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व्यंग्य : यहां इश्तेहार लगाना मना है..

व्यंग्य : यहां इश्तेहार लगाना मना है..

-शराफ़त अली ख़ान-

मुझे दीवारों पर लिखे इश्तेहार पढ़ने का शौक बचपन से रहा है।हमेशा नए-नए इश्तहारों में मुझे एक आकर्षण सा महसूस होता है। लोग बाग अपने बुद्धि-कौशल का भरपूर उपयोग इश्तिहार बनवाने और लिखवाने में करते हैं।एक बार एक साफ-सुथरी पुती-पुताई दीवार पर लिखा था,”यहां इश्तेहार लगाना मना है।”मुझे अजीब सा लगा, किसी ने अपनी साफ-सुथरी दीवार को अपने अहमकपने में खराब कर दी थी। मगर धन्य हैं हमारे देश के कवि और शायर, जिनकी पैनी निगाहों का मैं कायल हो गया। जब इस संदर्भ में मैंने एक पत्रिका में यह शे’र पढ़ा –

दीवार पर लिखा था इश्तेहार

यहाँ लगाना मना है इश्तेहार

यानी उस शायर ने मेरे दिल की बात पहले से पढ़ ली और मेरे दिल की बात आम भी कर दी।

वर्तमान युग वैसे भी इश्तिहार का युग है। बिना इश्तिहार के आज के युग में किसी वस्तु की बिक्री अथवा समाज में उस वस्तु की पहचान असंभव सी प्रतीत होती है। मैंने अक्सर देखा है की जिस होटल की दीवार पर लिखा होता है” यहां शराब पीना मना है “वहां शराब पीने वाले बहुतायत से मिल जाते हैं। नया-नया शराबी तो दीवार पर इश्तेहार पढ़कर पहले झिझकता है, फिर हिम्मत कर होटल ब्वॉय से कहता है,” अरे भाई कल्लू’ जरा कांच का गिलास देना और हां दो अंडे का आमलेट भी बना देना। लड़का अगर कहता है,”बैठिये बाबूजी, अभी लाता हूं।”तो समझिए कि इश्तेहार गलत है।मना शब्द ग्राहक को आकर्षित करने के लिए लिखा होता है ताकि ग्राहक समझ सके कि यहां शराब का जिक्र हुआ है,जरूर शराब पी जाती होगी।

डॉ हरिवंश राय ‘बच्चन’ की “मधुशाला” का सबसे अधिक प्रचार हिंदी पाठकों द्वारा नहीं अपितु सरकारी शराब के ठेके द्वारा हुआ है।शराब की दुकान पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा होता है” मधुशाला”। कहीं कहीं कोई शराबी व्यवसाई जिसे कभी साहित्य नामी कीडे ने काटा हो तो वह ‘बच्चन’ की “मधुशाला” की दो चार पंक्तियां भी दीवार पर बतौर इश्तेहार लिखवा देता है।

मंदिर मस्जिद बैर कराते

मेल कराती मधुशाला

छोटे शहरों में वैसे शराब पीने के अलावा लघुशंका यानि पेशाब करने की बड़ी असुविधा रहती है।पहले पहल जिस दीवार के सहारे अधिक लघु शंका की जाती रही होती है तो दीवार के स्वामी पहले बड़ी शराफत का परिचय देते हुए लिखवाते थे” यहां पेशाब करना मना है”।

शराबियों की तरह लघु शंका से त्रस्त लोग भी यह सोचकर की पहले से ही इस दीवार पर लघुशंका की जाती रही है, अब हमारी बारी आई तो मुनादी का इश्तेहार लगा दिया और वहां लघु शंका निवारण करने लग जाते हैं।उसके बाद दीवार पर लिखा जाने लगा “देखो गधा पेशाब कर रहा है “ताकि कोई व्यक्ति इस इश्तिहार को पढ़कर शर्म के मारे लघुशंका ना करें, अन्यथा वह भी गधे की श्रेणी में गिना जाने लगेगा। मगर लघु शंका से त्रस्त लोगबाग पर इसका भी असर नहीं पड़ा।उन्होंने सोचा मुझसे पहले कोई गधा पेशाब कर रहा होगा। वरना मैं तो अभी आया हूं।

कभी-कभी इश्तेहार लिखने की विशिष्ट शैली द्वारा भी भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।जैसे कि एक बार कस्बे मैं चलती बस से एक दीवार पर मोटे अक्षरों में लिखा हुआ पढ़ा था’ नामर्द हकीम/ रहमानी “उसके नीचे क्या लिखा था,बस की रफ्तार के कारण मैं नहीं पढ़ पाया। मैंने सोचा कोई हकीम अपने नाम के आगे नामर्द का विशेषण क्यों लगाएगा? ये लोग तो नामर्दी दूर करने का डंका बजाते हैं।दूसरी बार बस से जाने पर इत्तेफाक से उसी स्थान पर उतरने पर मालूम हुआ की नामर्द के नीचे बारीक शब्दों में लिखा था “रोगी मिलें”

इश्तेहारों का इतिहास कितना पुराना है।इस विषय पर भी तो अभी तक किसी शोधार्थी ने शोध करने कि शायद जहमत नहीं उठाई है। मगर हजारों साल पहले विश्व विजेता सिकंदर ने एक हाथी पर यह इश्तेहार जरूर लिखवाया था “अपने आप को पहचानिए “इस इश्तेहार का भी लोगों पर आज तक असर नहीं हुआ। क्योंकि लोग आज भी दूसरों को पहचानने का दावा तो करते हैं किंतु अपने आप को नहीं पहचान पाते।

सम्राट अशोक ने भी इश्तेहारों का सहारा लिया था। बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु महात्मा बुद्ध के उपदेश पत्थरों पर खुदवा कर राज्य के विभिन्न स्थानों पर लगवाए थे। कुछेक राजाओं ने इश्तेहारों के लिए प्रतीकों का भी सहारा लिया। खजुराहो के मन्दिर पर उत्कीर्ण मिथुन मूर्तियां कामशास्त्र का इश्तेहार मात्र हीं तो हैं।

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