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बिना जिज्ञासा के उपदेश सुनना व्यर्थ है…

बिना जिज्ञासा के उपदेश सुनना व्यर्थ है…

आज प्रत्येक संस्था की एक दशा है। त्यागी, परोपकारी, उद्योगी एक या अनेक व्यक्ति संस्था स्थापित करते हैं। आरंभ में संस्था विशुध्द रूप में चलती है। जैसे ही वह इस योग्य होती है कि उससे कुछ स्वार्थ सिध्द हो सके। जनता में सम्मान प्राप्त हो सके, उसमें पदलोलुप, स्वार्थी व्यक्ति घुस जाते हैं। धीरे-धीरे संस्था पर उन्हीं का अधिकार हो जाता है, वे प्रमुख हो जाते हैं। जो सचमुच निःस्वार्थ परोपकारवृत्ति से लगे उद्योगी उसमें होते हैं, वे या तो कुछ कर नहीं पाते या पृथक होने को बाध्य होते हैं।

लेख लिखना, भाषण देना और अभिनव करना, ये कलाएं हैं। यह आवश्यक नहीं कि लेखक या वक्ता जिन गंभीर तथ्यों को प्रकट कर रहा है, उनका अनुभव भी करता हो, जो उपदेश दे रहा है, उसका आचरण भी करता हो। सभाओं में जब कोई बोलने लगता है तो थोड़े ही वक्त होते हैं, जो यह नहीं चाहते कि जनता उनकी बात को ध्यान से सुने। जनता ध्यान से सुने, इसके लिए जनता की रूचि की बात कहनी चाहिये। इस प्रकार वास्तविकता की अपेक्षा कला एवं विद्वता को अधिक महत्व मिलता है। यह भी व्यवसाय बन जाता है और जो इस प्रकार का व्यवसाय ही करते हैं, उनका जीवन अन्तर्मुख कैसे हो सकता है। यही दशा लेखक की भी है, यदि वह अपने लेखों को व्यापक बनाने के ध्यान से लिखता है।

धर्म भी प्रचार की वस्तु-यह हिन्दू समाज ने स्वीकार ही नहीं किया। धर्म तो अधिकार के अनुसार प्राप्त करके आचरण करने की वस्तु है। अनधिकार को उसका उपदेश ही वर्जित है। समाज का प्रत्येक क्षेत्र जहां धर्म पर अवलम्बित है, धर्म से ओतप्रोत है, वहां किसी क्षेत्र में प्रचार के लिए स्थान नहीं बचता। वस्तुतः प्रचार है क्या वस्तु? हम अपने वचारों से दूसरों को प्रभावित करना चाहते हैं, क्यों? इसलिए कि हम अपने विचारों को श्रेष्ठ मानते हैं और दूसरों का उसका आचरण करके कल्याण होगा, ऐसा हमारा विश्वास है अथवा हमें दूसरों को अनुगामी बनाना है। अपनी यश, इच्छा या किसी दूसरी इच्छा को सार्थक करना है। ज्ञान का मार्ग है जिज्ञासा। जब तक स्वयं जिज्ञासा न हो, किसी को उपदेश लाभ नहीं करता। उपदेश से जहां जिज्ञासा उत्पन्न होती है, वहीं यह भी भय रहता है कि स्वाभाविक रूचि दबती है और मानसिक धारा अस्त-व्यस्त हो सकती है।

हिन्दू संस्कृति के अनुसार जिज्ञासा उत्पन्न होने पर ही उपदेश देना चाहिये। हम अपने ही विचारों, विश्वासों का प्रचार करें, यह सच्चाई से हम कर सकते हैं, परन्तु इसका अर्थ यह तो है ही कि हमारा अहंकार बढ़ रहा है, हमने दूसरों को अज्ञ मान लिया है। अपने को हम निभ्रांत मानें, यहां तक तो ठीक, परन्तु दूसरों के विचार उनके लिए ठीक नहीं, यह अहंकार की ही प्रवृत्ति है। हम जिन धारणाओं को भ्रांतिहीन मानते हैं, उनका आचरण करके हमने क्या पूर्णता प्राप्त कर ली है? पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व हम प्रचार में लगते हैं, इसका अर्थ है कि या तो हम अपने में उन धारणाओं पर चलने की योग्यता नहीं पाते या हमारे प्रयास में पूरी शक्ति नहीं या वे धारणाएं वस्तुतः आचरण योग्य है, इसमें हमारा विश्वास नहीं। किसी भी दशा में हम क्या प्रचार के योग्य रहते हैं? विश्व का अब तक का अनुभव यही है कि पूर्णता को प्राप्त पुरुष समाज या संगठन नहीं बनाते। जो अन्तर्मुख हो चुका है, वह बाह्य प्रवृत्ति में एक सीमा तक ही लगा रह सकता है।

अधिकारी, जिज्ञासु को वे प्रेरणा, उपदेश तो देते हैं, किन्तु जगत के व्यवस्थित करने के संबंध में उनकी प्रवृत्ति सभा, सोसायटी आदि की ओर कदाचित ही होती है। हिन्दू धर्म के इस आपत्तिकाल में हम भगवान को पुकारने के साथ ही साथ आपध्दर्म के रूप में संगठन और प्रचार स्वीकार करें। इसके अतिरिक्त दूसरा मार्न नहीं, परन्तु धर्म का लक्ष्य अहंकार का शैथिल्य है, उसे बढ़ाना नहीं-यह स्मरण रहने पर ही ये संगठन सफल होंगे। हिन्दू समाज धर्म पर संगठित समाज है। उसमें बाह्य प्रवृत्ति का निरोध ही श्रेयस्कर माना जाता है। जिज्ञासु ही वहां उपदेश का पात्र है। पाश्चात्य प्रभाव के प्रबल प्रवाह में इस समय इन मूल तथ्यों का विस्मरण धर्म के प्रतिकूल ही होगा। हिन्दू धर्म की अन्तर्मुख प्रवृत्ति की रक्षा सबसे प्रथम दृष्टि में रखकर ही शेष प्रस्ताव उचित है।

सियासी मियार की रिपोर्ट