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कहानी: अंतिम तीन दिन.

कहानी: अंतिम तीन दिन.

अपने ही घर में माया चूहे सी चुपचाप घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जाकर बिस्तर पर बैठ गई, स्तब्ध। जीवन में आज पहली बार, मानो सोच के घोड़ों की लगाम उसके हाथ से छूट गई थी। आराम का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। अब समय ही कहां बचा था कि वह सदा की भांति सोफे पर बैठकर टेलिविजन पर कोई रहस्यपूर्ण टीवी धारावाहिक देखते हुए चाय की चुस्कियां लेती। हर पल कीमती था। तीन दिन के अंदर भला कोई अपने जीवन को कैसे समेट सकता है? पचपन वर्षों के संबंध, जी जान से बनाया ये घर, ये सारा ताम झाम और बस केवल तीन दिन! मजाक है क्या? वह झल्ला उठी किंतु समय व्यर्थ करने का क्या लाभ। डाक्टर ने उसे केवल तीन दिन की मोहलत दी थी। ढाई या साढ़े तीन दिन की क्यों नहीं, उसने तो यह भी नहीं पूछा। माया प्रश्न नहीं पूछती, बस जुट जाती है तन मन धन से किसी भी आयोजन की तैयारी में, वह भी युद्ध स्तर पर, बेटी महक होती तो कहती, ममा, स्लो डाउन। जीवन में उसने अपने को सदा मुस्तैद रखा कि न जाने कब कोई ऐसी वैसी स्थिति का सामना करना पड़ जाए। बुरे से बुरे समय के लिए स्वयं को नियंत्रित किया, ताकि वह मन को समझा सके कि इससे और भी तो बुरा हो सकता था।

खैर, तीन दिन बहुत होते हैं। एक हफ्ते में तो भगवान ने पूरी दुनिया रच डाली थी। बिगाड़ने के लिए तो एक तिहाई समय भी बहुत होना चाहिए। किंतु उसे बिगाड़ कर नहीं ये घर संवार के छोड़ना है। सम्पत्ति को ऐसे बांटना है कि किसी को यह महसूस न हो कि अंधा बांटे रेवड़ी, भर अपने को दे। संसार से यूं विदा लेनी है कि लोग याद करें। कमर कसके वह उठ खड़ी हुई।

तीनो अल्मारियों के पलड़े खोलकर माया लगी अपनी भारी साड़ियों, सूटों और गर्म कपड़ों को पलंग पर फेंकने। जैसे उस ढेर में दब जाएगी उसकी दुश्चिंता। छोटे बेटे वरुण की शादी को अभी एक साल भी तो नहीं हुआ। कितने कपड़े और गहने बनवाए थे माया ने। जैसे अपनी सारी इच्छाओं को वह एक ही झटके में पूरा कर लेना चाहती हो। हे भगवान! अब क्या होगा इन सबका? समय होता तो वह भारत जाके बहन भाभियों में बांट देती। ऑक्सफैम में जाने लायक नहीं हैं ये कीमती साड़ियां पर उसकी बहुओं और बेटी को इस इंड़ियन पहनावे से क्या लेना देना।

रुपहली नैट की गुलाबी साड़ी को चेहरे से लगाए माया सोच रही थी कि इसे पहनने के लिए उसने अपना पूरा पांच किलो वजन घटाया था। मुंह मांगे दाम पर खरीदी थी ये साड़ी उसने रितु कुमार से। छोटी बहन तो बस दीवानी हो गई थी, जीजी, इस साड़ी से जब आपका दिल भर जाए तो हमें दे दीजिएगा, प्लीज। उसे तब ही दे देती तो छोटी कितनी खुश हो जाती। पर तब उसने सोचा था कि इसे पहन कर पहले वह अपने लंदन और योरोप के मित्रों की चर्चा का विषय बन जाए, फिर दे देगी। किसी ने ठीक ही कहा है, काल करे सो आज कर। एकाएक उसे एक तरकीब सूझी। क्यों न वह इसे छोटी को पार्सल कर दे और साथ में ही भेज दे इसका मैचिंग कुंदन का सैट भी। कुंदन के सैट के नाम पर उसका दिल मानो सिकुड़ के रह गया। बड़ी बहु उषा को पता लगेगा कि सास ने साढ़े तीन लाख का सैट छोटी को दे दिया तो वह उसे जीवन भर कोसेगी। पर छोटी जितनी कद्र भला बहुओं और बेटी महक को कहां होगी। माया चाहे कितना कहे कि वह किसी से नहीं डरती पर सच तो ये है कि वह मन ही मन सबसे ही डरती है अपने बच्चों से लेकर, सड़क पर चलते राहगीरों तक से कि वे क्या सोचते होंगे, कहीं वे यह न कहें या कहीं वे वो न सोचें। पर अब वह वही करेगी जो उसका मन चाहेगा। वैसे भी, बच्चे अपने अपने घरों में सुख से हैं। न भी हों तो उसने फैसला कर ही लिया था कि वह अब कभी उनके घरेलू मामलों में दखलअंदाजी नहीं करेगी। सगे संबंधी और मित्र भी मरने वाले की अंतिम इच्छा का सम्मान करेंगे ही।

फिर भी, न चाहते हुए भी माया दूसरों के लिए ही सोच रही थी। अपने लिये सोचने को रखा ही क्या है। मंदिर जाये, गिड़गिड़ाये कि भगवान बचा लो। जिंदगी के इस आखरी पड़ाव पर क्यूं अपने लिये कुछ मांगे और मांगने से क्या कुछ मिल जाएगा। अब तक तो वह जब भी भगवान के आगे गिड़गिड़ाई है, सदा औरों के लिये। हर सुबह यही प्रार्थना करती आई है, भगवान सबका भला करना, या जो भी ठीक समझो वही करना, क्यूंकि मनुष्य की हवस का तो कोई अंत नहीं। अमेरिका में तो सुना है कि लोगों ने हजारों डालर देकर मरणोपरांत अपने शवों के प्रतिरक्षण का प्रबंध करवा लिया है ताकि भविष्य में, जब भी टैकनौलोजी इतनी विकसित हो जाए, उन्हें जिला लिया जाए। माया को यह समझ नहीं आता कि ऐसा क्या है मानव शरीर में कि उसे सदा जीवित रखा जाए। गांधी, मदर टेरेसा या मार्टन लूथर किंग जैसों महानुभावों को सुरक्षित रख पाते तो और बात थी। अच्छी से अच्छी प्लास्टिक सर्जरी के उपलब्ध होने पर भी एलिजाबेथ टेलर जैसी करोड़पति सुंदरी भी कुरूप दिखती है। प्रकृति से टक्कर लेकर भला क्या लाभ। उसे जो करना था वह कर चुकी। बच्चे अपने अपने घरों में सुख से हैं। न भी हों तो उसने फैसला कर ही लिया था कि वह अब कभी उनके घरेलू मामलों में दखलअंदाजी नहीं करेगी।

माया एक अजीब सी मनःस्थिति से गुजर रही है। उसे लगता है कि कहीं कुछ अप्राकृतिक अवश्य है। वह परेशान है कि उसे मौत से डर क्यों नहीं लग रहा। हो सकता है कि अत्यधिक भय की वजह से उसने भय को अपने मस्तिष्क से ब्लॉक कर रखा हो। जो भी हो, अच्छा ही है। अन्यथा भयवश न तो वह कुछ कर पाती और न ही ठीक से सोच ही पाती। बच्चों को बताने का कोई औचित्य नहीं। बेकार परेशान होंगे और उसकी नाक में दम कर डालेंगे। पिछले महीने ही की तो बात है जब उसे फ्लू हो गया था। दुर्भाग्यवश वरुण और विधि घर पर थे। उन्होंने तीमारदारी कर करके माया की ऐसी की तैसी कर दी थी। उसे आराम से सोने भी नहीं दिया था। कभी दवाई का समय हो जाता तो कभी खिचड़ी का, कभी गरम पानी की बोतल बदलनी होती तो कभी गीली पट्टी। नहीं नहीं चुपचाप मर जाना बेहतर होगा। बच्चों को भी तसल्ली हो जाएगी जब लोग कहेंगे कि माया बड़ी भली आत्मा रही होगी कि नींद में चल बसीं। वैसे, कह भर देने से ही कितनी तसल्ली हो जाती है या शायद दिल को समझा लेना आसान हो जाता होगा। लोगों के पास चारा भी क्या है। जीवन के हल में सीधे जुत जो जाना होता है। आजकल तो लोग तेरहवीं तक भी घर में नहीं रुकते। छुट्टियां ही कहां बचती हैं। साल में एक बार भारत जाना होता है। फिर परिवार और मित्रों के साथ दो¬ या तीन बार योरोप की यात्रा पर भी जाना पड़ता है। पहले जमाने में कभी लेते थे लोग छुट्टियां ऐसे काम काज के लिए। माया तो हारी बीमारी में भी उठके दफ्तर चली जाती थी कि एक छुट्टी बचे तो मंडे बैंक हौलिडे के साथ जोड़ कर कहीं आस पास ही हो आए। उसका मानना है कि इंग्लैंड की तनाव भरी जलवायु से जब तब निकल भागना आवश्यक है। वैसे भी यहां के बहुत से लोग मानसिक बीमारियों से ग्रस्त रहते हैं। जिसे देखिए वही टैन्स्ड है।

माया भी टैन्स्ड है। अपनी उंगलियां उलझाए वह सोच रही है कि पर्दों को धो डाले और घर की झाड़ पोंछ भी कर ले। मातमपुर्सी को आए लोग कहीं ये न कहें कि दूसरों को सफाई पर भाषण देने वाली माया स्वयं इतने गंदे घर में रहती थी। आज तो केवल बुधवार है और घर की सफाई करने वाली ममता तो शनिवार को ही आएगी। शनिवार को वे दोनों मिलकर घर की खूब सफाई करती हैं और फिर दोपहर में एक नई हिंदी फिल्म देखने जाती हैं। शाम का खाना भी बाहर ही होता है। रात को ममता को उसके घर छोड़ कर जब माया वापिस आती है तो अपने साफ सुथरे फ्लैट में खुश्बुदार बिस्तर पर पसर जाना उसे बहुत अच्छा लगता है। कभी कभी तो इस संवेदना के रहते, वह सो भी नहीं पाती। उनके मना करने के बावजूद ममता उसे मैडम कहकर ही पुकारती है और उसकी बहुत इज्जत करती है। हालांकि बच्चों को लगता है कि मां ने उसे सिर पर चढ़ा रखा है, माया उसे अपने परिवार का एक सदस्य ही मानती है। कर्मठ, इमानदार और निष्ठावान है ममता, माया की तरह ही। शायद इसीलिए माया को उसका साथ पसंद है। उसकी सहेलियां उसके इस बर्ताव पर नाक भौं चढ़ाती रहतीं हैं तो चढ़ाया करें।

नारायण को लेकर ममता कुछ अधिक ही परेशान है। उसका इकलौता बेटा नारायण, जिसके पिता की आकस्मिक मृत्यु हो गई थी, बुरी संगत में पड़ कर एक गुंडे के गिरोह में ड्राईवरी कर रहा है। आजकल उसकी इच्छा है कि उसके प्रवास के दौरान नारायण एक बार लंदन घूमने आ जाए। माया ने दिल्ली में अपने भाई पारस के जरिए उसका पासपोर्ट बनवा दिया है और वीजा भी लग ही जाएगा। ममता के इसरार पर माया ने पिछले साल पटना के किसी अधिकारी को इस बाबत लिखा भी था पर वहां से आज तक कोई जवाब नहीं आया। दिल्ली मुम्बई जैसे शहर होते तो शायद कोई जान पहचान निकल भी आती। हर शनिवार ममता को बड़ी आस लिए आती है, मैडम कोई चिट्ठी पत्री आई। न में सिर हिलाती माया सोचती है कि कुछ करना चाहिए किंतु वह कर क्या सकती है? अपना बेटा होता तो क्या वह चुप बैठ जाती? उसका मन कई बार होता है कि बारक्लेज बैंक के पांच हजार के बौंड्स ममता को दे दे ताकि वह नारायण को उन गुंडों से बचा सके। किंतु फिर वही दुविधा कि मेहनत से कमाये उसके धन का सीधी सादी ममता कहीं दुरुपयोग न कर बैठे।

बच्चों को क्या, किसी और को भी यदि ये पता लग गया कि उन्होंने इतनी बड़ी रकम ममता को दे दी तो वे उसे पागल समझेंगे। किंतु धन का इससे अच्छा उपयोग भला क्या हो सकता है। महक होती तो कहती, ममा, डू व्हाट यू लाईक, इटज यौर मनी आफ्टर ऑल। वरुण और विधि को उसके धन से कुछ लेना देना नहीं। विधि साईं बाबा ट्रस्ट की सदस्य है, कभी बाढ़ पीड़ितों के सहायतार्थ जाती है तो कभी किसी सेवा शिविर के लिए काम करती है। अरुण कहता है कि उन्हें पैसे की कोई कद्र नहीं और ये भी कि यदि मां चाहें तो उनका पैसा वह किसी अच्छी जगह इन्वैस्ट कर सकता है। इकलौती संतान के नाते, उषा को हर चीज अपने नाम करवाने की पड़ी रहती है। इतनी बड़ी रकम उन्होंने पहले किसी को दी भी तो नहीं। उनकी मृत्यु के बाद कहीं बच्चे बेचारी ममता पर कोई मुकदमा ही न ठोक दें। दुनिया में क्या नहीं होता। माया का सोचना ही उसका दुश्मन है पर सोच पर किसी का क्या बस।

बस अब और नहीं सोचेगी माया। अभी जाकर वह बौंड्स भुनवा लेगी और शनिवार को ममता को दे देगी। कहीं वह शुक्रवार को ही स्वर्ग सिधार गई तो? हालांकि वह शुक्रवार की शाम को मरे तो बच्चों और सगे संबंधियों को सप्ताहांत मिल जाएगा। इतवार को ही स्विटजरलैंड से वरुण और विधि भी छुट्टियां मना कर लौट आएंगे। माया को अच्छा नहीं लगा कि आते ही उन्हें कोई बुरी खबर दे पर किया क्या जा सकता है।

बैंक जाते समय माया सोचने लगी कि किसी के आखिरी वक्त में सबसे विशेष बात क्या हो सकती है? क्यों वह सीधे कपड़ों गहनों की तरफ भागी? क्या ये मामूली चीजें उसके लिये इतना महत्व रखती हैं? आज तक तो वह यही सोचती आई थी कि उसके मरने के बाद बेटे बहु उसका तमाम बोरिया बिस्तर बोरियों में भर कर ऑक्सफैम या किसी और चैरिटी को दे आयेंगे। समय के अभाव में शायद उसका सामान वे कूड़ेदान में ही न फेंक दें। खैर, ये सोचकर क्या वह अपना अमूल्य समय व्यर्थ नहीं गंवा रही? उसे क्या लेना देना इस भौतिक सामान से किंतु किसी के काम आ जाए तो अच्छा ही है। भारत में कई परिवार इन चीजों से अपने बहुत से तीज त्योहार मना सकते हैं। ऑक्सफैम वाले क्या समझेंगे भारतीय पहनावे को? वे इन्हें रीसाइकिलिंग के लिए दाहित्र में ही न कहीं डाल दें।

पिछले दो वर्षों में ही माया ने दो मौतें देखीं थीं और दोनों ही मृतकों ने कोई वसीयत नहीं छोड़ी थी। अभी अर्थी भी नहीं उठी थी कि बच्चों ने घर सिर पर उठा लिया। जिन मां बाप ने अपना जीवन अपने बच्चों पर न्योछावर कर दिया था, उनकी आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना करने की बजाय उनके बच्चे उन्हें ही भला बुरा कह रहे थे। खैर, उसे इस सब की परवाह नहीं है। उसने अपनी सारी जायदाद, गहने, शेयर इत्यादि बांट दिये हैं सिवा इन कपड़ों और कुछ पारिवारिक गहनों के और इन्हीं की वजह से वह कल रात भर ठीक से सो भी नहीं पाई थी। इन भौतिक चीजों में मृत्यु जैसी विशेष बात भी डूब के रह गई थी।

सुबह उठते ही नहा धो कर माया बैठ गई आईने के सामने। बिना मेक अप के चेहरा कैसा बेरंग लग रहा था, करेले सी झुर्रियां और अर्बी सा रंग। उसने कहीं पढ़ा था कि जिसने जीवन में बहुत दुख झेलें हों, केवल वही एक अच्छा विदूषक हो सकता है। ठंड की गुनगुनी धूप सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर फैल गई। किंतु ये झुर्रियों से भरा चेहरा मृत्यु के पश्चात कैसा लगेगा? जब लोग बक्से में रखे उसके पार्थिव शरीर के चारों ओर घूमकर श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे तो उन्हें कहीं मुंह न फेर लेना पड़े। माया को आकर्षक लगना चाहिये और ये मेकअप आर्टिस्ट पर निर्भर करेगा कि वह कैसी दिखाई दें। शायद और लोग भी इस बारे में चिंतित होते हों। हिम्मत करके उसने अंत्येष्टि निदेशक का नम्बर घुमाया।

हेलो, हाउ मे आइ हेल्प यू? मीठी आवाज में स्वागती ने पूछा। माया ने झिझकते हुए पूछा, सौरी टु बौदर यू, आइ हैड बुक्ड ए कौफिन फॉर माइसेल्फ दि अदर डे, आइ वंडर इफ समवन कुड टेक केयर ऑफ माई मेकअप एंड क्लोद्स आफटर आई एम डेड।

ऑफ कोर्स मैडम, यौर विश इज अवर कमांड। स्वागती की वरदायनी अदा पर माया मुस्कराने लगी। उसने सोचा कि वह मेकअप आर्टिस्ट को अपना भरा पूरा वैनिटि केस ही दे देगी ताकि कई अन्य भारतीय महिला मृतकों का भी उद्धार हो जाए। गोरे गोरियों के रंग का मेकअप तो इन लोगों के पास होता है किंतु किसी भारतीय महिला ने शायद ही कभी ऐसी मांग की हो। उसे कहां फुर्सत इस आडंबर की। उसे यकायक याद आई मीना कुमारी की, जो पूरी साज सज्जा के साथ दफनाई गई थी। चलो मेक अप और कपड़ों का तो बंदोबस्त हो गया। उसने सोचा कि क्यों न वह अपने बाल भी ट्रिम करवा ले? उसे अपने हेअरड्रैसर से भी विदा ले लेनी चाहिए। पिछले तीन दशकों में दोनों के बीच एक अच्छा समझौता हो गया है। वह जानता है कि कब उसके बालों को पर्म करना है, कब रंगना है या कब सिर्फ ट्रिम करना है। कभी माया उल्टी सीधी मांग कर भी बैठे तो वह साफ इन्कार कर देता है, नहीं, ये आप पर अच्छा नहीं लगेगा, या अपनी जरा उम्र तो देखो माया। हालांकि माया को आज भी लगता है कि वह एक बार उसके बालों को किसी सुर्ख रंग में रंग दे।

(आगे की कहानी अगले भाग में….)

सियासी मियार की रिपोर्ट