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मौत के दर्रे में यायावरी पल…

मौत के दर्रे में यायावरी पल…

किन्नौर घाटी में कल्पा से नाको के सफर में सतलुज हमसफर थी, यह वही राक्षसी नदी है, जो कैलास पर्वत के आंगन में राक्षस ताल से निकलकर शिपकिला दर्रे से हिंदुस्तान में प्रवेश करती हुई खाब के पास स्पीति नदी से मिलती है। इस बीच, कितने ही ग्लेशियरों की धाराएं, नाले, छोटी-मोटी और कई नदियां सतलुज में खुद को समोती हुई चलती हैं और इनके साथ आगे बढ़ते हुए यह नदी लगातार तूफानी बनती जाती है। और दुनिया के सबसे दुर्गम मार्ग पर सफर का अनुभव इसी सतलुज नदी के किनारे-किनारे हिमाचल की किन्नौर घाटी से शुरू हो जाता है।

एक तरफ दहाड़ती सतलुज और दूसरी तरफ पहाड़ जो शूटिंग स्टोन, लैंडस्लाइड जैसे खतरों से कब आपका रास्ता रोक लें, कहा नहीं जा सकता। और सड़क कहीं-कहीं इतनी संकरी हो जाती है कि यकीन नहीं होता कि आपकी गाड़ी उस पर से कैसे गुजर गई! इस सड़क के ब्लॉक होने का मतलब है कई हफ्तों के लिए फंस जाना। इस बीहड़ में कहां सड़क गुम हुई, कहां नदी की धार रास्ते में घुस आयी, कब पहाड़ ने आपको रास्ता दिया और कब रास्ते में पहाड़ घुसा चला आया, कुछ भी अनुमान से परे होता है। अच्छे से अच्छा एडवेंचर प्रेमी भी इस सफर में कई-कई बार अपनी किस्मत टटोलता है और नियति के साथ अपने रिश्तों को दोहराता है। सिर्फ 10-20 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से सरकते हुए घाटियों-पहाड़ियों को लांघने, कितनी ही चढ़ाइयां चढ़ने और उतरने का सिलसिला दिन भर जारी रहता है। मंजिल है कि पास आने की बजाय दूर सरकती जाती है और सड़क के दोनों तरफ खतरे लगातार सिर उठाते रहते हैं। हौसलों की परख करनी हो तो चले आइये नेशनल हाइवे संख्या 5 पर, किन्नौर से स्पीति ले जाने वाले वाला यह राष्ट्रीय राजमार्ग दुनिया का दुर्गमतम मार्ग है जिस पर गुजरते हुए आपको कई बार महसूस होगा जैसे जान भी अब बचनी मुमकिन नहीं! और फिर किसी पथरीली, संकरी सड़क का मोड़ घूमते ही दूसरे ही पल मनमोहक वादी में आप खुद को पाते हैं।

सीमांत का सफर
लाहौल-स्पीति के जनजातीय इलाके किसी रहस्यभूमि से कम नहीं हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि रोहतांग, बारालाचा और कुंजुम दर्रों से घिरा यह भूभाग साल के 7-8 महीने देश के दूसरे हिस्सों से कटा रहता है। बर्फ से घिरी इन ट्रांस-हिमालयन घाटियों में रहना किसी अग्नि-परीक्षा से कम नहीं होता। नंगे पहाड़ जिन पर घास के तिनके भी मुश्किल से दिखते हैं, हवा इतनी पतली कि सांस लेना एक बड़ा प्रयास बन जाता हो, फसलों के नाम पर आलू और मटर, फलों का नामो-निशान नहीं, घरों की दहलीज और खेतों तक पहुंचने के लिए बेरहम ऊंचाइयां से गुजरते संकरे, पथरीले रास्ते … आप शहरी हैं तो ये हालात दयनीय लग सकते हैं। लेकिन जरा किसी लाहुली या स्पीतियन का चेहरा पढ़ने की कोशिश करें, आपको वहां सिर्फ गहरा संतोष और परम खुशी दिखायी देगी। इस दुर्गम सफर में एक भी ऐसा इंसान नहीं मिला मुझे, जिसे अपने हालात से कोई शिकायत हो।

सर्दियों में जब बर्फ से पट जाती हैं इनकी सड़कें और गलियां और पड़ोस के घर तक के रास्ते भी बंद होने लगते हैं, जब छतों पर रात भर जमा हुई बर्फ को माइनस पंद्रह-बीस तापमान पर भी हर दिन हटाना जरूरी होता है, जब सड़कों के बंद हो जाने पर महीनों ताजा सब्जियां-राशन नहीं पहुंच पाता, जब बिजली के तार कहीं किसी बर्फीले तूफान में फंसकर तीस-चालीस दिन तक भी हरकत में नहीं लौटते, जब बाहरी दुनिया से संपर्क के नाम पर इन घाटियों में हेलीपैड पर कई-कई दिन हेलिकॉप्टर नहीं उतर पाता और उड़ान भरने का मौका मिलने पर भी आम आदमी के लिए उसमें सीट का इंतजाम करना लगभग नामुमकिन होता है, तब भी उनके चेहरों पर शिकन नहीं होता। अपने बीमार को लकड़ी की स्लेज पर घसीटकर आज भी मीलों दूर तक खींच ले जाते हैं लाहुली-स्पीतियन, डॉक्टर के नहीं होने पर सरकारों को शायद ही कोसते होंगे ये पहाड़ी … उनकी फितरत में ही शायद नहीं है शिकायती बनना।

सर्दियों में कैसे रहते हैं यहां? मेरे इस सवाल पर लांग्जा में एक होमस्टे चला रही स्पीतियन का कहना था, दिन भर घर के काम में खुद को लगाए रखते हैं, आप आना इस बार सर्दी में मेरे घर, और सुनना गहराती शाम के वक्त, बिजली न होने पर अंधेरे में डूबे हमारे घरों की दीवारों को लांघकर बाहर तक सुनायी देने वाले ठहाकों को… ये कुंजुम के परे क्या है या मनाली की रौनक कैसी होती है, इससे हमें कोई वास्ता कहां। हमारी दुनिया तो यही है, और हम खुश हैं इन पहाड़ों के साथ! इस आध्यात्मिक रहस्यलोक को टटोलने के लिए हिमालय भूमि के कुछ प्राचीनतम मठों, गोंफाओं जैसे ताबो, की, ढंकर, लाहलुंग, कुंगरी के सफर पर निकल पड़ी थी मैं इस बार।

हौसलों की परख का सफर
लाहौल-स्पीति के अपने सफर को कुछ अलहदा बनाना हो तो यहां के दुर्गम, बहुत कम आबादी वाले मगर सबसे अधिक ऊंचाई पर बसे गांवों के सफर पर निकल पड़िए। अभी कुछ साल पहले तक स्पीति का किब्बर गांव था दुनिया का सबसे ऊंचा गांव मगर इस खिताब को अब कोमिक ने हथिया लिया है। यों असली मुसाफिर को इन तकनीकी बारीकियों से, कुछ सौ-दो सौ फीट की ऊंचाइयों के बदलने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता तो भी 4587 मीटर ऊंचे खड़े कोमिक लोंडुप त्सेमो गोंफा में मैरून चोगे में सिमटे भिक्षुओं के बीच प्रार्थना के कुछ पल गुजारना वाकई एक नायाब अहसास दे जाता है। उसी खास अनुभव को लेने चले आइये इस बार यहां!

काजा से रोहतांग के सफर की दुश्वारियां
लाहौल-स्पीति के पूरे सफर का एक नाटकीय हिस्सा मिलता है काजा के बाद। यहां से लोसर होते हुए चंद्रताल तक जाना किसी स्वप्नलोक के सफर में जाने जैसा होता है। एक तरफ चंद्रा नदी का तेज बहाव होता है, जो लाहौल के दूसरे छोर पर खड़े बारालचा दर्रे से निकलकर जाने कितने अनगढ़ रास्तों से होती हुई चंद्रताल से कुछ किलोमीटर पहले आपकी हमसफर बन जाती है। चंद्रताल के लिए मुख्य सड़क से करीब 12 किलोमीटर का डीटूर लेना पड़ता है जबकि यही सड़क आगे कुंजुम के उस पार बातल निकलती है। 15039 फीट ऊंचे कुंजुम की चढ़ाई एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाए रखती है लेकिन गर्मियों के महीनों में जब इस पर जमा बर्फ पिघल चुकी होती है तो इसे पार करना कोई बहुत खतरनाक नहीं रह जाता। प्रार्थना ध्वजों से सजे कुंजुम टॉप को देखकर हरेक के मन में कुछ-कुछ होता जरूर है। टॉप से उतरने के बाद की पथरीली सड़क अब और भी संकरी हो जाती है, यों सड़क जैसा तो जो कुछ था उसे काजा से कुछ आगे आने के बाद ही भूल जाना बेहतर होता है। लगता है जैसे बरसों पहले जो म्यूल्स ट्रैक था, कभी उसे ही दाएं-बाएं खींचकर जीपों के निकलने के लिए बना दिया गया होगा!

सालों से इसी रास्ते पर दौड़ते वाहनों को अब शायद इन चुनौतियों को झेलने की आदत सी हो आयी है और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मोरेन, चट्टानों, बड़े-बड़े पत्थरों से भरे इस मार्ग पर मुश्किल से 5 से 10 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार भी निकल पाती है या नहीं। दस कदम भी समतल जमीन मिल जाती है तो हैरत बढ़ जाती है कि कब कोई अगला अवरोध, पिघलते ग्लेशियर के पानी से लबालब भरा नाला, कोई झरना या नदी की धार रास्ता रोकने को तैयार होगी। हालांकि हिमाचली ड्राइवरों ने इन रास्तों की मनमानियों को झेलना सीख लिया है तो भी बातल और छतड़ू के बीच के भयावह नालों को पार करना आज भी मजाक नहीं है। इस रास्ते पर कुदरत अपने विकराल रूप के दर्शन कराती है तो साथ ही इन दिनों पहाड़ियों की ढलानों पर उगे फूल उसके कोमल मन की तरह बिछे होते हैं। इधर आप सोचते हैं कि पगलाए नालों से मुक्त हो चुके होंगे, लेकिन ग्राम्फू तक इनसे कोई राहत नहीं मिलती। इस बीच, सड़क पर गर्द के गुबार उड़ते चलते हैं, जैसे सदियों से नमी की कोई बूंद इस इलाके में नहीं गिरी। दाएं बाएं की पहाड़ियों पर पिघलते ग्लेशियर इन दिनों पतली लकीर में बदल जाते हैं, नोंकदार चोटियां अपनी सफेदी लुटाने के बाद आवरणहीन हो चुकी होती हैं और इनके बर्फीले पानी को अपनी काया में समेटती चंद्रा लगातार आकार में बढ़ती चलती है। और कायनात की इस विशालता के बीच अच्छे से अच्छे एसयूवी का इंजन भी बेचारगी से गुजरता दिखता है।

हालांकि अब सब्र इस बात का होता है कि रोहतांग ज्यादा दूर नहीं रहा। इस बीच, धूल-गुबार, नदी के शोर और नालों की दहशतगर्दी को पार करते-करते आपके मोबाइल में जैसे कोई सरसराहट सी होती है, अब बीते कई दिनों से पस्त पड़ी उसकी स्क्रीन में कुछ हरकतें होने लगती हैं। फिर लाहौल की चोटियों और रोहतांग की ऊंची पहाड़ी काया के चलते सिग्नल की लुकाछिपी काफी दूर तक जारी रहती है। खोकसर से एक राह आपको लेह जाने की दिखायी देती है जो केलांग के लिए निकल गई है जबकि दूसरा मोड़ रोहतांग की चढ़ाई की राह पर ले जाता है। राजधानी शिमला से बढ़े चलें हिमाचल के इस दुर्गम सफर पर, कहीं किसी सड़क पर, किसी कोने में, किसी ढलान पर या किसी चढ़ाई के दुर्गम मोड़ पर… कहीं न कहीं अपने आपसे बातें करते पाओगे, उसी देवभूमि में जिसके वाशिंदों में आज भी देव बसते हैं!

रोहतांग का तिलिस्म
कुल्लू कभी कुलूत था यानी सभ्यता का अंतिम पड़ाव और मान लिया गया था कि उसके आगे संसार खत्म हुआ जाता है। और वो जो बर्फ की खोह में बसता था लाहौल-स्पीति का संसार, अलंघ्य और अविजित रोहतांग दर्रे के उस पार उसका क्या? वो हमारे-आपके साधारण संसार से पार था अभी कुछ साल पहले तक। मौत के दर्रे से गुजरकर जाना होता था वहां, कौन जाता? सिर्फ वही जिसे कुछ मजबूरी होती या कोई अटलनीय काम। तब भी व्यापारी लांघा करते थे उस 13, 050 फीट ऊंचे दर्रे की कई-कई फीट बर्फ से ढकी दीवारों को! ये व्यापारी कशगर, खोतां, ताशकंद तक से आते थे और कुल्लू-मनाली, पंजाब, चंबा-कांगड़ा जैसे देसी ठिकानों से भी। घोड़ों पर और पैदल पार किया करते थे उस जानलेवा दर्रे को। भोटी भाषा में रोहतांग के मायने हैं रोह यानी शव और तांग यानी ढेर या स्थान। यानी ऐसा स्थान जहां शवों के ढेर हों। इसके हिम शिखरों पर से गड़गड़ाहट के साथ जाने कितने एवलांच धड़धड़ाते हुए नीचे आते हैं और अपने रास्ते में सब कुछ लील जाते हैं। फिर यह बर्फीला संसार एकदम चुप हो जाता है, सन्नाटे में डूब जाता है, ध्यानमग्न योगी की तरह .. जैसे फिर एक और तूफान के लिए अपनी ऊर्जा जुटा रहा हो..।

सियासी मियार की रीपोर्ट