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बदलती जरूरतों के हिसाब से प्रशिक्षित हों युवा

बदलती जरूरतों के हिसाब से प्रशिक्षित हों युवा

-सुरेश सेठ-

दुनिया तेजी से परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। कामकाज के तरीके तेजी से डिजिटल और स्वचालित हो रहे हैं। रोबोटिक शक्ति इसका आधार बन रही है। कृत्रिम मेधा भी मुख्य सहयोगी के रूप में उभर रही है। यानी भारत में उत्पादन, निवेश और खेती-किसानी के तरीके भी बदलेंगे।

विशेषज्ञों के अनुसार अगले दस सालों में कामकाज के घंटों और नौकरी करने के तौर-तरीकों में परिवर्तन आएगा। एआई और रोबोटिक्स के चलते स्थायी व्यवस्था की जगह गिग अर्थव्यवस्था सामने आएगी। इसमें जरूरत के अनुसार अस्थायी कर्मचारियों को काम पर रखने का चलन बढ़ेगा। इसके साथ ही, काम के घंटे बदलने के कारण पारंपरिक नौकरियों की व्यवस्था के अतिरिक्त कर्मचारी संविदा के आधार पर विभिन्न सेक्टरों-कंपनियों में एक साथ कई जिम्मेदारियां संभाल सकेंगे। इसका असर डिजिटल और इंटरनेट की दुनिया में अभी से दिखने लगा है। आईटी एक्सपर्ट वर्क फ्रॉम होम करते हुए एक साथ कई कंपनियों का काम संभाल रहे हैं। पिछले दिनों एक प्रस्ताव सामने आया था कि काम के घंटे 10 से 14 कर दिए जाएं, क्योंकि आईटी क्रांति का सामना इसी तरह से किया जा सकेगा। बहरहाल, कामकाजी दुनिया की हकीकत बदल रही है।

हाल के बजट में वित्तमंत्री ने भी जिन पांच क्षेत्रों में नौकरी की व्यवस्था पर ध्यान केन्द्रित किया है, उसमें कृत्रिम मेधा और रोबोट्स की दुनिया के प्रयोग को नकारा नहीं है। भारत, जिसकी आबादी इस समय दुनिया में सबसे अधिक है, क्या वह कृत्रिम मेधा या रोबोट का उपयोग उसी तरह कर सकता है जैसे शक्ति-संपन्न पश्चिमी देश करते हैं, जहां आबादी की कमी है। बजट सत्र में वित्तमंत्री ने नई नौकरियों के लिए दो लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। इसके द्वारा अगले पांच साल में 4.1 करोड़ नौजवानों को विशिष्ट प्रशिक्षण दिया जाएगा ताकि वे रोजगार की दुनिया में खुद को अनुकूलित कर सकें।

देश में आज भी आधी आबादी से कम खेतीबाड़ी में लगी हुई है। प्रश्न है कि वहां से सकल घरेलू आय में केवल 15 प्रतिशत का योगदान ही क्यों मिल रहा है? आंकड़े बता रहे हैं कि कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी दर बढ़ी है। इसके अतिरिक्त, ऐसे बेरोजगार भी हैं जो पारंपरिक तरीके से अपनी पैतृक खेतीबाड़ी के धंधे में लगे रहते हैं, लेकिन देश की निवल आय में उनका कोई योगदान नहीं है। इस अनुपयोगी युवा शक्ति का इस्तेमाल किसी ऐसे वैकल्पिक धंधे में होना चाहिए जो उन्हें ग्रामीण स्तर पर ही वहीं काम उपलब्ध करवा दे। लघु और कुटीर उद्योगों का विकास और फसलों को पूर्ण रूप से तैयार करके सीधे मंडी में बेचना भी एक समाधान हो सकता है। बजटीय घोषणाओं में अगले वर्ष अखिल भारतीय सहकारी अभियान चलाने का वादा है। इसके अंतर्गत इन सभी लोगों को काम मिलेगा। लघु-कुटीर उद्योगों की बातें तो होती हैं लेकिन लाल डोरा क्षेत्र में भी ग्रामीण युवा शक्ति के स्थान पर शहरी निवेशक ही प्रवेश करता नजर आता है।

निस्संदेह, जब निजी क्षेत्र का विकास होगा और नये कारखाने खुलेंगे या फसलों पर आधारित छोटे उद्योग बढ़ेंगे, तो लोगों को स्वाभाविक रूप से रोजगार मिल जाएगा। सरकार द्वारा नौकरियां देने की क्षमता बहुत कम है। बेरोजगारों को सरकारी नौकरी देने का प्रतिशत 30 से अधिक नहीं रहा। आर्थिक प्रोत्साहन और नए निवेश के बावजूद देश अधिक से अधिक हर साल 70 लाख नौकरियां ही प्रदान कर पाएगा, जबकि देश के युवाओं को हर वर्ष कम से कम एक करोड़ नौकरियों की आवश्यकता पड़ेगी। क्या निजी क्षेत्र, सरकार के सभी प्रोत्साहनों, सब्सिडियों, मुद्रा योजनाओं और लोन क्षमता बढ़ाने के बावजूद इस कसौटी पर पूरा उतर सकेगा? बेशक, इस बार के बजट में मुद्रा योजना के तहत कर्ज की सीमा 10 लाख से बढ़ाकर 20 लाख प्रति इकाई कर दी गई है। नया प्रशिक्षण प्राप्त करने की इंटर्नशिप पर सबसिडी भी दी जा रही है। लेकिन क्या इतना काफी है?

देश में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों को अभी भी उचित महत्व नहीं दिया जा रहा। शिक्षा बजट में केवल सवा लाख करोड़ रुपये और सेहत पर केवल 89 हजार करोड़ रुपये की वृद्धि हुई है। यह युवा शक्ति को स्वस्थ-शिक्षित नागरिक बनाने हेतु काफी नहीं है।

शिक्षाविदों के अनुसार, पुरानी शिक्षा पद्धति से निकले हुए 75 प्रतिशत ग्रेजुएट्स नई डिजिटल व्यवस्था में नौकरी के योग्य नहीं हैं। इसलिए, युवा शक्ति को अपनी डिग्री से कहीं नीचे के काम करने के लिए समझौता करना पड़ता है। देश में काम देने में असंगठित क्षेत्र का बहुत बड़ा योगदान रहा है, लेकिन डिजिटलीकरण के साथ असंगठित क्षेत्र भी बिखरता नजर आ रहा है। जरूरी है कि बेरोजगारों के संघर्ष को बेहतर ढंग से समझा जाए और बदलते समय की मांगों के अनुसार युवा शक्ति को प्रशिक्षित करके उसे सही दिशा में कार्यशील बनाया जाए।

-सुरेश सेठ-

दुनिया तेजी से परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। कामकाज के तरीके तेजी से डिजिटल और स्वचालित हो रहे हैं। रोबोटिक शक्ति इसका आधार बन रही है। कृत्रिम मेधा भी मुख्य सहयोगी के रूप में उभर रही है। यानी भारत में उत्पादन, निवेश और खेती-किसानी के तरीके भी बदलेंगे।

विशेषज्ञों के अनुसार अगले दस सालों में कामकाज के घंटों और नौकरी करने के तौर-तरीकों में परिवर्तन आएगा। एआई और रोबोटिक्स के चलते स्थायी व्यवस्था की जगह गिग अर्थव्यवस्था सामने आएगी। इसमें जरूरत के अनुसार अस्थायी कर्मचारियों को काम पर रखने का चलन बढ़ेगा। इसके साथ ही, काम के घंटे बदलने के कारण पारंपरिक नौकरियों की व्यवस्था के अतिरिक्त कर्मचारी संविदा के आधार पर विभिन्न सेक्टरों-कंपनियों में एक साथ कई जिम्मेदारियां संभाल सकेंगे। इसका असर डिजिटल और इंटरनेट की दुनिया में अभी से दिखने लगा है। आईटी एक्सपर्ट वर्क फ्रॉम होम करते हुए एक साथ कई कंपनियों का काम संभाल रहे हैं। पिछले दिनों एक प्रस्ताव सामने आया था कि काम के घंटे 10 से 14 कर दिए जाएं, क्योंकि आईटी क्रांति का सामना इसी तरह से किया जा सकेगा। बहरहाल, कामकाजी दुनिया की हकीकत बदल रही है।

हाल के बजट में वित्तमंत्री ने भी जिन पांच क्षेत्रों में नौकरी की व्यवस्था पर ध्यान केन्द्रित किया है, उसमें कृत्रिम मेधा और रोबोट्स की दुनिया के प्रयोग को नकारा नहीं है। भारत, जिसकी आबादी इस समय दुनिया में सबसे अधिक है, क्या वह कृत्रिम मेधा या रोबोट का उपयोग उसी तरह कर सकता है जैसे शक्ति-संपन्न पश्चिमी देश करते हैं, जहां आबादी की कमी है। बजट सत्र में वित्तमंत्री ने नई नौकरियों के लिए दो लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। इसके द्वारा अगले पांच साल में 4.1 करोड़ नौजवानों को विशिष्ट प्रशिक्षण दिया जाएगा ताकि वे रोजगार की दुनिया में खुद को अनुकूलित कर सकें।

देश में आज भी आधी आबादी से कम खेतीबाड़ी में लगी हुई है। प्रश्न है कि वहां से सकल घरेलू आय में केवल 15 प्रतिशत का योगदान ही क्यों मिल रहा है? आंकड़े बता रहे हैं कि कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी दर बढ़ी है। इसके अतिरिक्त, ऐसे बेरोजगार भी हैं जो पारंपरिक तरीके से अपनी पैतृक खेतीबाड़ी के धंधे में लगे रहते हैं, लेकिन देश की निवल आय में उनका कोई योगदान नहीं है। इस अनुपयोगी युवा शक्ति का इस्तेमाल किसी ऐसे वैकल्पिक धंधे में होना चाहिए जो उन्हें ग्रामीण स्तर पर ही वहीं काम उपलब्ध करवा दे। लघु और कुटीर उद्योगों का विकास और फसलों को पूर्ण रूप से तैयार करके सीधे मंडी में बेचना भी एक समाधान हो सकता है। बजटीय घोषणाओं में अगले वर्ष अखिल भारतीय सहकारी अभियान चलाने का वादा है। इसके अंतर्गत इन सभी लोगों को काम मिलेगा। लघु-कुटीर उद्योगों की बातें तो होती हैं लेकिन लाल डोरा क्षेत्र में भी ग्रामीण युवा शक्ति के स्थान पर शहरी निवेशक ही प्रवेश करता नजर आता है।

निस्संदेह, जब निजी क्षेत्र का विकास होगा और नये कारखाने खुलेंगे या फसलों पर आधारित छोटे उद्योग बढ़ेंगे, तो लोगों को स्वाभाविक रूप से रोजगार मिल जाएगा। सरकार द्वारा नौकरियां देने की क्षमता बहुत कम है। बेरोजगारों को सरकारी नौकरी देने का प्रतिशत 30 से अधिक नहीं रहा। आर्थिक प्रोत्साहन और नए निवेश के बावजूद देश अधिक से अधिक हर साल 70 लाख नौकरियां ही प्रदान कर पाएगा, जबकि देश के युवाओं को हर वर्ष कम से कम एक करोड़ नौकरियों की आवश्यकता पड़ेगी। क्या निजी क्षेत्र, सरकार के सभी प्रोत्साहनों, सब्सिडियों, मुद्रा योजनाओं और लोन क्षमता बढ़ाने के बावजूद इस कसौटी पर पूरा उतर सकेगा? बेशक, इस बार के बजट में मुद्रा योजना के तहत कर्ज की सीमा 10 लाख से बढ़ाकर 20 लाख प्रति इकाई कर दी गई है। नया प्रशिक्षण प्राप्त करने की इंटर्नशिप पर सबसिडी भी दी जा रही है। लेकिन क्या इतना काफी है?

देश में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों को अभी भी उचित महत्व नहीं दिया जा रहा। शिक्षा बजट में केवल सवा लाख करोड़ रुपये और सेहत पर केवल 89 हजार करोड़ रुपये की वृद्धि हुई है। यह युवा शक्ति को स्वस्थ-शिक्षित नागरिक बनाने हेतु काफी नहीं है।

शिक्षाविदों के अनुसार, पुरानी शिक्षा पद्धति से निकले हुए 75 प्रतिशत ग्रेजुएट्स नई डिजिटल व्यवस्था में नौकरी के योग्य नहीं हैं। इसलिए, युवा शक्ति को अपनी डिग्री से कहीं नीचे के काम करने के लिए समझौता करना पड़ता है। देश में काम देने में असंगठित क्षेत्र का बहुत बड़ा योगदान रहा है, लेकिन डिजिटलीकरण के साथ असंगठित क्षेत्र भी बिखरता नजर आ रहा है। जरूरी है कि बेरोजगारों के संघर्ष को बेहतर ढंग से समझा जाए और बदलते समय की मांगों के अनुसार युवा शक्ति को प्रशिक्षित करके उसे सही दिशा में कार्यशील बनाया जाए।

सियासी मियार की रीपोर्ट.