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सिस्टम को सोचने की जरूरत है….

सिस्टम को सोचने की जरूरत है….

-प्रियंका सौरभ-

पेरिस ओलिंपिक-2024 में सभी देशों को टक्कर देता इकलौता विश्वविजेता देश जापान आज हम सभी के लिए ज्योतिपुंज है। 14 साल का जापानी किशोर गोल्ड मेडल ला रहा है और हम 140 करोड़ का देश एक मेडल पर राजनीति श्रेय लेने की होड़ में वाहवाही कर रहे हैं।

हर खिलाड़ी की व्यक्तिगत जीत देश के लिए न्यौछावर है लेकिन हम कहां हैं ये जानना जरूरी है मेडल लिस्ट में। जहां कॉलेज और स्कूल स्टूडेंट्स ओलंपिक मेडल ले आते हैं उनको बचपन से फोकस, जिम्मेवारी और निपुणता कैसे लानी है सिखाया जाता है। आज तक के हर ओलंपिक की यह तस्वीर आप खुद देखिए अब आगे क्या कहूं? एक-एक मेडल के लिए तरसते इस देश में जब हमारे स्टार खिलाड़ी सब कुछ मिलने के बाद राजनीति का स्वाद भी लेना चाहते हैं तो मन खट्टा हो ही जाता है। देश की हालात देखिए ओलंपिक में मेडल के लिए तरसते हैं और कोई एक मेडल जीत जाए तो राजनीतिक लाभ लेने के लिए पैसों की बारिश कर देते हैं लेकिन जो खिलाड़ी अभ्यास कर रहे होते हैं उनके लिए कोई सुविधा उपलब्ध नहीं कराते। भारत जैसा देश शायद ही कोई दूसरा होगा। ऐसे ही कारणों से आज सफल लोग देश छोड़ रहे हैं।

अपने देश मे योग्यता तो जन्म के साथ जाति विशेष में पैदा होने से ही आ जाती है, 9वीं फेल भी जाति आधार पर योग्यता के सर्टिफिकेट बांटते मिल जाएंगे लेकिन 140 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या वाला देश 1947 में देश की आजादी के बाद भी ओलंपिक जैसे विश्वस्तरीय खेलों मे एक एक गोल्ड मेडल के लिए तरस रहा है। हे, महानुभावो, जातियों में महानता खोजना योग्य नहीं अयोग्य लोगो की पहचान है। ये जो ग्रेट जाति बनने की बीमारी लोगों मे लगी है, ये कोढ़ से भी ज्यादा घातक है। कोढ़ तो शरीर पर हमला करता है, जातियों में महानता तो सीधा दिमाग मे कोढ़ लगाता है। आदमी कब नफरत का आदी हो जाता है, कब अपराधी होने मे गर्व तलाशने लगता है- पता भी नहीं लगता। खिलाड़ी एक खिलाड़ी होता है और देश का प्रतिनिधित्व करता है फिर क्यों एक विशेष जाति के नारे हावी हो जाते है। यहीं हम हार जाते है।

पता नहीं हम कब सुधरेंगे? आबादी के लिहाज से छोटे से मुल्क ऑस्ट्रेलिया की अकेली खिलाड़ी एम्मा मैकेन ने टोक्यो ओलंपिक-2021 में 4 गोल्ड व 3 ब्रॉन्ज मैडल जीते। ऑस्ट्रेलिया में उसे कोई पूछने तक नहीं आया, क्योंकि वहां के लोगों या सरकार के लिए या राजनेताओं के लिए यह उपलब्धि कोई खास मायने नहीं रखती। और दूसरी तरफ हम 140 करोड़ भारतीय सिर्फ एक मेडल पर ही पागल हो जाते हैं।

ऐसा इसलिए है कि इस देश में चढ़ते सूरज को नमस्कार किया जाता है। गरिमा, गौरव और प्रतिष्ठा के बिना ही यहां जीवन चलता रहता है। आज भी यहां चीन का सामान खरीदा जाता है। जो फिल्मी कलाकार तुर्किये जाकर शूटिंग करते हैं उनका बहिष्कार तक करने की किसी की हिम्मत तक नहीं होती है। यहां विदेशी लुटेरों को पूजा जाता है। विदेशी आक्रांताओं के अधीन रहने से हमें तिल-तिल कर मरने की आदत पड़ गई है। जो भी हो रहा है वो सब भगवान की मर्जी मान कर जीने की कला सीख ली है। शत्रुता या मारक भाव के अभाव के कारण पता ही नहीं चलता कि कौन हितैषी है और कौन विद्वेषी। विश्वसनीयता के नाम पर हम हमेशा देश हित से ऊपर जाति, वर्ग, धर्म, परिवार-कुटुम्ब, गांव, प्रदेश, क्षेत्र, सम्प्रदाय, व्यवसाय और व्यक्तिगत लाभ को रखते हैं।

खिलाड़ी जीत कर आएं तो उन्हें करोडों मिलते हैं, लेकिन जो देश की रक्षा के लिए अपने परिवार की परवाह न करते हुए अपनी जान न्यौछावर कर दे उसे बस 1 मेडल..? मैं मैडल की तुलना पैसों से नहीं कर रही हूं, यह तो अनमोल है, लेकिन जो देश के लिए अपने घर वालों को छोड़कर चला गया उनकी फैमली, बच्चे, माता-पिता की जिम्मेदारी किसकी..? सच तो ये है कि आज पैसों से ही सब होता है। भावनाओं और सम्वेदनाओं से जीवनयापन नहीं किया जा सकता। यह भी सत्य है कि दोनों चाहे खिलाड़ी हो या जवान देश का गौरव बढ़ा रहे हैं। फिर जवानों के साथ ऐसा क्यों..? सिस्टम को सोचने की जरूरत है। खिलाड़ियों को खिलाड़ी रहने दें। युद्ध के नायक न बनाए।