी दुनिया देखते ही देखते कैसे बदल गई! यह सब एकाएक नहीं हुआ। कब-कब होता गया, पता भी न चला।
यह हुआ क्या… समझ नहीं आता।
कभी पूरे परिवार की धुरी था चिंतामणि। सारा दारोमदार उसी पर होने से एक दबदबा भी रहता था। बेटा पढ़ाया, ब्याह किया। दो बेटियां ब्याहीं। सामाजिक रुतबा, आर्थिक सम्पन्नता ने एक संतुलन और समीकरण बनाए रखा। हालांकि इस बात का उसे उस समय भी दुख ही रहा कि शारदा ने उसकी लाई किसी भी चीज की कभी प्रशंसा नहीं की। उसमें हमेशा कोई न कोई नुक्स ही निकाला। सब्जी लाई तो बोला-बासी हैय फ्रूट लाया तो कहा-सड़ा है। चने की दाल लाई तो कहा-मसर की चाहिए थीय चीनी लाई तो कहा:- शक्कर चाहिए थी। कपड़ा तो कभी शौक से पहना ही नहीं। वह जो भी लाया, वह कई दिन उपेक्षित पड़ा रहा। फिर किसी बेकार समझे जाने वाले रिश्तेदार को बांट दिया। उसके मां-बाप, रिश्तेदारों को कभी खुशी से कुछ नहीं लेने दिया। बहुत बार कहा-सुनी की नौबत भी आई। मारपीट वश में नहीं थी, भद्दी गालियां उसके मुंह पर आती नहीं थीं। हां, कभी अति होने पर चिल्लाया भीः तेरी मां सनकी थी, तेरा बाप पागल था। वहीं से तेरे में आया है। बच्चे बड़े होने पर जब झगड़ा होता तो चिंतामणि मारे शर्म के बोल नहीं पाता। शारदा देर तक बुदबुदाती रहती।
आज, यह स्थिति और भी शोचनीय बन गई थी। यदि वह लेटा हो तो कहती, लेटे क्यों हो। खड़ा हो तो बोलती, खड़ा क्यों है! बेटे को उसने पूरी तरह अपने पक्ष में कर लिया था। बहु भी सास का पक्ष लेती मुफ्त की नौकरानी मिली है, तूझे एक दिन ये बाहर करेंगे, तब मैं भी नहीं रखूंगा, याद रखना…चिंतामणि बुदबुदाता।
क्या अब उसे एक और लड़ाई लड़नी होगी…. उम्र के इस पड़ाव पर। क्या लड़ाई लड़े जाने के लिए कोई उम्र होती है! उसमें अभी भी वह चुस्ती है, वह फुर्ती है। वह दम है, वह खम है।
मन नही मन एक खुफिया प्लान बनाया चिंतामणि ने। कुछ कमजोरी महसूस होने पर वह रिटायरमेंट के एक साल बाद चैकअप के लिए डॉक्टर के पास गया था। डॉक्टर ने बीपी चैक किया, जो ठीक निकला।
एक दिन सुबह ही उसने महसूस किया, वह कूड़े कबाड़ के बीच अकेला बैठा है। यदि वह हिले डुले नहीं तो बाई उसे कबाड़ के साथ बुहार देगी। उसने फुर्ती से हाथ बाजू हिला कर शरीर को कसरती अंदाज में ऊपर से नीचे खींचा और खड़े हो कर बाई के बच्चे को उठा कर हवा में उछाल दिया। बाई का बच्चे की घिग्घी बंध गई और दोबारा उसकी बांहों मंे आने तक चेहरा नीला पड़ गया। इससे पहले कि वह रोता, गोद में उठा नीचे ले गया। उसी दिन अस्पताल जाकर उसने सारे टेस्ट करवा डाले। सही रिपोर्ट देख कर उसे लगा, वह एकाएक स्वस्थ हो गया है। न घुटनों में दर्द, न पीठ में ऐंठन। न मन में अविश्वास, न शंका। पेट एकदम सही, भूख भी ठीक लगती है। फिर परेशानी क्या है! बासठ को छूते लगा, अभी तो उससे आधी उम्र का है।
घोर निराशा और अवसाद के वातावरण में उसने फिर से एक नई जिंदगी जीने की सोची।
वह फिर से नया जीवन आरम्भ करना चाहता है। बासठ के बाद कम से कम पन्द्रह बरस तक जिएगा। जैसा कि डॉक्टर कहते हैं, आदमी की उम्र बढ़ी है। पचासी तक तो है ही। आज के डॉक्टरों की न भी सुनें तो दादू बिना डॉक्टर के पचानवें साल तक जिए। पिता सत्तासी साल के हो कर गुजरे। इन पन्द्रह बरसों में नई दिशाएं खोजेगा। लगने लगा…बासठ के बाद जैसे उसका पुनः जन्म हुआ है…वह अभी दो साल का है।
फिर उसी जिंदगी की तलाश… जो चालीस बरस पहले रही, उमंगों तरंगों से भरी। …. जब कदम धरती पर नहीं पड़ते…. जब पंछी की तरह उड़ने को मन करता है….पंछी बनूं उड़ता फिरुं मस्त गगन में….फूल, पत्ते और बीज की तरह उड़ता चला जाऊं। दूर… कहीं दूर….जा गिरुं….जहां कोई न जाने, न पहचाने।…….जहां दूसरा जहां हो, दूसरी जिंदगी हो। वहां दोबारा उग कर कोमल कोंपलों से भर जाऊं।……एक बार फिर नया हो जाऊं।
पोता कम्प्यूटर से ऐसे खेलता है जैसे वह बचपन में गुल्ली डण्डा खेलता था। पोते से उसने फेज बुक बनाना सीखी। ब्लॉग बनाना सीखा। फेज बुक में अपना प्यारा सा फोटो डाला। अपने शौक, हॉबीज लिखीं। कइयों से मित्र बनने के ऑफर आए। इनमें साउथ ईस्ट की एक महिला संेड्रा भी थी। सब को वह तुरंत रेप्लाई करता। ब्लॉग में अपने मन के उद्गार और अंट शंट लिखने लगा। शुरुआत इस शैर से की: गो हाथ में है जुम्बिश, आंखों मंे भी दम हैय रहने दो भईया, सागर-ओ-मीना मेरे आगे।
एक दिन बड़ी मेहनत से एक ड्राफ्ट तैयार किया चिंतामणि ने। उमदा पोज में एक फोटो ढूंढा। अब उसने स्वयं भी जान लिया था कि उसका चेहरा टेंशन में रहता है। कभी-कभी तो बड़ा अजीब हो जाता है, बंदर जैसा। भौंहें एकदम उठी हुईं, माथे पर लकीरें। अजीब सी हंसी। उसने पहले चिंतनशील मुद्रा में, फिर संवेदनशील मुद्रा में, फिर भाषण देते हुए और अंत में अपना हाथ ठोडी पर रखे नेहरू पोज में फोटो चुना। नाम रखा सीएम मस्तमौला जिससे जाति का बोझ भी जाता रहे।
ड्राफ्ट कुछ यूं तैयार कियाः
चिंतामणि मस्तमौलाय उम्रः सिक्स्टी प्लसय बाल काले और घुंघराले, कलमें कुछ कुछ सफेद। बीपी नॉर्मल, लिपिड प्रोफाइल एकदम सहीय केलेस्ट्रोलः सही, एलबूमिनः निल, शूगर बी यूरियाः सही, एमपीः नेगेटिव, टीएलसी, डीएलसीः बिलकुल सहीय ईसीजी नॉर्मलय दायित्व कोई नहीं, पुश्तैनी मकान, पेंशन चार अंकों में।
मैट्रिमोनियल के स्पेलिंग चैक किए और कम्प्यूटर में सेव कर दिया। बाई जा चुकी थी। बाहर शान्ति थी। जैसे तूफान से पहले या तूफान के बाद होती है। पत्नी दाल से कंकड़ निकाल रही थी। उसने भरपूर नजरों से पत्नी की ओर देखा और जोर से हंस दिया। पत्नी ने जैसे उसे देखा और बुदबुदाई…. पागल!
वह विजेता की तरह मुस्काया और गुनगुनाता हुआ सीढ़ियां उतर गयाः ………
गिव मी सम सनशायन…गिव मी सम रेन…गिव मी ऐनअदर चांस फॉर ए ग्रो अप वंस अगेन…।

सियासी मियार की रीपोर्ट