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कण-कण में चेतना..

कण-कण में चेतना..

समस्त सृष्टि के मूल में एक ही शक्ति या चेतना है, वह चेतना जब जड़ पदार्थो से संयोग करती है, तो जीवों के रूप में व्यक्त होती है और जब ब्रह्मांड व्यापी हो जाती है, तो उसे ही ब्रह्म कहा जाता है। वस्तुतः शास्त्रों के अनुसार जो सर्वव्यापी है वही अणु में है, जो ब्रह्मांड में है वह कण में भी है। आत्मा, जिसे शरीर तक सीमित रहने वाली चेतना का एक कण समझा जाता है, विकसित होकर परमात्मा के समान विभूतियों की भंडार बन जाती है। आज वैज्ञानिक

भी जगत के कण-कण में व्याप्त उस चेतना के अस्तित्व की पुष्टि करने लगे हैं, जिसे धर्म परमसत्ता कहता है। इस परम चेतना के वास्तविक स्वरूप तक तो विज्ञान नहीं पहुंचा है, पर जहां तक भी उसे सफलता मिली है, उससे यह सत्य साफ नजर आ रहा है कि विज्ञान और धर्म समन्वय की ओर बढ़ रहे हैं। चेतना के विषय में धर्म और विज्ञान ने काफी कुछ वर्णन किया है। ऋग्वेद के अनुसार, एक ही देव विश्व को उत्पन्न करते हैं, देखते व चलाते हैं। उनकी शक्ति सर्वत्र समाई हुई है। वही परम शक्तिमान और कर्मानुसार फल देने वाला है। उपनिषदों में प्रमुख ईशवास्योपनिषद में ईशावास्यमिदं सर्व यत्किंचित जगत्यां जगत कहकर विश्व की हर वस्तु में ईश्वरीय चेतना होने की घोषणा की गई है। गीता में नैनं छिंदंति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः कह कर इसी आत्मा अर्थात चेतना के कभी नष्ट न होने की घोषणा भगवान श्रीकृष्ण ने की है। महान दार्शनिक शंकराचार्य का अद्वैतवाद एक प्रकार से एक ही चेतना के सर्वत्र विराजमान होने के वैदिक दृष्टिकोण को प्रतिध्वनित करता है। रामानुजाचार्य के अनुसार आत्मा अविनाशी है और चैतन्यता उसका प्रधान गुण हैं। महान दार्शनिक कोयरे ने चेतना को नकारने वाले वैज्ञानिकों पर बरसते हुए कहा था कि यह कितनी अजब बात है कि विज्ञान ने हर पदार्थ को मान्यता दी है, लेकिन मनुष्य के अस्तित्व को ही मानने से इंकार कर दिया है। इमर्सन एवं बर्पले के मत में सारा संसार कहीं से चेतना उधार ले रहा है। जिस तरह किसी बड़े विद्युत घर से बिजली लेकर छोटे-छोटे बल्ब जलने लगते हैं, वैसे ही यह चेतना जीवों में अलग-अलग रूप में दिखाई देती है। विज्ञान का पर्याप्त अध्ययन करने वाले दार्शनिक स्पिनोजा के अनुसार विचार चेतना का प्रत्यक्ष रूप है, क्योंकि ये कभी नष्ट नहीं होते। वैज्ञानिक न्यूटन के अनुसार, सृष्टि का कोई कण चेतना से वंचित नहीं है। परमात्मा इसी रूप में सर्वव्यापी है। आइंस्टीन के अनुसार, सृष्टि के मूल में कोई जड़ तत्व नहीं, बल्कि चेतना की सक्रियता ही है। मनुष्य के साथ-साथ पृथ्वी और अन्य नक्षत्र-ग्रहों की भी अपनी एक चेतना है। वह मनुष्य के समान ही कतिपय सिद्धांतों पर कार्य करती है। संपूर्ण संसार की रचना किसी अद्भुत मस्तिष्क द्वारा की हुई प्रतीत होती है। भौतिकी के नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. ईपी विगनर के अनुसार आधुनिक भौतिकी के सिद्धांतों से चेतना की व्याख्या नहीं हो सकती।

सियासी मियार की रपोर्ट