धीमी वाली फास्ट पैसेंजर: पूर्वांचल की कस्बाई जिंदगी के किस्से.
बीबीसी के पत्रकार रहे मार्क टली की किताब धीमी वाली फास्ट पैसेंजर अपकंट्री टेल्स: वंस अपऑन अ टाईम इन द हर्ट ऑफ इंडिया का हिन्दी में अनुवाद है जिसे हिन्दी में अनुवादित किया है पत्रकार प्रभात सिंह ने। प्रकाशक हैं राजकमल पैपरबैक्स। धीमी वाली फास्ट पैसेंजर अस्सी-नब्बे के दशक की 7 किस्से कहानियों को बयां करती है जिनसे लेखक अपने पत्रकारिता कॅरियर के दौरान रूबरू हुआ। पूर्वी उत्तर प्रदेश के छोटे छोटे कस्बों की जिंदगी के ऐसे किस्से जो उस दौर के बदलते आर्थिक सामाजिक परिवेश से रू ब रू करवाते हैं। मार्क के शब्दों में ये काले और सफेद के बीच पूर्वांचल की धूसर तस्वीर है जिस हिस्से में जिन्दगी उतनी बुरी नहीं जितनी बताई जाती रही।
टीले वाले मन्दिर की कहानी में दलित बुधराम को संत रविदास का मन्दिर बनाने के लिये अगड़ों से संघर्ष करना है तो मिलनपुर कस्बे में सब इंस्पेक्टर प्रेमलाल वहां हुए एक कत्ल की गुत्थी सुलझाने में सीआइडी को आईना दिखा देता है। उसी दौर के तीरथपाल नामक किसान की कहानी है जब हैसियत और इन्सान- जानवर के लगाव की निशानी ओसरे में बंधे बैल बेचे जा रहे थे और लोन पर ट्रैक्टर लिये जा रहे थे। एक कहानी है विदेश में पढ़े लड़के की जो अपनी कम्प्यूटरी के बदौलत गांव की तस्वीर बदलने के बहाने हुकूमत में अपनी तकदीर चमकाना चाहता है और उस समय नये नये पंचायती राज जैसे संस्थाओं की वकालत करता है, हालांकि उसे गांव वालों के पत्थरों और गालियों का सामना करना पड़ता है। एक सांसद हैं जो अपनी बस कम्पनी को मुनाफे में लाने के लिये अपने ही क्षेत्र की एक मात्र रेलगाड़ी को बन्द करवाना चाहता है।
ये कहानियाँ उस दौर के हर शख्स को अपनी ही कहानी लग सकती हैं जिसमें ठसाठस भरी सरकारी रोडवेज से सफर करना है,दूरदर्शन और रेडियो पर अटूट भरोसा रखना है या बाबू-बालू नाम के बैलों को अपने परिवार का हिस्सा मानना है, ये वो किरदार हैं जो सभी को जाने पहचाने लगते हैं और लग सकता है इन किस्सों को पहले भी कहीं देखा सुना गया है।
नाम: धीमी वाली फास्ट पैसेंजर
लेखक: मार्क टली
अनुवादक प्रभात सिंह
प्रकाशक: राजकमल पैपरबैक्स
कुल पृष्ठ: 264
मूल्य:299 रुपए
समीक्षक: अनुज चतुर्वेदी
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