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साल,..

साल,..

-डॉ. मोहसिन खान-

भीषण गर्मी का माह था, चारों ओर के वातावरण में ऐसी आंच थी मानो कोई जंगल आस-पास जल रहा हो। पृथ्वी का हर हिस्सा सूर्य की प्रचण्डता से तापित और पीड़ित था। पक्षियों में अजीब सी व्याकुलता थी, किसी ठण्डी छाया में बैठकर अपना अव्यस्त दिन बिताने की, लेकिन भूख उनको सताती और वह पेड़ की डाल से नीचे आकर दाना चुगते और फिर पेड़ की डाल पर चढ़ जाते। सड़क पर कुछ ही लोगों का आना-जाना था और वे भी धूप से बचते, कतराते चल रहे थे। वाहनों में तांगा, रिक्शा, टेम्पो अपनी गति में दौड़ रहे थे, जैसे वे भी सोच रहे हों कि ज़्यादा देर सड़क पर खडे़ रहे तो इस कोरताल के सांप के पेट में उतर जाना पडे़गा। शरद बाबू एक कस्बे में अपने मित्र के यहां उनकी पुत्री के विवाह-अवसर पर गये हुए थे, वहीं से लौटते हुए एक पेड़ की छाया में खडे़ होकर स्टेशन तक पहुंचने के लिये रिक्शा की प्रतीक्षा कर रहे थे। वे एक गांव में मिडिल स्कूल के अध्यापक हैं, और स्वभाव से बडे़ ही उदार, विनम्र, मितभाषी और आदर्शवादी हैं।

प्रतीक्षा में रत शरद बाबू एकाएक अन्तद्र्वन्द्व से ग्रसित हो गये और सोचने लगे कि – क्या मिला उन्हें यह सब करके, थोडी़ सी प्रतिष्ठा, थोडा़ सा मान। समाज में ऐसी गलित परम्पराएं फैल रही हैं, इन्हीं झूंटे आयोजनों के कारण और यही मध्यम वर्ग इन्हें फैलाने में लगा हुआ है। यह झूंटे लोगों का झूंटा मान इन्हें ही रास होगा, जो यह सब मानते हैं। जैसे तुम खोखले हो वैसा ही तुम्हारा समाज भी खोखला है। भोजन और भोज्य पदार्थों पर इन लोगों ने अपनी भौतिक शक्ति, मान, प्रतिष्ठा और अहंकार की मोहर लगा दी है। जो यह सब नहीं करेगा समाज में प्रतिष्ठा नहीं पयेगा। कैसे लोग हैं भोजन को भी इन्होंने प्रतिष्ठा से जोड़ लिया। कैसे अनर्थी हैं यह सामाजिक जानवर! आज सब ओर हाहाकार मची है पेट की भूख मिटाने को, वरना कोई किसी का गला क्यों काटता? हम हमारी प्रतिष्ठा के आगे क्या-क्या कर रहे हैं, दूसरों की पेट की भूख को ही बढा़ रहे हैं, फिर उन्हीं लोगों से घृणा भी कर रहे हैं। विवाह में फिकता और बिगड़ता भोजन किसी भूखे के पेट में जाता…..। वाह! शादी के नाम पर यह फ़िज़ूल खर्ची और यह झूंटा मान!

एकाएक रिक्शा आती हुई दिखाई दी तो अपने अन्तद्र्वन्द्व बाहर आये और वास्तविकता में लौट आये। शरद बाबू रिक्शा को रुकने का संकेत करते हैं लेकिन सवारों की अधिकता के कारण रिक्शा रुकती नहीं है। शरद बाबू फिर से प्रतीक्षा में रत हो जाते हैं, थोडी़ देर में एक तांगा आता हुआ दिखाई देता है लेकिन वह उसे रुकने का संकेत नहीं करते हैं और अनजाने बने खडे़ रहते हैं क्यों

कि वह कभी तांगे में नहीं बैठते हैं यह उनके आदर्शों के विरुद्ध है। उनका मानना है कि घोडे़ से इतने लोगों का बोझ खिंचवाना उस पर ज़ुल्म करना है। वैसे भी उस घोडे़ की हालत ऐसी थी जैसे कि वह जीने का मूल्य चुका रहा हो! कुछ देर प्रतीक्षा के बाद शरद बाबू पैदल ही स्टेशन की ओर चल दिये।

सियासी मियार की रीपोर्ट