अनुच्छेद 370 और बाल्मीकि समाज..
-डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री-

भारत सरकार ने 2019 को भारतीय संविधान में से अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया था। इसका मोटे तौर पर राज्य के सभी लोगों ने स्वागत किया था। स्वागत करने वालों में गुज्जर, दरदी, बलती, पुरकी के सिवा से अलजाफ, अरजाल और पसमान्दा देसी मुसलमान भी थे। लेकिन कश्मीर घाटी में रहने वाले सैयदों ने इसका विरोध किया था। मुल्ला मौलवी, पीरजादेह, मुफ़्तियों ने भी विरोध का स्वर उठाया था। कुछ शेखों ने भी इसका विरोध किया था। लेकिन इसमें आश्चर्य करने वाली कोई बात नहीं थी क्योंकि कश्मीर में सभी जानते हैं कि वहाँ का अलजाफ और पसमान्दा मुसलमान जिस का समर्थन करेगा, सैयद उसका यक़ीनन विरोध करेगा। क्योंकि इन दोनों के हित परस्पर विरोधी हैं। विरोध करने वालों में से अधिकांश लोग उच्चतम न्यायालय में पहुँच गए थे कि अनुच्छेद 370 को फिर से बहाल किया जाए। स्वभाविक ही इससे वे लोग चिन्तातुर हो गए जिनको इस अनुच्छेद के समाप्त हो जाने से सबसे ज्यादा लाभ हुआ था। बहुत कम लोगों को पता है कि अनुच्छेद 370 के हटने से सबसे ज्या लाभ वहाँ के बाल्मिकी समाज को ही हुआ है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि उन्हें उस नारकीय जीवन से छुटकारा मिला है, जिसकी रचना उनके लिए अनुच्छेद 370 ने की हुई थी। लेकिन उनकी यह हालत कैसे हुई, इसके लिए थोड़ा इतिहास में पीछे जाना होगा।
आज से लगभग छह दशक पहले 1957 में जम्मू में मज़दूर कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। हड़ताल कई महीने चली। उन दिनों नैशनल कान्फ्रेंस के गुलाम मोहम्मद बख़्शी सूबे के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। वे भी पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों की तरह अपने आप को सख़्त तबीयत का मानते थे। उन्होंने कर्मचारियों की माँगे स्वीकार करने की बजाए पंजाब से सफ़ाई सेवक ले आने का निर्णय किया। इसके लिए पंजाब सरकार से बातचीत चलाई गई। प्रताप सिंह कैरों ने तुरन्त बख़्शी गुलाम मोहम्मद गो हल्लाशेरी दी कि हड़ताल के आगे झुकना नहीं चाहिए बल्कि हड़तालियों को सबक़ सिखाना चाहिए। पंजाब सरकार ने वाल्मीकि समुदाय के तीन सौ के लगभग परिवार जम्मू कश्मीर को हवाना कर दिए ताकि वे वहाँ सफ़ाई सेवक के पद पर काम कर सकें। ज़्यादातर परिवार गुरदासपुर और अमृतसर के थे। शुरु में जम्मू में उनकी ख़ूब सेवा की गई। मुफ़्त परिवहन की व्यवस्था से तो उन्हें लाया ही गया था, शुरु में तो खाना भी दिया गया। रहने के लिए मकान दिए गए। सफ़ाई सेवक की पक्की नौकरी दी। लेकिन वे जम्मू कश्मीर के स्थायी निवासी नहीं थे। इसलिए उनका स्थायी निवासी का प्रमाण पत्र भी नहीं मिल सकता था। तब बख़्शी साहिब ने नियमों में संशोधन किया। उनके लिए राज्य का स्थायी निवासी होने की शर्त को ढीला कर दिया गया। जम्मू कश्मीर सिविल सर्विसेज़ रागूलेशन में प्रावधान किया गया कि वाल्मीकि समाज के ये लोग राज्य में स्थायी नौकरी के लिए पात्र होंगे लेकिन वे केवल राज्य में सफ़ाई की नौकरी ही करेंगे। वाल्मीकि समाज के लोगों को राज्य में सफाई सेवक की नौकरी के लिए चिन्हित तो कर दिया गया लेकिन अनुच्छेद 370 के चलते उन्हें पीआरसी(परमानैंट रैजीडैंट सर्टिफ़िकेट) नहीं दिया गया।
इसके कारण उनका मारकीय जीवन शुरु हुआ। वाल्मीकि समाज के बच्चे राज्य के व्यवसायिक शिक्षा संस्थानों में दाख़िला नहीं ले सकते थे। केन्द्र सरकार ने अनुसूचित जाति के लिए जितनी योजनांएं शुरु की हुई हैं, वाल्मीकि को उसका लाभ नहीं मिलता था। क्योंकि वे राज्य के स्थायी निवासी नहीं बन सकते चाहे उन्हें राज्य में रहते हुए पचास साल ही क्यों न हो गए हों। स्थायी निवासी नहीं हैं दो राज्य सरकार उन्हें अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र जारी नहीं करती। उन्हें बैंक से क़र्ज़ा नहीं मिल सकता। वे राज्य में होने वाले चुनावों में वोट नहीं डाल सकते। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट पर चुनाव नहीं लड सकते। जम्मू कश्मीर के वाल्मीकि समाज का कोई लड़का या लड़की, यदि पंजाब या हरियाणा से पीएच.डी की डिग्री भी लेकर आ जाए और अपने राज्य में किसी उपयुक्त पोस्ट पर आवेदन करे दो उसे बता दिया जाता था कि आपके पास डिग्री चाहे कोई भी हो आप केवल सफ़ाई सेवक के पद पर आवेदन करें। वाल्मीकि समाज ने इस नारकीय हालात को लेकर कोर्ट कचहरी गा दरवाजा भी खटखटाया। कोर्ट ने यह तो प्रत्यक्ष या परोक्ष माना कि आपके साथ अन्याय हो रहा है लेकिन अपनी मजबूरी भी जता दी कि राज्य में अनुच्छेद 370 होने के कारण, उसके हाथ बँधे हैं। 1954 में केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने अनुच्छेद 370 को और मज़बूती प्रदान की। उसने भारतीय संविधान में 35 A नाम का एक नया अनुच्छेद जोड़ दिया जिसमें कहा गया कि इस भेदभाव के खिलाफ कोई व्यक्ति कचहरी में भी नहीं जा सकता।
डा. भीमराव रामजी आम्बेडकर ने भारतीय सामाजिक संरचना पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि जाति व्यवस्था में सबसे ख़तरनाक बात यह है कि समाज यह मान कर चलता है कि जाति व्यवस्था में जिस समाज के लिए जो काम निर्धारित कर दिए गए हैं, उस समाज के लोग वही काम कर सकते हैं, कोई अन्य राम या व्यवसाय करने का उनको अधिकार नहीं है। यही कारण था कि उन्होंने नए संविधान में ये दीवारें तोड़ीं और यह प्रावधान किया कि कोई व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति का हो, वह अपनी रुचि के अनुसार काम या व्यवसाय चुन सकता है। लेकिन आम्बेडकर के इस संविधान के होते हुए भी जम्मू कश्मीर सरकार ने वैधानिक रूप से यह निर्धारित कर दिया कि जम्मू कश्मीर के वाल्मीकि समाज के व्यक्ति केवल सफ़ाई का काम करने के ही पात्र होंगे। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहना होगा कांग्रेस समेत लगभग सभी दल इसका समर्थन करते रहे। यही कारण था जब मई 2019 में भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 ही समाप्त कर दिया तो सबसे ज्यादा मिठाई वहाँ के वाल्मीकि समाज ने ही बाँटी।
लेकिन उनकी यह ख़ुशी ज्यादा देर नहीं टिक सकी। सैयदों ने इस पर चीख़ पुकार मचा दी। शेख चिल्लाने लगे। मुफ़्ती हकलाने लड़े। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक से बढ़कर एक वकीलों की लाईन लगा दी। किसी भी हालत में अनुच्छेद 370 नहीं हटना चाहिए। भविष्य में क्या होगी, इसकी सबसे ज्यादा चिन्ता जम्मू कश्मीर के वाल्मीकि समाज को ही थी। क्या वे एक बार फिर 370 के उसी दलदल में फँस जाएँगे? क्या उनके बच्चे ज़िन्दगी भर केवल इसीलिए सफाई सेवक बनते रहेंगे क्यों
कि वे वाल्मीकि समाज में से हैं? लेकिन 11 दिसम्बर को वाल्मीकि एक बार फिर से सबसे ज्यादा मिठाई बाँट रहा था। अन्त में जीत वाल्मीकि समाज की ही हुई थी। लेकिन सैयद महबूबा मुफ़्ती ने कहा कि हमारे लिए यह फाँसी की सजा है। साठ साल तक फाँसी की यह सजा वाल्मीकि समाज ने भुगती है। सैयदों को उनकी ख़ुशी में भागीदार होना चाहिए न कि अपशकुन करने चाहिए
सियासी मियार की रीपोर्ट